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आधी आबादी को भी चाहिए अपने हिस्से की आज़ादी

    • पारुल चंद्रा
    • Updated: 15 अगस्त, 2016 03:55 PM
  • 15 अगस्त, 2016 03:55 PM
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देश में महिलाओं और पुरुषों को बराबर हक़ है, लेकिन पुरुष प्रधान समाज में महिलाएं खुद की स्थिति से बिल्कुल भी संतुष्ट नहीं हैं. नाम से आज़ाद कही जाने वाली महिलाओं को असल में कई चीज़ों से आज़ादी चाहिए.

देश की आज़ादी को 69 साल बीत गये. हम सब आज़ाद हैं अपने तरीके से जिंदगी जीने के लिए. पर एक बात जो हमेशा मुझ जैसी हज़ारों महिलाओं के मन में आती है, वो ये कि इस आज़ादी के मायने हमारे लिए क्या हैं? एक महिला के लिए आज़ादी का मतलब क्या है?

 पुरुष प्रधान समाज में महिलाएं खुद की स्थिति से बिल्कुल भी संतुष्ट नहीं हैं.

देश में महिलाओं और पुरुषों को बराबर हक़ है, लेकिन पुरुष प्रधान समाज में महिलाएं खुद की स्थिति से बिल्कुल भी संतुष्ट नहीं हैं. नाम से आज़ाद कही जाने वाली महिलाओं को असल में कई चीज़ों से आज़ादी चाहिए.

आज़ादी चाहिए कहीं भी जाने की-

घर से निकलने से पहले कई बार सोचना पड़ता है कि किस गली से गुज़रें ज़हां मनचलों से सामना न हो. अंधेरा होने से पहले घर लौटने की फिक्र, डर-डर के ऑटो और टैक्सी में बैठना, अपनी सुरक्षा का सामान अपने साथ लेकर चलना, पल-पल की खबर घर वालों को देते रहना. हम थक चुके हैं अब ऐसा करते करते. आज़ादी चाहिए निडर होकर कहीं भी जाने की.

आज़ादी चाहिए कुछ भी पहनने की- 

हां चाहिए हमें अपने हिसाब से कपड़े पहनने की आज़ादी. समाज की बंदिशों में अब तक हम बंधते आए हैं, पहले मां बाप की पसंद से कपड़े पहनते थे, शादी के बाद सास, ससुर और पति की पसंद. जाने से पहले सोचना पड़ता है कि कहां जा रहे हैं, वहां किस तरह के कपड़े पहने जाएं. हम ऐसे समाज में रहते हैं जहां महिलाओं के चरित्र का आंकलन आज भी उनके कपड़ों से किया जाता है. आज़ादी चाहिए कपड़े अपनी पसंद से पहनने की.

आज़ादी चाहिए यौन शोषण से-

घर से बाहर क्या, घर में भी सुरक्षित नहीं हैं हम....

देश की आज़ादी को 69 साल बीत गये. हम सब आज़ाद हैं अपने तरीके से जिंदगी जीने के लिए. पर एक बात जो हमेशा मुझ जैसी हज़ारों महिलाओं के मन में आती है, वो ये कि इस आज़ादी के मायने हमारे लिए क्या हैं? एक महिला के लिए आज़ादी का मतलब क्या है?

 पुरुष प्रधान समाज में महिलाएं खुद की स्थिति से बिल्कुल भी संतुष्ट नहीं हैं.

देश में महिलाओं और पुरुषों को बराबर हक़ है, लेकिन पुरुष प्रधान समाज में महिलाएं खुद की स्थिति से बिल्कुल भी संतुष्ट नहीं हैं. नाम से आज़ाद कही जाने वाली महिलाओं को असल में कई चीज़ों से आज़ादी चाहिए.

आज़ादी चाहिए कहीं भी जाने की-

घर से निकलने से पहले कई बार सोचना पड़ता है कि किस गली से गुज़रें ज़हां मनचलों से सामना न हो. अंधेरा होने से पहले घर लौटने की फिक्र, डर-डर के ऑटो और टैक्सी में बैठना, अपनी सुरक्षा का सामान अपने साथ लेकर चलना, पल-पल की खबर घर वालों को देते रहना. हम थक चुके हैं अब ऐसा करते करते. आज़ादी चाहिए निडर होकर कहीं भी जाने की.

आज़ादी चाहिए कुछ भी पहनने की- 

हां चाहिए हमें अपने हिसाब से कपड़े पहनने की आज़ादी. समाज की बंदिशों में अब तक हम बंधते आए हैं, पहले मां बाप की पसंद से कपड़े पहनते थे, शादी के बाद सास, ससुर और पति की पसंद. जाने से पहले सोचना पड़ता है कि कहां जा रहे हैं, वहां किस तरह के कपड़े पहने जाएं. हम ऐसे समाज में रहते हैं जहां महिलाओं के चरित्र का आंकलन आज भी उनके कपड़ों से किया जाता है. आज़ादी चाहिए कपड़े अपनी पसंद से पहनने की.

आज़ादी चाहिए यौन शोषण से-

घर से बाहर क्या, घर में भी सुरक्षित नहीं हैं हम. ख़ौफ में जीना क्या होता है कोई हम से पूछे. खुद को बचाने की फिक्र में हर किसी को शक की निगाह से देखना. न जाने कब तक इस डर को साथ लेकर चलना होगा. आज़ादी चाहिए शोषण से.

आज़ादी चाहिए मां बनने की अनिवार्यता से-

बचपन से ही हमें सिखाया जाता है कि हमें शादी करके अपने घर जाना है. उस घर को संभालना है और वंश बढ़ाना है. लेकिन कभी हमें कोई विकल्प नहीं दिया जाता, मां तो बनना ही है. पर हर लड़की तो भविष्य में मां बनने के सपने नहीं देखती. यहां भी खुद फैसला करने की आज़ादी चाहिए.

आज़ादी चाहिए खुद की पसंद का काम करने की-

हम शक्ति का प्रतीक माने जाते हैं लेकिन भारतीय युद्ध क्षेत्र से हमें दूर ही रखा जाता है. हम तो रात की शिफ्ट में भी काम नही कर सकतीं, क्योंकि सबको फिक्र है हमारी सुरक्षा की. कब तक सिर्फ शक्ति का प्रतीक बने रहेंगे हम. आज़ादी चाहिए इस सोच से कि हम ये नहीं कर सकते.

इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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