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क्या ठंड सिर्फ पुरुषों को लगती है, सुबह उठकर काम करने वाली गृहिणी को नहीं?

    • ज्योति गुप्ता
    • Updated: 10 जनवरी, 2023 08:38 PM
  • 10 जनवरी, 2023 08:38 PM
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वह मां है, पत्नी है, बहू है और इसी का फर्ज निभाती है. वह दिन रात चकरी की तरह भागती ही रहती है. जैसे उसके अंदर रोबोट फिट कर दिया गया हो. आखिर उसकी कभी छुट्टी क्यों नहीं होती? आखिर वह कभी आराम क्यों नहीं करती? वह किस मिट्टी की बनी है, आखिर उसे ठंड क्यों नहीं लगती?

सर्दी (Cold) बहुत है मगर गृहिणी (Housewife) को देखकर लगता है कि उसे ठंड लगती ही नहीं है. इस शीतलहर में जब हर कोई रजाई में घुसना चाहता है वह अपने पल्लू को कमर में खोंस कर काम कर रही होती है. वह हर रोज सुबह नींद को तखती पर रखकर जग जाती है ताकि सबको सुबह की गर्मा गर्म चाय मिल सके. वह ठंडे पानी में काम करती है. खाना बनाती है. बर्तन-कपड़े धोती है. घर की साफ सफाई करती है. समझ नहीं आता कि आखिर वह किस मिट्टी की बनी है, कि उसे ठंड नहीं लगती.

वह अपनी परेशानियों को अपनी मुस्कान के पीछे छिपा लेती है. उसे चिंता है, पति और बच्चों के टिफिन की. वह हर कुछ ना कुछ इंतजाम करती है जिससे घरवालों ठंड से बच सके. वह बनाती है काढ़ा, सभी को पिलाती है हल्दी वाला दूध और भले खुद ना पिए. उसे सबकी चिंता रहती है मगर अपने बारे में सोचने की फुर्सत ही नहीं मिलती.

समझ नहीं आता कि आखिर वह किस मिट्टी की बनी है, कि उसे ठंड नहीं लगती

सही लिखा है महादेवी वर्मा ने कि "भारतीय पुरुष ने स्त्री को या तो सुख के साधन के रूप में पाया या भार के रूप में, फलतः वह उसे सहयोगी का आदर न दे सका." आज भी कई घरों में सभी लोग आराम करते हैं और हाउसवाइफ अकेले सारा काम करती रहती है. चाहें ठंडी हो, गर्मी हो या बरसात...उसे कामों से मुक्ति नहीं मिलती. वह कोई बहाने नहीं बनाती क्योंकि ऐसा करना उसका फर्ज है. इस ठंड में घऱ के बाकी लोगों को पका-पकाया खाना मिल जाता है. वे गर्म कपड़े पहनते हैं और काम पर चले जाते हैं. मगर घर की महिला दिन भर कुछ ना कुछ करती रहती है, उसका कहना है कि काम करो तो ठंड नहीं लगती है.

उसकी सुबह काम करते शुरु होती है और रात काम करते खत्म हो जाती है. उसे चिंता है सासू मां के घुटनों के दर्द की. पति की खांसी की और बच्चों की...

सर्दी (Cold) बहुत है मगर गृहिणी (Housewife) को देखकर लगता है कि उसे ठंड लगती ही नहीं है. इस शीतलहर में जब हर कोई रजाई में घुसना चाहता है वह अपने पल्लू को कमर में खोंस कर काम कर रही होती है. वह हर रोज सुबह नींद को तखती पर रखकर जग जाती है ताकि सबको सुबह की गर्मा गर्म चाय मिल सके. वह ठंडे पानी में काम करती है. खाना बनाती है. बर्तन-कपड़े धोती है. घर की साफ सफाई करती है. समझ नहीं आता कि आखिर वह किस मिट्टी की बनी है, कि उसे ठंड नहीं लगती.

वह अपनी परेशानियों को अपनी मुस्कान के पीछे छिपा लेती है. उसे चिंता है, पति और बच्चों के टिफिन की. वह हर कुछ ना कुछ इंतजाम करती है जिससे घरवालों ठंड से बच सके. वह बनाती है काढ़ा, सभी को पिलाती है हल्दी वाला दूध और भले खुद ना पिए. उसे सबकी चिंता रहती है मगर अपने बारे में सोचने की फुर्सत ही नहीं मिलती.

समझ नहीं आता कि आखिर वह किस मिट्टी की बनी है, कि उसे ठंड नहीं लगती

सही लिखा है महादेवी वर्मा ने कि "भारतीय पुरुष ने स्त्री को या तो सुख के साधन के रूप में पाया या भार के रूप में, फलतः वह उसे सहयोगी का आदर न दे सका." आज भी कई घरों में सभी लोग आराम करते हैं और हाउसवाइफ अकेले सारा काम करती रहती है. चाहें ठंडी हो, गर्मी हो या बरसात...उसे कामों से मुक्ति नहीं मिलती. वह कोई बहाने नहीं बनाती क्योंकि ऐसा करना उसका फर्ज है. इस ठंड में घऱ के बाकी लोगों को पका-पकाया खाना मिल जाता है. वे गर्म कपड़े पहनते हैं और काम पर चले जाते हैं. मगर घर की महिला दिन भर कुछ ना कुछ करती रहती है, उसका कहना है कि काम करो तो ठंड नहीं लगती है.

उसकी सुबह काम करते शुरु होती है और रात काम करते खत्म हो जाती है. उसे चिंता है सासू मां के घुटनों के दर्द की. पति की खांसी की और बच्चों की सर्दी की. सिर्फ उसे अपनी ही चिंता नहीं है. हमने उसे कभी ठंड में दिन के समय में रजाई में बैठकर आराम करते हुए नहीं देखा. हमने उसे कभी सुकून से हीटरे सेंकते हुए नहीं देखा. वह अगर सर्दी में धूप भी लेती है तो साथ में काम करती रहती है. छत से उतरते हुए वह कपड़े समेट लाती है. टीवी देखते वक्त वह कभी मटर छीलती है तो कभी मेथी छांट लेती है. 

वह सबके लिए गर्म रोटियां सेंकती है खुद गर्म रोटी खाए जमाना हो गया. वह हर नुस्खे अपनाती है ताकि घरवालें सुखी रह सकें मगर उसके दर्द का अंदाजा किसी को नहीं होता है. तभी तो वह भी सिर बांधे मिलती है तो कभी पैर. दर्द जब इससे खत्म नहीं होता है वह लगा देती है विक्स या खा लेती है एक दर्द की गोली. वह बीमार पड़ने पर भी डॉक्टर के पास जाने से तकराती है. वह मां है, पत्नी है, बहू है और इसी का फर्ज निभाती है. वह दिन रात चकरी की तरह भागती ही रहती है. जैसे उसके अंदर रोबोट फिट कर दिया गया हो.

सबके स्कूल, ऑफिस चले जाने के बाद वह समेटती है घर के काम. पता नहीं वह इतनी ठंड में यह सब कैसे कर लेती है. क्या जरूरी है उसे बॉलकनी में जाकर गमले साफ करने की. क्या जरूरी है छत साफ करने की. क्या जरूरी है रोज-रोज पोछा लगाने की. ठंड में सबलोग छुट्टी के दिन आराम करते हैं औऱ वह लग जाती है उनकी फरमाइशें पूरा करने में.

ठंड में वह बनाती है सबसे पसंद का खाना. कभी आलू के पराठे, कभी मटर की दाल तो कभी मेथी का साग तो फिर गाजर का हलवा. आखिर उसकी कभी छुट्टी क्यों नहीं होती? आखिर वह कभी आराम क्यों नहीं करती? वह किस मिट्टी की बनी है, आखिर उसे ठंड क्यों नहीं लगती? क्यों नहीं पुरुष घर के कामों को आधा-आधा बांट लेते हैं ताकि घर की महिला थोड़ा आराम कर सके. क्यों नहीं वे कहते हैं कि आज मैं पहले जगकर चाय बनाता हूं. क्यों नहीं एक दिन घर के कामों से उसकी भी छुट्टी होती है, क्यों नहीं एक दिन वह बेफिक्र होकर सोती है?

इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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