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इतिहास रतनलाल के पास हो ही नहीं सकता, नालंदा से पहले जलाए गए दो पुस्तकालयों में है- उसे खोजिए

    • अनुज शुक्ला
    • Updated: 22 मई, 2022 01:53 PM
  • 22 मई, 2022 01:30 PM
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दुनिया इतिहास को लेकर परेशान है और एक अंधेरी सुरंग में फंसी हुई है. भारत भी. उसे इतिहास तो पता है पर प्रमाण कहां-कहां और कितना लाए. नालंदा समेत तीन पुस्तकालयों में लगाई आग इतिहास की तारीखें खा चुकी हैं. रतनलाल मासूम हैं उन्हें क्षमा कर दें.

दिल्ली विश्वविद्यालय में इतिहास के प्रोफ़ेसर रतनलाल की गिरफ्तारी की वजह परेशान करने वाली है. परेशान इसलिए होना चाहिए कि उन्होंने ऐसा नया क्या कह दिया जो किसी की धार्मिक भावनाएं आहत हो गईं. कितनी कमजोर धार्मिक भावनाएं थीं. भाई मेरी तो तनिक भी नहीं हुईं. उन्होंने तो बस यही कहा ना कि वो शिवलिंग, फव्वारा जो भी था- ऐसा लग रहा है जैसे "खतना" हो गया. कायदे से तो यह होना चाहिए कि "खतना" को शिवलिंग के साथ जोड़े जाने पर दूसरे पक्ष की धार्मिक भावनाएं आहत होतीं तो समझ में आता. यहां उल्टा हो गया. यह इतना बताने के लिए काफी है कि विदेशी प्रभाव किस कदर हावी हो रहा है भारतीय चेतना पर. शायद रतन लाल के खिलाफ शिकायत भी "खतना"  के गलत इस्तेमाल की वजह से हो गई हो, शिवलिंग का नाम लेने की वजह से नहीं. अगर ऐसा नहीं था तो बताइए क्या यह पहली बार हुआ कि किसी ने हिंदू देवी देवताओं के ऊपर टीका टिप्पणी की हो.

नंदी बाहर क्यों बैठे हैं इसको लेकर कहानियां सुनते आप बड़े नहीं हुए क्या? पट्टाभी सीतारमैया ने काशी के मंदिर के नीचे कच्छ की रानी का बलात्कार तक करवा दिया- आपने कोई शिकायत, कोई आंदोलन किया. सीतारमैया के उस झूठे संदर्भ पर एक दर्जन किताबें और दस दर्जन लेख यह बात साबित कर जाते हैं कि औरंगजेब इतिहास का सबसे सेकुलर मुग़ल बादशाह था. सीतारमैया ने जब लिखा उससे काफी साल पहले भारत में हमारे मुसलमान भाई खिलाफत आंदोलन सिर्फ इसलिए कर रहे थे कि अंग्रेज किसी भी सूरत में तुर्की के खलीफा को रियायत दें. इस्लामिक व्यवस्था पर चोट ना पहुंचाएं, बाकी जो मन हो वो करें.

उस जमाने में ना व्यापक टेलीफोन ना इंटरनेट बावजूद तुर्की तक दिल के तार जुड़े हुए थे. आज तो सबकुछ है. आंदोलन इतना जबरदस्त था कि गांधी जी को लगा- ये लोग आ जाए तो स्वराज्य का लक्ष्य एक झटके में मिल जाएगा. कांग्रेस के कई नेताओं ने मना किया बावजूद गांधी जी इकलौते बड़े हिंदू नेता थे जो खिलाफत का नेतृत्व करने बढ़े. 1925 तक पांच साल चला आंदोलन. अंग्रेजों ने ना तो तुर्की के खलीफा को छोड़ा, ना गांधी का स्वराज मूर्त हो...

दिल्ली विश्वविद्यालय में इतिहास के प्रोफ़ेसर रतनलाल की गिरफ्तारी की वजह परेशान करने वाली है. परेशान इसलिए होना चाहिए कि उन्होंने ऐसा नया क्या कह दिया जो किसी की धार्मिक भावनाएं आहत हो गईं. कितनी कमजोर धार्मिक भावनाएं थीं. भाई मेरी तो तनिक भी नहीं हुईं. उन्होंने तो बस यही कहा ना कि वो शिवलिंग, फव्वारा जो भी था- ऐसा लग रहा है जैसे "खतना" हो गया. कायदे से तो यह होना चाहिए कि "खतना" को शिवलिंग के साथ जोड़े जाने पर दूसरे पक्ष की धार्मिक भावनाएं आहत होतीं तो समझ में आता. यहां उल्टा हो गया. यह इतना बताने के लिए काफी है कि विदेशी प्रभाव किस कदर हावी हो रहा है भारतीय चेतना पर. शायद रतन लाल के खिलाफ शिकायत भी "खतना"  के गलत इस्तेमाल की वजह से हो गई हो, शिवलिंग का नाम लेने की वजह से नहीं. अगर ऐसा नहीं था तो बताइए क्या यह पहली बार हुआ कि किसी ने हिंदू देवी देवताओं के ऊपर टीका टिप्पणी की हो.

नंदी बाहर क्यों बैठे हैं इसको लेकर कहानियां सुनते आप बड़े नहीं हुए क्या? पट्टाभी सीतारमैया ने काशी के मंदिर के नीचे कच्छ की रानी का बलात्कार तक करवा दिया- आपने कोई शिकायत, कोई आंदोलन किया. सीतारमैया के उस झूठे संदर्भ पर एक दर्जन किताबें और दस दर्जन लेख यह बात साबित कर जाते हैं कि औरंगजेब इतिहास का सबसे सेकुलर मुग़ल बादशाह था. सीतारमैया ने जब लिखा उससे काफी साल पहले भारत में हमारे मुसलमान भाई खिलाफत आंदोलन सिर्फ इसलिए कर रहे थे कि अंग्रेज किसी भी सूरत में तुर्की के खलीफा को रियायत दें. इस्लामिक व्यवस्था पर चोट ना पहुंचाएं, बाकी जो मन हो वो करें.

उस जमाने में ना व्यापक टेलीफोन ना इंटरनेट बावजूद तुर्की तक दिल के तार जुड़े हुए थे. आज तो सबकुछ है. आंदोलन इतना जबरदस्त था कि गांधी जी को लगा- ये लोग आ जाए तो स्वराज्य का लक्ष्य एक झटके में मिल जाएगा. कांग्रेस के कई नेताओं ने मना किया बावजूद गांधी जी इकलौते बड़े हिंदू नेता थे जो खिलाफत का नेतृत्व करने बढ़े. 1925 तक पांच साल चला आंदोलन. अंग्रेजों ने ना तो तुर्की के खलीफा को छोड़ा, ना गांधी का स्वराज मूर्त हो पाया. अलबत्ता पाकिस्तान बनने का रास्ता जरूर बन गया. संयोग देखिए वही सीतारमैया, गांधी जी के परम शिष्य दिखते हैं.

तुर्की के प्रेसिडेंट की पत्नी से मिलते आमिर खान. इस मुलाक़ात पर खूब विवाद हुआ था.

भला बताइए गांधी जी से बड़ा हिंदू और कौन होगा? आपने कभी ठहरकर सोचा कि सुभाषचंद्र बोस के खिलाफ गांधी जिस सीतारमैया को उम्मीदवार बना रहे उसकी किताब में काशी के मंदिर को लेकर घिनौने जिक्र का विरोध क्यों नहीं किया. जबकि गांधी जिस आंदोलन में शामिल हुए वह पूरी तरह से एक धर्म विशेष का आंदोलन था. दोष हमारे आपके इतिहासबोध में है. आपने कभी ब्रह्मा-सरस्वती के रिश्तों पर, ख़ूबसूरत पत्नी और बच्चों को छोड़ने वाले बुद्ध के अस्तित्व को लेकर मनगढ़ंत कहानियों पर गुस्सा जताया. कभी शिकायत की. शिकायत सोशल मीडिया पर हो तभी आपको शिकायत लगती है. सड़कों, चौराहों और गलियों पर होने वाली रोज की शिकायतों को लेकर आपने क्या किया. और उससे भी ज्यादा भारत के अंदर जो नए किस्म का भारत बनाया जा रहा है वहां हर सेकेंड क्या होता है क्या कभी उन शिकायतों पर गौर किया. "खतना" शब्द कहां से आया. आपको क्या लगता है?

मकबूल फ़िदा हुसैन ने कितनी मेहनत से चित्र बनाए. आप तड़पते रहे. कुछ कर नहीं पाया. लेकिन उन्हें फ्रांस ने बता दिया कि चित्रों से भी तकलीफ होती है. फ्रांस ने बहुत तकलीफ दी. जबकि उनका मकसद तकलीफ देना नहीं था. फिर भी तकलीफ हुई.

मूर्ख हैं आप. जैसे पहले थे वैसे ही आज भी हैं और आपको हराना असंभव नहीं. आप भी रटने वाला समाज बनते जा रहे हैं. रतन लाल के मामले में जिस तरह प्रतिक्रियाएं दीं वह स्वाभाविक है. पर इसे तत्काल सुधारिए. हर चीज को मंदिर के नजरिए से मत देखिए. इतिहास को तो बिल्कुल नहीं. रतनलाल इतिहास के प्रोफ़ेसर हैं वो आजाद हैं देख सकते हैं. आपको तो यह देखना चाहिए कि मंदिर, मठ और विहारों का वह आकर्षण क्या है जो अंधे धार्मिक समूहों को आज भी आंदोलित कर रहा है. और आज से नहीं, हजारों साल से कर रहा है. क्या आपने मंदिर मठ विहार धर्म के लिए बनाए थे? और धर्म भर के लिए नहीं बनाया था तो उसे धर्म भर के लिए देखना ही क्यों?

आपको तो कायदे से यह देखना चाहिए कि हमलावरों को आकर्षित करने वाले मंदिर उन्हें रोक क्यों नहीं पाए?

पेट्रा जो अरब वर्ल्ड में सबसे प्राचीन और संपन्न शहर के रूप में आबाद था.

और अब देखना इसलिए आवश्यक हो गया कि मोबाइल के दौर में आपकी याददाश्त कमजोर हो गई है. वह याददाश्त जो पीढ़ी दर पीढ़ी बिना किताब, बिना रटे, बिना पढ़े (90 प्रतिशत भारत शिक्षित नहीं था आज से कुछ साल पहले तक) आपके इतिहास को ढोते चले आ रही थी. इसलिए देखना चाहिए कि वह याददाश्त किसी किताब में अब तक प्रमाणित नहीं हुई है. महज इस एक तर्क के आधार पर दो सौ साल बाद आपको पढ़ा दिया जाएगा कि आप हमलवार थे, बाहर से आए थे, अरब से अपना धर्म बचाने भागे थे. आपके पास रहने के लिए कोई जमीन नहीं होगी, जैसे पारसियों की अपनी जमीन नहीं है जो उनकी थी. अरब में बहुत सी जनजातियों के पास अपनी जमीन नहीं है और आज भी युद्ध में हैं.

इतिहास की सबसे बड़ी धार्मिक लूट तो पेट्रा में हुई थी

यह समझने का प्रयास करिए- तब संभव है कि भारत बचेगा. फर्जी पाखंड से बाहर निकलिए और सच स्वीकार करिए. आप मुगलों से कुछ नहीं सीख पाए. एक बढ़िया पिक्चर की पटकथा लिखने के लिए मानवता के ढोंग, बुद्धि, धैर्य और साहस की जरूरत होती है. क्या आपको मालूम है कि नालंदा से पहले भी इतिहास में दो और भयंकर आगजनी की घटनाएं हुई थीं. पुस्तकों को जलाने की पहली घटना पेट्रा में हुई थी. यह अपने जमाने का एक महान शहर था और आज की तारीख में जार्डन का हिस्सा है. इस शहर की तारीख ईसा से पहले की है. पेट्रा जैसे महान शहर को सिर्फ इतिहास की सबसे शर्मनाक धार्मिक लूट के लिए तहस नहस कर दिया गया और समूचे अरब, मध्य एशिया के माथे पर लिख दिया गया- "तुम्हारे पास कुछ नहीं था."

इस्लाम आने के बाद पेट्रा में किताबों को जलाने की जरूरत ही क्यों पड़ी, आपको इसे पढ़ना चाहिए. हो सकता है कि रतनलाल इसे ना पढ़ पाए. उन्होंने पढ़ा भी नहीं होगा. लेकिन भारत के लिए इसे पढ़ना जरूरी है. पेट्रा में किताबों को जलाने का जो विवरण मिलता है वैसा कहीं नहीं है. जैसे औरंगजेब ने मंदिरों मठों को तोड़ने के लिए डिपार्टमेंट बनवाए थे, अलग बजट दिया और बड़े पैमाने पर कर्मचारियों को नियुक्त किया- पेट्रा में किताबों को जलाने के लिए भी बिल्कुल वैसा ही किया गया था. विभाग बना. सभी किताबें एक जगह जुटाई गईं. राशन की दुकानों पर जिस तरह कभी मिट्टी का तेल बांटा जाता था- लोगों को किताबें पकड़ाई गईं- "ले जाओ और चूल्हे में जलाओ."

पर्सिया में किताबें खोज खोजकर जला दिया, नवरोज बचा रह गया क्या वह कम है

दूसरी बार किताबों को व्यापक रूप से जलाने का उदाहरण पर्सिया में मिलता है. सिकंदर ने नहीं जलाया था. इस्लाम पहुंचने पर जलाई गईं. कुछ विवरण मिलते हैं कि आग पूजने वालों के देश में आग से किताबें जलाने के लिए बड़े-बड़े अभियान शहर-शहर गांव-गांव चलें. कुछ पारसी जिन्हें अभियान से आपत्ति थी, थोड़ी बहुत किताबें और अपनी जान बचाकर भारत आए. टाटा, भाभा और मानेक शा उन्हीं किताबों की पैदाइश हैं. भाभा नहीं होते तो आशंका थी कि भारत इतनी जल्दी परमाणु बम नहीं बना सकता था. शायद भाभा भारत की परमाणु जरूरत बेहतर जानते थे. मजेदार यह है कि किताबों के जलने के बाद भी नवरोज की याददाश्त ख़त्म नहीं हुई अभी तक. ना उधर ईरान में और ना पारसियों के भारत में. वो याददाश्त कुछ कम नहीं. वह बताती है कि आपका इतिहास गलत नहीं था.

अब आप मंदिरों मठों के रास्ते इतिहास से लड़ने निकले हैं. एक बार हार चुके हैं तो फिर दोबारा कैसे जीतेंगे? मंदिर मठ हमेशा पूजने के लिए पहुंचे. वहां पढ़ने गए कभी, वो क्या कहते हैं? एक लोटा जल उड़ेला, 100  रुपये दक्षिणा दी और लौट आए. दक्षिणा पाकर पंडे खुश हुए, दर्शन पाकर आप और राजस्व पाकर सरकार. अपने मंदिरों मठों को पढ़ने गए होते तो आज ज्ञान विज्ञान और स्वाभिमान का इजरायल बन चुके होते. इजरायल ने दो हजार साल रट रट कर पढ़ा. किताबें तो उसकी भी जला दी गई थीं.

गाजी मसूद को समझिए, औरंगजेब को प्यार करने लगेंगे

आप कौन से इतिहास से लड़ रहे हैं और कैसे जीतेंगे? भारत में संत बनने के लिए लोगों ने जीवन खपा दिया. उधर एक झटके में झटके में संतई का सर्टिफिकेट बांटा गया है. 20 साल का एक खानाबदोश लड़ाका गाजी सालार मसूद कैसे संत बना? बताइए. गजनवी की सेना का कमान संभाल रहा मसूद बहराइच में जंगी अभियान के दौरान मारा गया. इतिहास में बहराइच का क्या मुकाम है आप नहीं जानते. उस मुकाम से आगे बढ़ने में इस्लाम को कई दशक लगे. जब मुकाम आगे बढ़ा दिल्ली की सल्तनतों ने वहां कब्र पक्की की और दरगाह बना. अब्राहमिक समाज मुकाम ऐसे ही गढ़ता है.

महाराजा सुहेलदेव का नाम है मगर उन्हें कल्पना मान लिया गया है. इतिहास मान सकता है. नहीं मानता तो आश्यर्य करना चाहिए. सोचिए कि देश में सबसे प्रतिष्ठित अग्रिम पंक्ति के लेखकों में शुमार इरफान हबीब क़ुतुब मीनार के बचाव में कह जाते हैं कि मंदिरों के अवशेष का इस्तेमाल हुआ मगर 27 मंदिर तोड़कर नहीं हुआ. भला एक जगह 27 मंदिर कैसे हो सकते हैं. सबसे बड़े इतिहासकार का भारत ज्ञान. रतनलाल क्या इरफान हबीब से बड़े इतिहासकार हैं. नाबालिग बच्चा भर हैं. लेकिन उस चेतना का क्या कर लेंगे जो हजार साल से सुहेलदेव और मसूद के भीषण संग्राम को मन में सहेजे हुए है.

महाराजा सुहेलदेव

इतिहास ने नहीं भारतीय चेतना की याददाश्त ने महाराजा सुहेलदेव को ज़िंदा रखा है. वह ओपी राजभर की सत्ता पाने के लिए गढ़ी गई कल्पना भर नहीं हैं. बावजूद कि आशंका से इनकार नहीं कि आगे सौ दो सौ साल बाद उन्हें महज इसी तर्क के आधार पर खारिज कर दिया जाए कि राजभरों, पासियों का वोट पाने के लिए कुछ लोगों ने गाजी मसूद के साथ सुहेलदेव की जंग का मिथक गढ़ दिया. हमारे यहां ऐसे ही इतिहास लिखा गया है.

गाजी मसूद का मुकाम बहराइच में पूजा जाता है. भारतीय ही पूजते हैं कोई और नहीं. बहुत बड़ा उर्स लगता है. जब हारा-मारा मसूद गाजी बन सकता है फिर खुल्दाबाद के मुकाम में बादशाह औरंगजेब को पूजने के तो हजारों तर्क हैं उसके भक्तों के पास. जो सुहेलदेव का वंशज बताते हैं आज उनकी समाज में स्थिति देख लीजिए.

आप इतिहास में तभी जीत पाएंगे जब नीचे की दस कहानियों का सत्य खोज लेंगे:-

1) हुमायूं की राखी वाली कहानी को कौन सा टीवी का रिपोर्टर लाइव कवर कर रहा था

2) अलाउद्दीन खिलजी में बुद्धिजीवियों ने सबसे अच्छा क्या तलाशा

3) जब अगर अकबर महान था फिर भारतीय चेतना में हारे महाराणा प्रताप का किस्सा राजपुताने से भी बाहर जिंदा कैसे रह गया

4) सल्तनतों की तारीख में अजमेर शरीफ का मुकाम क्या है

5) दिल्ली में मरने वाले बादशाह औरंगजेब की कब्र खुल्दाबाद में कच्ची क्यों है

6) सल्तनतों मुगलों के इतिहास में मुकाम क्या हैं उसके मकसद क्या हैं

7) ईराक और अफगानिस्तान जैसे प्रगतिशील और एक जमाने के घोर कम्युनिस्ट देश रातोंरात तालिबान कैसे बने

8) बहुत सारे भारतीय पाकिस्तान बनने के बावजूद भारत से क्यों नहीं जाने को राजी हुए

9) मुगलों की बजाए राणा प्रताप या अन्य राजाओं के साथ लड़ने वाले मुसलमान कौन थे, उनकी पृष्ठभूमि क्या थी  

10) बांग्लादेश को पाकिस्तान से अलग होकर भारत से बंटवारे का फैसला क्यों बदलना पड़ा

11) वह क्या था जो बामियान में बुद्ध अपने ही बच्चों के हाथ ढहाए गए, बच्चों स्कूलिंग कहां हुई थी

12) म्यांमार में बुद्ध के भक्त के रूप में विराथू जैसे नेता का जन्म कैसे हो जाता है

13) सीरिया की बर्बादी मानवीय आधार पर भारत के दुख का विषय हो सकता है लेकिन वो क्या है जो श्रीलंका की बर्बादी पर लोगों की खुशी का विषय बन रहा है

14) जो किसी और ईश्वर धर्म किताब को नहीं मानता आज कौन सी मजबूरी है कि अपनी हर बात कहने के लिए राम और बुद्ध का उद्धरण दे रहा है

खुदाई जारी रहे, जो मिले उसे माथे लगाइए, वही आपका है  

ऊपर इन सवालों का सत्य जानने के बाद गलत इतिहास और सही इतिहास में फर्क करने की जरूरत नहीं पड़ेगी. तत्कालीन नैरेटिव समझ लेंगे तो इतिहास करेक्ट रहेगा हमेशा. एक आम भारतीय का किसी सल्तनत के उत्तराधिकारी से बहस करना संभव नहीं है. आम भारतीयों की भावनाएं कमजोर नहीं होनी चाहिए. और सल्तनत के उत्तराधिकारियों को भी ऐसी अधार्मिक बहसों से दूर ही रहना चाहिए. बेशक किसी के लिए इतिहास रटने की चीज हो सकता है. पर उन्हीं की तारीखों के आसपास चीजें आपको भी मिलेंगी. उसे खोजिए जो मिले माथे चढ़ाइए. यही सिखाया है भारत ने आपको. औरंगजेब की तरह दमन से इतिहास कभी दुरुस्त नहीं हो सकता. औरंगजेब से जितना ताकतवर भला कोई क्या होगा. उसकी जीडीपी 28% थी.

भारतीय बहस करें और खोदते रहें. बुलडोजर जरूरी है और यह किसी भी हाल में नहीं रुकना चाहिए. खुदाई में जो मिले उसे स्वीकारिए. वह भी आपका ही है किसी और का नहीं. मसूद को पूजने वाले उसे क्लेम करने की क्षमता नहीं रखते. भगवान ने ना तब बचाया था और ना अब बचाएगा. लड़ना सीखिए और लड़ाई सिर्फ तलवार से नहीं होती.

चलते चलते इतिहास की वह बात भी जान लीजिए जिस पर विद्वान नजर नहीं डाल पाते. भारत अपनी सामजिक सोच की वजह से हारा. कितना भी योग्य हो राजा बड़ा बेटा ही होगा. बड़ा बेटा कमजोर है तो छोटे को दावेदारी क्यों नहीं करनी चाहिए? विदेशी इसलिए जीते कि उन्होंने अपने घर में ही योग्यता साबित की और उनका जो सबसे बेस्ट था उसी ने राज किया. युद्ध, योद्धा जीतते हैं उत्तराधिकारी नहीं. औरंगजेब ने भी बेहतर सीमा और उत्तराधिकारी छोड़ा था. 30 साल भी नहीं संभाल पाया. नादिर शाह आया और जैसे मन किया वैसे लूट कर गया. बहुत बाद में पश्चिम में महाराजा रणजीत सिंह के सेनापति हरि सिंह नलवा ने अफगानिस्तान को जैसे मन किया वैसे रौंदा. वहां कि माताएं बच्चों को कैसे डराती हैं- इतिहास जानना हो तो कभी कभार गूगल भी कर लिया करिए.

अब जो योद्धा होगा, वही जीतेगा. नजर घुमाते रहें. उत्तराधिकार में नहीं मिलेगा, मगर भारत में योद्धाओं की कमी नहीं है.

इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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