• होम
  • सियासत
  • समाज
  • स्पोर्ट्स
  • सिनेमा
  • सोशल मीडिया
  • इकोनॉमी
  • ह्यूमर
  • टेक्नोलॉजी
  • वीडियो
होम
समाज

Namaz In Karnataka School: स्कूल के घंटों में धर्म का अड़ंगा फिर भारी विरोध...

    • सरिता निर्झरा
    • Updated: 25 जनवरी, 2022 07:38 PM
  • 25 जनवरी, 2022 07:38 PM
offline
धार्मिक भावनाएं बहुत मजबूत होती है. शायद इसलिए कि इंसान को मानसिक मजबूती देती है लेकिन, स्कूली शिक्षा के सालों में विषयों और भविष्य में काम आने वाली तकनीक से ज़्यादा धर्म कर्म के पाठ, नई पीढ़ी को कहां ले जाएगा? किसी बवंडर की ज़रूरत नहीं बात बस समझने की है.

आइये एक कहानी सुनें. एक गांव था बवंडरा. बवंड़रा यूं तो किसानो का गांव था लेकिन स्कूल था अस्पताल था, नई तकनीक और शिक्षा ने काम भर को विकसित कर दिया था बाकी आता वो भी विकासशील की फेहरिस्त में ही था. बड़े बुज़ुर्गो को लगता एक दिन बवंड़रा बड़ा शहर बन जायेगा. स्कूल में मास्साब भी पढाई को लेकर काफी चुस्त थे. आखिर बवंड़रा का भविष्य थे बच्चे. रमेश, लीला, अनवर, सायरा, मनोज, चुन्नी, मुनीर, टिंकू, टिंकी नरगिस सब पढ़ते थे. वही बच्चों की दुनिया. खेल पढ़ाई शरारतें भागम दौड़ी. खाने का घंटा सबका सबसे प्यारा होता. एक दूसरे के घरों का स्वाद चखते.उंगलियां चाटते. मिलजुल कर निवाले बांटना और समय बच जाये तो आम के बाग में गिट्टे लांघना! बस बचपन जैसा होना चाहिए वैसा. सब दिन एक से थे लेकिन शुक्रवार को स्वाद कम होता और मंगल को भी. सारे बच्चे ,स्कूल के घंटो में से अपने अपने ईश्वर का घंटा पढ़ते पढाते. उन दिनों में खास मास्टर आते. अपने अपने ईश्वर को टारगेट बना कर. अमुक संख्या के दिमाग में ईश चर्चा भरनी है यही होता उनका वीकली टारगेट.

कर्नाटक के कोलार में सरकारी स्कूल में बच्चों के शुक्रवार की नमाज पढ़ने ने सूबे की सियासत को गर्मा दिया है

बिल्कुल यही शायद कर्नाटक के सरकारी स्कूल में भी हुआ हो. खबर आज कल आग सी फैलती है तो पढ़ सुन तो लिया ही होगा. कर्नाटक के सरकारी स्कूल में नमाज़ पढ़ते बच्चे. बच्चे क्लास के बाहर न जाये इसलिते हेडमास्टर ने क्लास में ही नमाज़ की इजाज़त दे दी! मतलब स्कूल में स्कूली शिक्षा से ज़्यादा महत्वपूर्ण धर्म की शिक्षा है!

क्या सेक्युलर शब्द केवल एक धर्म पर लागू होता है!

तो बवंडरा के स्कूल में भी रोज़ जितना समय, लेकिन शुक्रवार मंगल के दिन हंसी कम होती खेल कम होते. ये बच्चे बचपन खो रहे थे. धीरे धीरे होने ये लगा की बवंड़रा के स्कूल...

आइये एक कहानी सुनें. एक गांव था बवंडरा. बवंड़रा यूं तो किसानो का गांव था लेकिन स्कूल था अस्पताल था, नई तकनीक और शिक्षा ने काम भर को विकसित कर दिया था बाकी आता वो भी विकासशील की फेहरिस्त में ही था. बड़े बुज़ुर्गो को लगता एक दिन बवंड़रा बड़ा शहर बन जायेगा. स्कूल में मास्साब भी पढाई को लेकर काफी चुस्त थे. आखिर बवंड़रा का भविष्य थे बच्चे. रमेश, लीला, अनवर, सायरा, मनोज, चुन्नी, मुनीर, टिंकू, टिंकी नरगिस सब पढ़ते थे. वही बच्चों की दुनिया. खेल पढ़ाई शरारतें भागम दौड़ी. खाने का घंटा सबका सबसे प्यारा होता. एक दूसरे के घरों का स्वाद चखते.उंगलियां चाटते. मिलजुल कर निवाले बांटना और समय बच जाये तो आम के बाग में गिट्टे लांघना! बस बचपन जैसा होना चाहिए वैसा. सब दिन एक से थे लेकिन शुक्रवार को स्वाद कम होता और मंगल को भी. सारे बच्चे ,स्कूल के घंटो में से अपने अपने ईश्वर का घंटा पढ़ते पढाते. उन दिनों में खास मास्टर आते. अपने अपने ईश्वर को टारगेट बना कर. अमुक संख्या के दिमाग में ईश चर्चा भरनी है यही होता उनका वीकली टारगेट.

कर्नाटक के कोलार में सरकारी स्कूल में बच्चों के शुक्रवार की नमाज पढ़ने ने सूबे की सियासत को गर्मा दिया है

बिल्कुल यही शायद कर्नाटक के सरकारी स्कूल में भी हुआ हो. खबर आज कल आग सी फैलती है तो पढ़ सुन तो लिया ही होगा. कर्नाटक के सरकारी स्कूल में नमाज़ पढ़ते बच्चे. बच्चे क्लास के बाहर न जाये इसलिते हेडमास्टर ने क्लास में ही नमाज़ की इजाज़त दे दी! मतलब स्कूल में स्कूली शिक्षा से ज़्यादा महत्वपूर्ण धर्म की शिक्षा है!

क्या सेक्युलर शब्द केवल एक धर्म पर लागू होता है!

तो बवंडरा के स्कूल में भी रोज़ जितना समय, लेकिन शुक्रवार मंगल के दिन हंसी कम होती खेल कम होते. ये बच्चे बचपन खो रहे थे. धीरे धीरे होने ये लगा की बवंड़रा के स्कूल में उन दिनों को बच्चे ही कम आते ! उन मास्टरों की आंखों से डर जो लगता था. मंगल को कला का घंटा और शुक्रवार को खेल का - बस मानो बीत जाता. न दोस्त होते न बातें न कुछ नई सीख.

बवंड़रा में यूं तो बात बात पर बवंडर मचता था, लेकिन मास्साब समझदार थे. कर्नाटक वाले स्कूल के हेडमास्टर या हेडमास्टरनी जैसे नहीं जिन्होंने बच्चे क्लास के बाहर नमाज़ न पड़े तो क्लास में पढ़ने की इजाज़त दी! अर्रे आपका स्कूल है,विज्ञान पढवाईये, संगीत नाट्य नए तरह के विषय को बढ़ावा दीजिए.ये क्या बात हुई भला!

तो बवंडरा में बवंडर के डर को जानते हुए भी मास्साब ने इरादा कर लिया और ईश्वर से डाइरेक्ट बात कर ली. बोल दिया की आप ज़रा अपना सब्जेक्ट को होम ट्यूशन में पूरा कराएं या गर्मी की छुट्टी में या कुछ बड़े होने का इंतज़ार करें. बच्चे अभी छोटे हैं तो उनके लिए आपको पढ़ने से ज़्यादा भीतर आपको सहेजना ज़रूरी है. ये होगा तब, जब बचपन की मासूमियत बचेगी. आपके बिचौलिए बचपन मार कर आपको भी नहीं बख्शेंगे.

ईश्वर समझ गए इजाज़त दे दी ! फिर क्या मास्साब ने उसी दम से ये सब बंद कराया. ईश्वर की पढ़ाई घर में. बवंड़रा के स्कूल में बच्चे सब पढ़ते ,कला खेल विज्ञानं गणित इतिहास - वो भी सब जस का तस लेकिन ईश्वर का घंटा हँसते खिलखिलाते बाग़ में सूरज के नीचे खेलते बीतता.

बवंड़रा तरक्की कर रहा है. मास्साब की बहुत इज्जत है.

रमेश, लीला, अनवर, सायरा, मनोज, चुन्नी, मुनीर, टिंकू,टिंकी नरगिस सब बवंड़रा के विकास में लगे है अपने अपने ईश्वर से समय समय पर प्रार्थना करते हुए. तो बात बस इतनी सी ही है की हर बात पर बवंडर बनाना ज़रूरी नहीं. साथ ही ये भी ज़रूरी है की स्कूल बस स्कूल रहे ये देश समय और भविष्य की दरकार है. धर्म को घुट्टी की तरह घोंट कर पिलाना कहाँ तक सही या गलत इसपर चर्चा नहीं करूंगी.

गोया एक समाज की तरक्की पढें लिखे लोग करते हैं जान डॉक्टर बचाते हैं और देश की तरक्की उस शिक्षा से होती है जिसके लिए स्कूल बने हैं ! तो स्कूल में विषयों का समय हटा कर ये क्यों करवाना? सरकारी नौकरी हो या प्राइवेट मिलेगी स्कूली शिक्षा से, ये समझने में मुश्किल क्यों है? क्यों धर्म को गले की हड्डी बनाते है बनिस्बत गले के लॉकेट के ? स्कूल और बचपन को तो इससे दूर रखें ये गुज़ारिश भी है और उम्मीद भी.

कभी कभी हवा के बीचो बीच रह कर न रुख समझ आता है न उसका दूरगामी असर. तो ऐसे में हवा के बवंडर से ज़रा दूर आएं. देखे की रुख क्या है और नुक्सान कितना होगा. और फिर मास्साब की तरह निर्णय ले ले. एक ही बार में जो होगा देखेंगे. देश , भविष्य समय रहते बचे वो भी बिना किसी बवंडर के ये ज़रूरी है.

बाकि रमेश, लीला, अनवर, सायरा, मनोज, चुन्नी, मुनीर, टिंकू, टिंकी नरगिस सब साथ है साथ रहेंगे और ईश्वर से बात हो जाएगी. वो तो यूं भी सब जानते हैं!

ये भी पढ़ें -

Surrogacy or Adoption? क्या इस बात की तुलना पर बहस की जा सकती है?

#MarriageStrike ट्विटर पर क्यों ट्रेंड कर रहा है? 4 जरूरी बातें

Masala Dosa Ice cream Roll: ये डोसे और आइसक्रीम दोनों की हत्या है, दफा 302 से नीचे की बात ही नहीं!

इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

ये भी पढ़ें

Read more!

संबंधि‍त ख़बरें

  • offline
    आम आदमी क्लीनिक: मेडिकल टेस्ट से लेकर जरूरी दवाएं, सबकुछ फ्री, गांवों पर खास फोकस
  • offline
    पंजाब में आम आदमी क्लीनिक: 2 करोड़ लोग उठा चुके मुफ्त स्वास्थ्य सुविधा का फायदा
  • offline
    CM भगवंत मान की SSF ने सड़क हादसों में ला दी 45 फीसदी की कमी
  • offline
    CM भगवंत मान की पहल पर 35 साल बाद इस गांव में पहुंचा नहर का पानी, झूम उठे किसान
Copyright © 2025 Living Media India Limited. For reprint rights: Syndications Today.

Read :

  • Facebook
  • Twitter

what is Ichowk :

  • About
  • Team
  • Contact
Copyright © 2025 Living Media India Limited. For reprint rights: Syndications Today.
▲