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गुजरे साल कोरोना में मदद कर नाम कमाने वाला भारत फिर अराजक बन गया है!

    • रीवा सिंह
    • Updated: 14 अप्रिल, 2022 04:14 PM
  • 14 अप्रिल, 2022 04:12 PM
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गुजरे साल कोरोना के दौर में हमने लोगों को एक दूसरे की मदद करते देखा जबकि इस साल स्थिति दूसरी है. ठीक एक वर्ष बाद का भारतवर्ष रामनवमी के उपलक्ष्य में रैलियां निकाल रहा है. राम को वर्चस्व का सूचक घोषित करने पर अमादा है. राम के नाम पर उपद्रव कर रहा है. उज्ज्वल भगवे रंग को दूसरों के लिये भय का पर्याय बना रहा है.

ठीक इन्हीं दिनों पिछले वर्ष कोविड की दूसरी लहर की शुरूआत हो चुकी थी. चारों ओर लोग बीमार पड़ रहे थे. अगले क्षण का ठिकाना न था. अस्पताल जाते तो लौट कर आ सकेंगे या नहीं, पता नहीं था. शवों का अम्बार लगने लगा. सरकार चुनावी प्रचार में व्यस्त थी. लोग मर रहे थे, मरघट भर रहे थे, वोट मांगे जा रहे थे. राजनीतिक दल के समर्पित वोटर भी अवाक् थे, मन टूट रहा था. आधी रात को ऑक्सिज़न सिलिंडर की खोज शुरू होती. रक्त मांगा जाता, प्लाज़्मा मांगा जाता, अस्पतालों में बेड मांगे जाते.

सभी लोग सभी लोगों के लिये हाथ बढ़ाते, सहायता करते. कोई न पूछता कि ऑक्सिज़न सिलिंडर देने वाले का धर्म क्या है, रक्त और प्लाज़्मा किस मज़हब के व्यक्ति से लिया गया है, इलाज कर रहे चिकित्सक की जाति क्या है.

सर्वविदित था कि सत्ता बेफ़िक़्र थी, जनता बेबस. लोग एक-दूसरे के साथ थे, स्वयं ही स्वयं का साथ देना एकमात्र विकल्प था. वह भारतवर्ष था. अवसाद की गठरियों में बंध चुका भारतवर्ष, दुश्वारियों से बिंधा हुआ भारतवर्ष, मातम में डूबा भारतवर्ष. जितना हो सके, जिंदगियां बचा लेने की कोशिशें थीं.

गुजरे साल कोरोना के मद्देनजर ऐसे तमाम दृश्य आए जो दिल को दहला कर रख देने वाले हैं

सबके दर्द में दर्द होता था. ठीक एक वर्ष बाद का भारतवर्ष रामनवमी के उपलक्ष्य में रैलियां निकाल रहा है. राम को वर्चस्व का सूचक घोषित करने पर अमादा है. राम के नाम पर उपद्रव कर रहा है. उज्ज्वल भगवे रंग को दूसरों के लिये भय का पर्याय बना रहा है.

काश कि इन रैलियों में मिठास होती. काश यह उन्माद नहीं आनन्द होता. तो कौन नहीं कह देता सियावर रामचंद्र की जय! लेकिन पर्व उल्लास लेकर नहीं आया, पर्व को पथ बनाया जा रहा है दमन का. ध्वज को जबरन स्थापित किया गया मस्जिदों पर.

रामराज्य को विशेषण बनाया जा...

ठीक इन्हीं दिनों पिछले वर्ष कोविड की दूसरी लहर की शुरूआत हो चुकी थी. चारों ओर लोग बीमार पड़ रहे थे. अगले क्षण का ठिकाना न था. अस्पताल जाते तो लौट कर आ सकेंगे या नहीं, पता नहीं था. शवों का अम्बार लगने लगा. सरकार चुनावी प्रचार में व्यस्त थी. लोग मर रहे थे, मरघट भर रहे थे, वोट मांगे जा रहे थे. राजनीतिक दल के समर्पित वोटर भी अवाक् थे, मन टूट रहा था. आधी रात को ऑक्सिज़न सिलिंडर की खोज शुरू होती. रक्त मांगा जाता, प्लाज़्मा मांगा जाता, अस्पतालों में बेड मांगे जाते.

सभी लोग सभी लोगों के लिये हाथ बढ़ाते, सहायता करते. कोई न पूछता कि ऑक्सिज़न सिलिंडर देने वाले का धर्म क्या है, रक्त और प्लाज़्मा किस मज़हब के व्यक्ति से लिया गया है, इलाज कर रहे चिकित्सक की जाति क्या है.

सर्वविदित था कि सत्ता बेफ़िक़्र थी, जनता बेबस. लोग एक-दूसरे के साथ थे, स्वयं ही स्वयं का साथ देना एकमात्र विकल्प था. वह भारतवर्ष था. अवसाद की गठरियों में बंध चुका भारतवर्ष, दुश्वारियों से बिंधा हुआ भारतवर्ष, मातम में डूबा भारतवर्ष. जितना हो सके, जिंदगियां बचा लेने की कोशिशें थीं.

गुजरे साल कोरोना के मद्देनजर ऐसे तमाम दृश्य आए जो दिल को दहला कर रख देने वाले हैं

सबके दर्द में दर्द होता था. ठीक एक वर्ष बाद का भारतवर्ष रामनवमी के उपलक्ष्य में रैलियां निकाल रहा है. राम को वर्चस्व का सूचक घोषित करने पर अमादा है. राम के नाम पर उपद्रव कर रहा है. उज्ज्वल भगवे रंग को दूसरों के लिये भय का पर्याय बना रहा है.

काश कि इन रैलियों में मिठास होती. काश यह उन्माद नहीं आनन्द होता. तो कौन नहीं कह देता सियावर रामचंद्र की जय! लेकिन पर्व उल्लास लेकर नहीं आया, पर्व को पथ बनाया जा रहा है दमन का. ध्वज को जबरन स्थापित किया गया मस्जिदों पर.

रामराज्य को विशेषण बनाया जा रहा है वर्चस्व के राज्य का. अभी राम से विवश भला कौन होगा.

ख़ैर, सत्ता इस बार लाचार नहीं सक्रिय है. लोग जो हुक़ूमत से निराश हो चले थे कि अनदेखी होती रही और चुनाव होते रहे, अब प्रसन्न हैं. लोगों को जकड़ने महामारी नहीं आयी है. हां, त्रासदी तो फिर भी आ गयी है.

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इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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