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स्वतंत्रता महसूस क्यों नहीं होती?

    • प्रीति अज्ञात
    • Updated: 14 अगस्त, 2016 10:17 PM
  • 14 अगस्त, 2016 10:17 PM
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थाईलैंड में आयोजित अंतर्राष्ट्रीय ब्लॉगर सम्मेलन (2016) में जिस लेख पर 'परिकल्पना साहित्य सम्मान' प्राप्त हुआ वो लेख लेखिका ने यहां साझा किया है. कुछ सवालों के साथ एक अहम सवाल ये भी कि आजादी के बाद भी स्वतंत्रता महसूस क्यों नहीं होती?

शनिवार की शाम से ही हृदय उड़ानें भरने लगता है. एक निश्चिंतता-सी आ जाती है. बच्चे भी उस दिन विद्यालय से लौटते ही बस्ता एक जगह टिकाकर क्रांति का उद्घोष कर देते हैं. उनके लिए 'स्वतंत्रता' के यही मायने हैं. 'स्वतंत्रता', 'फ्रीडम' कितने क्रांतिकारी शब्द लगते हैं और 'आज़ादी' सुनते ही महसूस होता है, जैसे किसी ने दोनो कंधों पर पंख लगा खुले आसमान में उड़ने के लिए छोड़ दिया हो; पर सिर्फ़ 'लगता' है, ऐसा होता नहीं.

 अगर मैं स्वतंत्र हूं तो मेरी स्वतंत्रता मुझे महसूस क्यों नही होती?

'पूर्ण रूप से स्वतंत्र होना ही आज़ादी है, पर क्या बिना किसी के हस्तक्षेप के जीना संभव है?आज़ादी का अर्थ उच्छ्रुन्खलता नहीं, लेकिन एक स्वस्थ, सुरक्षित और भयमुक्त वातावरण में जीवन-यापन हमारी स्वतंत्रता का हिस्सा अवश्य है. क्या मिली है हमें, ये आज़ादी? 

ये भी पढ़ें- ये आज़ादी अधूरी है

स्व+तंत्र अर्थात मेरा अपना तंत्र, मेरा अपना तरीका, जिसके अनुसार हम काम करना चाहते हैं, जिसमें सहज हैं पर क्या हम सचमुच ऐसा 'कर' पाते हैं? नहीं न! वो तो दूसरों की सुविधानुसार करना पड़ता है, किसी और के बनाए क़ायदे-क़ानून ही सही ठहराए जाते हैं. यानी हम उम्र-भर वो करते हैं, जो हमारे नियम, हमारे बनाए तन्त्र से पूर्णत: भिन्न होता है. ये कैसी स्वतंत्रता है, जहां अनुशासित होना तो सिखाया जा रहा है, सामजिक नियमों का पालन भी ज़रूरी है, सबका सम्मान भी करना है..और कीमत? ये अधिकतर अपनी स्वतंत्रता और आत्मसम्मान को बेचकर ही अदा की जाती है. क्या तन और मन दोनों के शोषित होने की अवस्था ही स्वतंत्रता है? ध्यान रहे, यहां एक आम भारतीय नागरिक की बात हो रही है, सत्ता के गलियारों में ऊंचे पदों पर आसीन शाही...

शनिवार की शाम से ही हृदय उड़ानें भरने लगता है. एक निश्चिंतता-सी आ जाती है. बच्चे भी उस दिन विद्यालय से लौटते ही बस्ता एक जगह टिकाकर क्रांति का उद्घोष कर देते हैं. उनके लिए 'स्वतंत्रता' के यही मायने हैं. 'स्वतंत्रता', 'फ्रीडम' कितने क्रांतिकारी शब्द लगते हैं और 'आज़ादी' सुनते ही महसूस होता है, जैसे किसी ने दोनो कंधों पर पंख लगा खुले आसमान में उड़ने के लिए छोड़ दिया हो; पर सिर्फ़ 'लगता' है, ऐसा होता नहीं.

 अगर मैं स्वतंत्र हूं तो मेरी स्वतंत्रता मुझे महसूस क्यों नही होती?

'पूर्ण रूप से स्वतंत्र होना ही आज़ादी है, पर क्या बिना किसी के हस्तक्षेप के जीना संभव है?आज़ादी का अर्थ उच्छ्रुन्खलता नहीं, लेकिन एक स्वस्थ, सुरक्षित और भयमुक्त वातावरण में जीवन-यापन हमारी स्वतंत्रता का हिस्सा अवश्य है. क्या मिली है हमें, ये आज़ादी? 

ये भी पढ़ें- ये आज़ादी अधूरी है

स्व+तंत्र अर्थात मेरा अपना तंत्र, मेरा अपना तरीका, जिसके अनुसार हम काम करना चाहते हैं, जिसमें सहज हैं पर क्या हम सचमुच ऐसा 'कर' पाते हैं? नहीं न! वो तो दूसरों की सुविधानुसार करना पड़ता है, किसी और के बनाए क़ायदे-क़ानून ही सही ठहराए जाते हैं. यानी हम उम्र-भर वो करते हैं, जो हमारे नियम, हमारे बनाए तन्त्र से पूर्णत: भिन्न होता है. ये कैसी स्वतंत्रता है, जहां अनुशासित होना तो सिखाया जा रहा है, सामजिक नियमों का पालन भी ज़रूरी है, सबका सम्मान भी करना है..और कीमत? ये अधिकतर अपनी स्वतंत्रता और आत्मसम्मान को बेचकर ही अदा की जाती है. क्या तन और मन दोनों के शोषित होने की अवस्था ही स्वतंत्रता है? ध्यान रहे, यहां एक आम भारतीय नागरिक की बात हो रही है, सत्ता के गलियारों में ऊंचे पदों पर आसीन शाही लोगों की नहीं. इसी 'आम नागरिक' की तरफ से कुछ सवाल हैं मेरे-

* अगर मैं स्वतंत्र हूं तो मेरी स्वतंत्रता मुझे महसूस क्यों नही होती? कहीं पढ़ा था कि "स्वतंत्रता, स्वतंत्र रहने या होने की अवस्था या भाव को कहते हैं; ऐसी स्थिति जिसमें बिना किसी बाहरी दबाव, नियंत्रण या बंधन के स्वयं अपनी इच्छा से सोच समझकर सब काम करने का अधिकार होता है!"

* तो फिर, किसने छीन ली है मेरी आज़ादी? मुझे मेरे कर्तव्य तो हमेशा से दिखते आए हैं, पर अधिकारों का क्या हुआ? उन्हें पा लेना मेरी स्वतंत्रता का हिस्सा नही? स्त्री और पुरुष के बीच अधिकार और कर्तव्य का ये कैसा बंटवारा, कि स्त्री के हिस्से में कर्तव्य आए और पुरुषों के में अधिकार? किसने तय की है स्वतंत्रता की ये परिभाषा? क्या संविधान ऐसा कहता है? 

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* मैं रोज ही देखा करती हूं उसे, कभी कचरे में से सामान बीनते हुए, कभी सर पर स्वयं से भी अधिक बोझा ढोते हुए, कभी  वो किसी होटल में मेहमानों का कमरा साफ करते हुए अपनी 'टिप' के इंतज़ार में दिखाई देता है तो कभी किसी रेस्टोरेंट में बर्तन मांजते हुए चुपके-से एक उदास नज़र दूर चलते हुए टी. वी. पर डाल लिया करता है. मंदिर की सीढ़ियों पर उसे रोते-सुबकते उन्हीं उदार इंसानों की डांट खाते हुए भी देखा है, जो अपने नाम का पत्थर लगवाने के हज़ारों रुपये दान देकर उसके पास से गुजरा करते हैं, इन सेठों के जूते-चप्पल की रखवाली करता बचपन अपनी स्वतंत्रता किसमें ढूंढे?

* इन मासूम बाल श्रमिकों और आम नागरिकों में बस इतना ही अंतर है, कि हमें अपने अधिकारों का बखूबी ज्ञान है. पढ़े-लिखे जो हैं, क़ानून जानते हैं, सुरक्षा के नियम भी बचपन में ही घोंट लिए थे, तभी दुर्भाग्य से समानता के बारे में भी पढ़ बैठे थे कहीं. ये तो मूलभूत अधिकार था...बरसों से है. आख़िर ये समानता इतने बरस बीत जाने पर भी दिखती क्यूं नहीं? सब धर्मों को समान अधिकार है, तो कोई दंभ में भर, खुद को श्रेष्ठ ठहराने के लिए इतना लालायित क्यों रहता है? सब वर्ग समान ही हैं, तो हमारे आसपास रोज ही कोई युवा बेरोज़गार, आरक्षण से इतना निराश क्यों दिखाई देता है? सुरक्षा का अधिकार है तो अकेले बाहर निकलने में डर क्यों लगता है?

* क़ानून है तो न्याय के इंतज़ार में जीवन कैसे गुजर जाता है? सरेआम अपराध करने पर भी, अपराधी बच क्यों जाता है? ये समाज और इसके दकियानूसी क़ानून, कुछ स्थानों की सड़ी-गली मान्यताएं और उनका पालन करने को उत्सुक पंचायती लोग जो, कर्तव्य-पालन से चूक जाने पर सज़ा देना कभी नही भूलते पर स्त्री के अधिकारों की मांग पर कायरों से भाग खड़े होते हैं, सवाल करने पर इन्हें अचानक सांप कैसे सूंघ जाता है? इनके बनाए नियम, ये कभी स्वयं पर क्यों नहीं आजमाते?

* कौन है, जिसने स्त्री की स्वतंत्रता को छीनकर कर्तव्य की गठरी और तालाबंद अधिकारों की एक जंग लगी संदूकची उसके दरवाजे रख दी है. वो जब-जब उस संदूकची को खोलने का दुस्साहस करे, तो उसके सर और दिल का बोझ दोगुना कैसे हो जाता है? अगले ही दिन वो टुकड़ों में सड़क किनारे पड़ी क्यों मिलती है? * कौन सी सरकार है, जो स्त्रियों के आत्म-सम्मान को वापिस देगी? कौन सा दल है जो चुनाव के वादों के बाद सिर्फ़ 'अपनी' नही सोचेगा? कौन सी अदालत है, जो निर्भया को निर्भय हो जीना सिखा पाएगी? बुलंदशहर को अब कौन बुलंद करेगा? रोहतक अब किन रूहों को जीने कि ताक़त दे सकेगा?

* कौन से अख़बार या टीवी चैनल हैं, जो निष्पक्ष हो खबरें बताएंगे?

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ये सब तो फिर भी परिभाषित हो सकेगा पर मानसिक स्वतंत्रता? उसे पाने के लिए किस युग में जाना होगा? मेरी स्वतंत्रता मेरे पास नहीं, मेरे अधिकार मेरे पास नहीं. मेरे पास भय है..कि मुझे हर हाल में अपने कर्तव्य का निर्वाह करना है, भय है सुरक्षा का, अपने धर्म, संस्कारों के पूर्ण-निर्वहन का...क्योंकि उनको 'ना' कहने की स्वतंत्रता मेरे पास नहीं! मैं विश्वास रखती हूं हर धर्म में...पर यदि कोई किसी धर्म विशेष के बारे में बुरा बोल रहा है, तो उसे रोकने की स्वतंत्रता मेरे पास नही, मेरे पास उस वक़्त भय होता है, अधर्मी कहलाने का, सांप्रदायिकता फैलाने का!

बाज़ार से गुज़रते हुए मैं सरे-राह क़त्ल होते देख सकती हूं, शायद कुछ पल ठिठक भी जाऊं, पर संभावना यही है कि मैं डर से छुपकर या अनदेखा कर आगे बढ़ जाऊं; उस अपराधी को रोक पाने की स्वतंत्रता नही है मेरे पास! सिखाया गया है इसी समाज में, कि दूसरे के पचड़ों में न पड़ना ही बेहतर, वरना अपनी जान से हाथ धोना पड़ेगा!

मुझे जान प्यारी है, अपना घर, परिवार, दोस्त सभी प्यारे हैं.....इसलिए मैं दंगों में खिड़कियां बंद कर लेती हूं, हिंसा-आगज़नी के दौरान घर से निकलना ही छोड़ देती हूं! मैं बलात्कार की खबरें देख सिहर उठती हूं..और घबराकर बहते हुए पसीने को पोंछ, अपनी स्वतंत्रता के बारे में सोचा करती हूं..जो मिली तो थी, कई बरस पहले. हां, वर्ष याद है मुझे, सबको याद है. क़िताबें भी इसकी पुष्टि करती हैं. पर कोई ये नहीं बताता कि तब जो स्वतंत्रता मिली थी, वो अब कहां खो गई?

किसने छीन ली, हमारी आज़ादी? क्या उन स्वतंत्रता-सेनानियों का बलिदान व्यर्थ गया, जिन्होंने इसके लिए अपने प्राणों की आहुति दी थी? मुझे संशय है कि दूर-दराज आदिवासी इलाक़ों में उस 'आज़ादी' की सूचना अब तक पहुंची भी है या नहीं? उनकी परिस्थितियां तो कुछ और ही कहानी कहती हैं. लेकिन फिर भी लगता है कि वे ज़्यादा स्वतंत्र हैं, अपनी मर्ज़ी का खाते-पहनते हैं, इन्हें लुट जाने का भय नहीं, ये धर्म के लिए लड़ते नहीं, शिक्षा का अधिकार इन्होंने सुना ही नहीं! जो मिली थी कभी, उस 'आज़ादी' का 'खून' तो हम भारतीयों की आपसी लड़ाई ने स्वयं ही कर दिया है. स्वीकारना मुश्किल है, क्योंकि हमारी मानसिकता दोषारोपण की रही है.

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सच तो ये है कि आम भारतीय के लिए आज का दिन आज़ादी के अहसास से भावविभोर होने से कहीं ज़्यादा, 'छुट्टी का एक और दिन' होना है. जिसके रविवार को पड़ने पर बेहद अफ़सोस हुआ करता है!

आज रविवार नहीं, इसलिए मुबारक हो!

"स्वतंत्रता दिवस की अनंत शुभकामनाएं!"

जय हिंद!

इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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