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इंदौर नगर निगम ने बुजुर्गों के साथ जो किया वह नीच, क्रूर और आपराधिक है!

    • अंकिता जैन
    • Updated: 01 फरवरी, 2021 09:36 PM
  • 01 फरवरी, 2021 09:36 PM
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इंदौर नगर निगम ने बुजुर्गों के साथ जो किया वह बिना किसी किंतु-परंतु के नीच, क्रूर और आपराधिक कार्य है. प्रशासनिक दुर्बलता है. प्रशासन का कार्य ही है कि जिसे समाज ने ताज दिया हो उसका सहारा बने. पकड़े जाने पर नेताओं द्वारा किसी अधिकारी को निष्काषित भर कर देने से यह दुर्बलता छुप नहीं जाती.

एक बहुप्रचलित कथा है जिसका घूंट संस्कारों की घुट्टी के साथ हमें बचपन से पिलाया गया. संभव है कि आपको भी पिलाया गया हो. कथा ऐसी है कि एक बार बंटवारे में बेटे ने विधवा मां को अलग कर दिया. उसकी रसोई अलग. उसका कमरा अलग. मां जब हाथ-पैरों से भी लाचार हो गई तो बेटा-बहु ने सामाजिक दवाब में दो बार भोजन देना स्वीकार लिया. भोजन देने के लिए बर्तन अलग लाए गए. एक मिट्टी का कटोरा था जो रसोई की देहरी से बाहर कोने में रखा रहता. बेटे का बेटा जब थोड़ा बोलने लायक हुआ तो एक दिन मां से पूछ बैठा, 'ये कटोरा बाहर क्यों रखा रहता है? ये किसका है?' मां ने जवाब दिया 'तेरी दादी का है. इसमें उन्हें खाना देते हैं'. बेटे ने जवाब दिया, 'अच्छा तो इसे ख़राब नहीं करना जब तुम बूढ़ी हो जाओगी तो मैं भी इसी में दे दिया करूंगी. बेटे की मां और सास की बहु उस दिन ना सिर्फ निःशब्द हुई बल्कि अलगे दिन से ही सास को रसोई में बैठाकर खाना खिलाने लगी.

इंदौर में नगर निगम द्वारा बुजुर्गों के साथ कुछ ऐसा सुलूक किया जा रहा है

हमें बचपन से सिखाया गया है कि बुजुर्गों से असहमति हो सकती है, नाराज़गी भी हो सकती है, अबोला भी लेकिन इसके बावजूद उनकी असमर्थता में उसकी सेवा करना तुम्हारा नैतिक दायित्व है. इसे ना निभाने पर पाप लगता है और इस पाप की सजा बहुत बुरी मिलती है. इसी जन्म में और अगले कई जन्मों तक. कभी-कभी लगता है समाज में पाप-पुण्य के सिद्धांत को लाया ही नैतिक दायित्व निभाने के लिए होगा. अब ये कितना और किस पर सही बैठेगा किस पर नहीं इसका विभाजन हमें अपनी समझ से करना होगा.

इंदौर नगर निगम ने बुजुर्गों के साथ जो किया वह बिना किसी किंतु-परंतु के नीच, क्रूर और आपराधिक कार्य है. प्रशासनिक दुर्बलता है. प्रशासन का कार्य ही है कि जिसे समाज ने ताज दिया...

एक बहुप्रचलित कथा है जिसका घूंट संस्कारों की घुट्टी के साथ हमें बचपन से पिलाया गया. संभव है कि आपको भी पिलाया गया हो. कथा ऐसी है कि एक बार बंटवारे में बेटे ने विधवा मां को अलग कर दिया. उसकी रसोई अलग. उसका कमरा अलग. मां जब हाथ-पैरों से भी लाचार हो गई तो बेटा-बहु ने सामाजिक दवाब में दो बार भोजन देना स्वीकार लिया. भोजन देने के लिए बर्तन अलग लाए गए. एक मिट्टी का कटोरा था जो रसोई की देहरी से बाहर कोने में रखा रहता. बेटे का बेटा जब थोड़ा बोलने लायक हुआ तो एक दिन मां से पूछ बैठा, 'ये कटोरा बाहर क्यों रखा रहता है? ये किसका है?' मां ने जवाब दिया 'तेरी दादी का है. इसमें उन्हें खाना देते हैं'. बेटे ने जवाब दिया, 'अच्छा तो इसे ख़राब नहीं करना जब तुम बूढ़ी हो जाओगी तो मैं भी इसी में दे दिया करूंगी. बेटे की मां और सास की बहु उस दिन ना सिर्फ निःशब्द हुई बल्कि अलगे दिन से ही सास को रसोई में बैठाकर खाना खिलाने लगी.

इंदौर में नगर निगम द्वारा बुजुर्गों के साथ कुछ ऐसा सुलूक किया जा रहा है

हमें बचपन से सिखाया गया है कि बुजुर्गों से असहमति हो सकती है, नाराज़गी भी हो सकती है, अबोला भी लेकिन इसके बावजूद उनकी असमर्थता में उसकी सेवा करना तुम्हारा नैतिक दायित्व है. इसे ना निभाने पर पाप लगता है और इस पाप की सजा बहुत बुरी मिलती है. इसी जन्म में और अगले कई जन्मों तक. कभी-कभी लगता है समाज में पाप-पुण्य के सिद्धांत को लाया ही नैतिक दायित्व निभाने के लिए होगा. अब ये कितना और किस पर सही बैठेगा किस पर नहीं इसका विभाजन हमें अपनी समझ से करना होगा.

इंदौर नगर निगम ने बुजुर्गों के साथ जो किया वह बिना किसी किंतु-परंतु के नीच, क्रूर और आपराधिक कार्य है. प्रशासनिक दुर्बलता है. प्रशासन का कार्य ही है कि जिसे समाज ने ताज दिया हो उसका सहारा बने. पकड़े जाने पर नेताओं द्वारा किसी अधिकारी को निष्काषित भर कर देने से यह दुर्बलता छुप नहीं जाती. ख़ुद को साफ रखने के लिए पड़ोसी के प्लॉट में कचरा फेंक देना नालायकी में आता है. यही नालायकी इंदौर नगरनिगम से हुई.

लेकिन इसकी बात यहीं ख़त्म नहीं होनी चाहिए. हम तो उस समाज से हैं जहां घर के बुजुर्गों को पीपल समझा जाता है जिसकी अनेकों शाखाओं पर अनेकों घोंसले फलते-फूलते हैं. उस समाज में बुजुर्गों का यूं सड़क पर असहाय, दयनीय स्थिति में पड़े रहना क्या सामाजिक दोष नहीं है?

बुजुर्गों का रैन-बसेरों या वृद्धाश्रमों में पहुंच जाना निश्चिंत हो जाना नहीं है. सरकारी आश्रमों की हालत कितनी दयनीय होती है वहां जाकर देखगें तो कुछ दिन हलक से निवाला नहीं उतरेगा. बाहर देशों में आश्रमों में रहने का चलन है. ओल्ड-एज होम में रहने का. मैं इसका समर्थन करती हूं लेकिन सिर्फ तब तक जब तक वह स्वयं उस बुजुर्ग के द्वारा अपनी आजादी के लिए चुना जाए.

जब उन्हें उन्हीं के घर से निकालकर मजबूरन वहां रहने को मजबूर किया जाए तब यह पाप की श्रेणी में आएगा. उसी पाप की जिसका फल बहुत बुरा मिलता है. बस इतना समझने की ज़रूरत है कि कोई भी देश सिर्फ प्रशासनिक सुधार से बेहतर नहीं बनता.

सामाजिक सुधार भी आवश्यक हैं. दोनों का तालमेल ही एक सुंदर और सभ्य समाज बनाता है. और इसे सुंदर बनाने की नैतिक ज़िम्मेदारी भी प्रशासन और समाज दोनों को लेनी चाहिए. उन बुजुर्गों की इस हालत के लिए प्रशासन के साथ-साथ वे लोग भी ज़िम्मेदार हैं जिन्होंने इनको कचरा समझकर घरों से फेंक दिया. अभी, पहले या किसी भी उम्र में.

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इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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