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एक बांस आखिर कितने गज का था पंडित चंदबरदायी? 'बुद्धिजीवियों' के हास्यास्पद सवाल

    • अनुज शुक्ला
    • Updated: 05 जून, 2022 05:21 PM
  • 05 जून, 2022 04:11 PM
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बुद्धिजीवी वर्ग पृथ्वीराज को तो ऐसे खारिज कर रहा है जैसे वह भारतीय इतिहास में थे ही नहीं. मानो कोई काल्पनिक पात्र हैं. क्या मजाक है. चंद बरदायी के विवरण में बांस की लंबाई तक नापी जा रही है.

बॉलीवुड की एक फिल्म आई है सम्राट पृथ्वीराज. यह फिल्म पृथ्वीराज चौहान के जीवन पर आधारित है. और इसी फिल्म के बहाने इतिहास का महत्वपूर्ण, लेकिन गायब पन्ना देशभर में बहस का विषय बन गया है. आखिर पृथ्वीराज चौहान थे कौन? उनका सही-सही इतिहास क्या है? लोक में उनको लेकर जो धारणाएं प्रचलित हैं, क्या वाकई सच हैं? या वह भाट कवियों की कल्पना का हिस्सा भर है? उस दौर के इतिहास की समूची बहस में तमाम सवालों के तीर सीधे पृथ्वीराज के दरबारी कवि और साथी चंद बरदायी की छाती को नस्तर करते हैं. सच में यह केस स्टडी से कम नहीं है.  

इतिहास में पृथ्वीराज पर जितनी शंकाएं हैं उतनी शंका मोहम्मद बिन कासिम से लेकर बहादुर शाह जफ़र तक तनिक भी नजर अन्हीं आता. खैर ये लोग तो बड़े-बड़े नाम थे. यहां तक कि करीब-करीब हजार साल पहले सैयद सालार मसूद गाजी जैसे सेनापतियों का भी बाकायदा प्रामाणिक रिकॉर्ड मिलता है. वो कहां से आया था, उसका वंश क्या था, कहां मारा गया और क्यों मारा गया- सब रिकॉर्ड किताबों में है. लेकिन उसे मारा किसने- बस इतिहास का यही पन्ना गायब हो जाता है.

कहने का मतलब यह है कि विदेशी हमलावरों का इतिहास पहाड़ी झील की तरह साफ है. तल के रेत और कंकड़ों-पत्थरों का रंग तक देख सकता है कोई- इतना व्यवस्थित. लेकिन हमलावरों से ठीक पहले भारत कैसा था, उसके राजे-रजवाड़े कौन थे, जातियां कितनी थीं, उनके बीच दोस्ती-दुश्मनी क्यों थी, तब का समाज कैसा था और उसके वैसा होने की वजहें क्या थीं- अनगिनत सवालों पर इतिहास में जवाब के पन्ने फटे नजर आते हैं. और इसकी वजह से हमें नहीं पता कि हम अपने समाज में जो ढो रहे हैं वही हमारा सच है या कुछ और था?

फिल्म में पृथ्वीराज और चंद बरदायी का किरदार.

भारतीय योद्धाओं तक आकर सूख जाती है इतिहासकारों की स्याही

तमाम...

बॉलीवुड की एक फिल्म आई है सम्राट पृथ्वीराज. यह फिल्म पृथ्वीराज चौहान के जीवन पर आधारित है. और इसी फिल्म के बहाने इतिहास का महत्वपूर्ण, लेकिन गायब पन्ना देशभर में बहस का विषय बन गया है. आखिर पृथ्वीराज चौहान थे कौन? उनका सही-सही इतिहास क्या है? लोक में उनको लेकर जो धारणाएं प्रचलित हैं, क्या वाकई सच हैं? या वह भाट कवियों की कल्पना का हिस्सा भर है? उस दौर के इतिहास की समूची बहस में तमाम सवालों के तीर सीधे पृथ्वीराज के दरबारी कवि और साथी चंद बरदायी की छाती को नस्तर करते हैं. सच में यह केस स्टडी से कम नहीं है.  

इतिहास में पृथ्वीराज पर जितनी शंकाएं हैं उतनी शंका मोहम्मद बिन कासिम से लेकर बहादुर शाह जफ़र तक तनिक भी नजर अन्हीं आता. खैर ये लोग तो बड़े-बड़े नाम थे. यहां तक कि करीब-करीब हजार साल पहले सैयद सालार मसूद गाजी जैसे सेनापतियों का भी बाकायदा प्रामाणिक रिकॉर्ड मिलता है. वो कहां से आया था, उसका वंश क्या था, कहां मारा गया और क्यों मारा गया- सब रिकॉर्ड किताबों में है. लेकिन उसे मारा किसने- बस इतिहास का यही पन्ना गायब हो जाता है.

कहने का मतलब यह है कि विदेशी हमलावरों का इतिहास पहाड़ी झील की तरह साफ है. तल के रेत और कंकड़ों-पत्थरों का रंग तक देख सकता है कोई- इतना व्यवस्थित. लेकिन हमलावरों से ठीक पहले भारत कैसा था, उसके राजे-रजवाड़े कौन थे, जातियां कितनी थीं, उनके बीच दोस्ती-दुश्मनी क्यों थी, तब का समाज कैसा था और उसके वैसा होने की वजहें क्या थीं- अनगिनत सवालों पर इतिहास में जवाब के पन्ने फटे नजर आते हैं. और इसकी वजह से हमें नहीं पता कि हम अपने समाज में जो ढो रहे हैं वही हमारा सच है या कुछ और था?

फिल्म में पृथ्वीराज और चंद बरदायी का किरदार.

भारतीय योद्धाओं तक आकर सूख जाती है इतिहासकारों की स्याही

तमाम राजाओं-योद्धाओं को तो भाट कवियों की कल्पना बताकर या प्रामाणिक ना मानते हुए खारिज कर दिया गया. बावजूद कि वो लोकगीतों में जिंदा ही हैं. लेकिन पृथ्वीराज जैसे लोग जिनके राजवंश के सबूत मिलते हैं. जिनपर चारणों-भाटों ने ही मगर बहुत कुछ लिखा है, भला उन्हें खारिज जैसे किया जाए? उनके बारे में लिखते वक्त एक दो लाइनों के बाद जैसे प्रामाणिक इतिहासकारों के कलम की स्याही ही सूख गई थी. गुलामी के वक्त तक इतिहास लेखन की परंपरा तो समझ सकते हैं, मगर आजादी के बाद भी तो इनपर काम हो सकता था. कौन सी दिक्कत थी, फिर भी क्यों गायब हैं?

और अब जब पृथ्वीराज के बारे में इधर-उधर पड़ी जानकारियों को एक फिल्म में समेटने की कोशिशें हुई- इतिहासकार इतिहासों के पतित हो जाने की पीड़ा से तड़प रहे हैं. नाना प्रकार के कुतर्क गढ़ रहे हैं. चंद बरदायी होते तो उन्हें शायद फांसी ही दे दी जाती कि तुमने सबकुछ यानी सबकुछ झूठ-मूठ का लिख दिया था? चलो एक मिनट के लिए मान लेते हैं कि पृथ्वीराज आख़िरी ऐसे व्यक्ति थे जो शब्दभेदी बाण चला सकते थे, लेकिन ये बताओ चंद बरदायी ने गोरी तक की दूरी कैसे नापी? कितना बड़ा सवाल लोगों ने पृथ्वीराज को खारिज करने के लिए खोज निकाला-

चार बांस चौबीस गज अंगुल अष्ट प्रमाण,ता ऊपर सुल्तान है मत चूके चौहान.

चंद बरदायी को बुलाकर पूछा जाए आखिर बांस कितने गज का था?

एक विद्वान ने ठीक यही सवाल खड़ा किया है. आखिर बांस कितने गज का था? क्या चारों बांस चौबीस-चौबीस गज के ही थे? या फिर उनकी लंबाई कुछ और थी. और उस समय गज था भी क्या? चंद बरदायी को बुलाकर उनका जवाब दर्ज किया जाए. अब बड़ी दिक्कत यह है कि आज के लाहौर में पैदा हुए चंद बरदायी को सैकड़ों साल बाद लाया कैसे जाए? और चंद बरदायी ने ही पृथ्वीराज रासो लिखा हो यह भी तो जरूरी नहीं है. विद्वानों में पहले से ही भ्रम है. हो सकता है कि उन्होंने पृथ्वीराज रासो का कुछ हिस्सा बुदबुदाया हो कहीं लिखा हो, जो आगे सौ दो सौ साल लोक स्मृति में टहलते घूमते पृथ्वीराज रासो बन गई.

अगर ऐसा मानने की वजहें हो सकती हैं तो भला इतिहासकारों के भ्रम के लिए चंद बरदायी के बांस की लंबाई दोषी कैसे हो है? उसने अपनी जिम्मेदारी और बुद्धि के हिसाब से जो कह लिख सकता था लिखा.

सोशल मीडिया की बहसों को देखिए तो पृथ्वीराज को जलील करने के लिए इतिहासकार उदाहरण कहां-कहां से उठा रहे हैं? आप आल्हा-उदल के जरिए ही बता रहे हैं न कि वह कितना कमजोर था. पृथ्वीराज पर तो आपने दो लाइन इतिहास में लिख दिया- ये बताइए क्या आल्हा-उदल पर भी कहीं कुछ लिखने की जरूरत महसूस नहीं हुई आपको? आल्हा-उदल का किरदार पृथ्वीराज से कम थोड़े दिखता है इतिहास में.

काका कन्ह का किरदार.

वीरगाथा काल की सब चीजें कल्पना ही हैं तो दूसरे तथ्य को प्रमाण की तरह क्यों पेश कर रहे हो?

कुछ महानुभाव वीरगाथा को कल्पना बता रहे हैं और दूसरे को प्रमाण- ये कैसे संभव है? गोरखनाथ भी आ रहे हैं दोनों के बीच. उनकी मौजूदगी उस दौर में क्या संत भर की थी? रासो में लिखी बातों को पूरी तरह सच नहीं माना जा सकता. अलग-अलग रासो में अलग-अलग विवरण हैं. यह सच है. कश्मीरी कवि की 'पृथ्वीराज विजय' में भी अलग विवरण हैं. पृथ्वीराज ने गोरी को कितनी बार हराया, वह बहादुर था या नहीं, वह सम्राट था या नहीं- यह सारे सवाल तो बाद के हैं.

एक चीज तो अटल सत्य है कि पृथ्वीराज चौहान के नाम से एक राजा थे. एक गोरी था. एक जयचंद था. एक आल्हा उदल थे. एक गोरखनाथ थे. संयोगिता थी. पृथ्वीराज-गोरी का युद्ध हुआ था. एक मर्तबा से ज्यादा. कम से कम दो भी हो सकता है. आख़िरी बार पृथ्वीराज हार गए.

हो सकता है वह युद्ध क्षेत्र में ही मारे गए हों. और यह कैसे ख़ारिज किया जा सकता है कि उन्हें गजनी नहीं ले जाया गया. कुछ लोग जिस तरह गोरी के साथ युद्ध की निर्णायक तारीख का प्रमाण देते हुए गोरी की मौत की तारीख के बीच अंतर बताते हैं- चूंकि चीजें स्पष्ट नहीं हैं तो क्या ऐसा नहीं हो सकता कि पृथ्वीराज को बंदी या गुलाम के रूप में गजनी ले जाया गया हो?

इतिहास तो उन्हें 1192 में तराइन युद्ध में नतीजों के आधार पर मर गया मान लेता है. लोक स्मृति में इस बात पर तो ब्लंडर नहीं हो सकता. बाकी ये दूसरी बात है कि पृथ्वीराज को वह 20 युद्ध गोरी से लड़वा सकता है और 100 हाथियों जितना बलशाली बता सकता है. उनकी मृत्यु को महिमामंडित कर सकता है लेकिन तारीख पर धोखा नहीं खा सकता. गोरी जिस तरह से अपमानित हुआ था- क्या बर्बरता के लिए मशहूर वह आततायी इतनी आसानी से पृथ्वीराज को मार सकता था?

कुछ लोकचर्चाएं अफगानिस्तान में एक रहस्यमयी कब्र तक पहुंचती हैं. ऐसा भी तो हो सकता है कि गुलाम की तरह रहने के दौरान पृथ्वीराज ने मौका पाकर उसे मारा हो. आखिर तराइन की जंग और गोरी की मौत के साल (1206) में बहुत फासला भी तो नहीं है.

सम्राट पृथ्वीराज.

इतिहास मिटाओगे भी तो कैसे जब प्रमाण दिमाग ही नहीं आंखों के सामने दिखने लगता है?

खैर, इसे पूरी तरह कल्पना माना जा सकता है. मैं तो यह भी मानता हूं कि पृथ्वीराज रासो किसी एक पीढ़ी के दिमाग की उपज नहीं है. क्योंकि इसमें पृथ्वीराज के बाद के लोगों का भी जिक्र है और लोक से गुजरने वाली इतिहास परंपरा में ऐसा होना सामन्य बात है. ऐसा मानना ही चाहिए. जब तक कि उनपर व्यवस्थित वैज्ञानिक शोध के बाद अंतिम निष्कर्ष नहीं निकल आता. पर पृथ्वीराज थे या नहीं और उन्होंने अपनी क्षमता से गोरी का मुकाबला किया- भला इस बात में क्यों भ्रम करना? कई शिलालेख, उनके नाम के सिक्के, उनसे जुड़े ऐतिहासिक स्थल आज भी प्रमाण की तरह उपलब्ध हैं.

बुद्धिजीवियों की धूर्तता का कोई इलाज नहीं है. वो पृथ्वीराज को इस बात पर भी खारिज करने पर आमादा हैं कि वह आख़िरी हिंदू सम्राट नहीं थे बल्कि उनके बाद हेमू भी हिंदू था. अरे मूर्खों- जब आप जेम्स टॉड की किताब को इतिहास के प्रमाण के रूप में प्रस्तुत करते हो तब यह बात क्यों भूल जाते हो कि यह स्थापना भी तो उसी ने दी है. जो उसकी अन्य ऐतिहासिक स्थापनाओं के मुकाबले ज्यादा सत्य और सटीक दिखती है.

कम से कम जेम्स टॉड की इस स्थापना में जोधा अकबर के बीच प्रेम वाला घालमेल तो नहीं है. लिबरल पीढ़ी ने यह सवाल आखिर रितिक रोशन और ऐश्वर्य राय की जोधा अकबर के समय क्यों नहीं खड़ा किया था? तब तो यह इतिहास गंगा जमुनी लग रहा था.

इतिहासकारों को कहीं यही डर तो नहीं कि भारत अपना पूरा सच जान लेगा

सबसे मजेदार चीज तो साहित्य का काल विभाजन है. जिसमें दिल्ली सल्तनत के पहले के काल यानी वीरगाथा काल को खारिज कर दिया जाता है. उस दौर के देशकाल को देखें तो भारत के सबसे ज्यादा राजनीतिक उथल पुथल वाला दौर है वह. उसमें चीजों को बढ़ा-चढ़ाकर लिखने की जरूरत नजर आती है. लगभग समूचा उत्तर पश्चिम युद्धों को झेलता नजर आता है. वह दिखता भी है- यह बताने की जरूरत थोड़े है. लेकिन बाद के दौर में जो कुछ लिखा गया वह सब अक्षरश: सत्य और प्रमाणित कैसे हो गया?

जब आदिकाल में चारण और भाट थे तो क्या मध्यकाल के सारे लेखक पुलित्जर और बुकर से सम्मानित और ईमानदार थे. फ्रीडम ऑफ़ स्पीच के वकील थे सब. इतिहास तो अभी भी दुरुस्त कर दो. जो हैं उन्हें हटाने को कौन कह रहा है? लेकिन जो नहीं हैं उन्हें भी तो दर्ज कर सकते हो. उनका संदर्भ तो है ना. वर्ना तो बाद की पीढ़ी उन्हें और संदिग्ध मान लेगी. कहीं ऐसा तो नहीं कि सल्तनतों से पहले के इतिहास को गहरी खाई में ही रखने की योजना है.

नेहरू के लोगों को तो सवाल नहीं उठाना चाहिए

कम से कम इतिहास पर कांग्रेस और उसके काडर को तो चुप ही रहना चाहिए. पृथ्वीराज पर डिस्कवरी ऑफ़ इंडिया में जवाहर लाल नेहरू की स्थापना वही है जो रासो और कश्मीरी लेखक की संयुक्त सोच बनती है. ये दूसरी बात है कि नेहरू ने गुलाम भारत में यह किताब लिखी. हो सकता है कि भारत की आजादी के साथ नेहरू का स्टैंड बदल गया हो. अगर ऐसा है तो कांग्रेस कार्यकर्ता भी अपनी जगह सही हैं.

अगर पृथ्वीराज के दौर भर के इतिहास पर ठीक से काम हो जाए तो कम से कम सौ जातियां ऐतिहासिक संकोच और शर्म के दायरे से बाहर निकल सकती हैं और उनका भविष्य प्रेरणा पा सकता है. समाज में तमाम कुरीतियों और जाति की ऊँची दीवारों को ढहाया जा सकता है. कम से कम सती प्रथा के नाम पर देवी को पूजने वाली भारत की पीढ़ियां दुनिया को इतना तो बता सकती हैं कि यह बर्बर परंपरा उनके जीवन का हिस्सा कैसे बन गई?

कम से कम दुनिया को यह पता तो चले कि भारत ने यहूदियों से कुछ कम दुख दर्द महसूस नहीं किया है हजार साल की दासता में. हर तरह से.

इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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