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समाज

यह लव जिहाद नहीं, जिहादी लव है साहब!

    • डॉ नीलम महेंन्द्र
    • Updated: 01 दिसम्बर, 2017 04:12 PM
  • 01 दिसम्बर, 2017 04:12 PM
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लव जिहाद का ताजा मामला हदिया का है. इन मामलों को देखकर लगता है कि कहीं न कहीं सामाजिक तौर पर ये हमारी परवरिश की कमी है जो आज हमारी लड़कियां अपना धर्म परिवर्तन कराते हुए हदिया के बताए मार्ग पर चल रही हैं.

परिवर्तन तो संसार का नियम है. व्यक्ति और समाज के विचारों में परिवर्तन समय और काल के साथ होता रहता है लेकिन जब व्यक्ति से समाज में मूल्यों का परिवर्तन होने लगे तो यह आत्ममंथन का विषय होता है.अखिला अशोकन से हदिया बनी एक लड़की आज देश में एक महिला के संवैधानिक अधिकारों और उसकी 'आजादी' की बहस का पर्याय बन गई है. दरअसल आज हमारा देश उस दौर से गुजर रहा है जहां हम हर घटना को कभी अपनी अभिव्यक्ति तो कभी अपनी स्वतंत्रता, कभी जीने की आजादी तो कभी अपने संवैधानिक अधिकारों जैसी विभिन्न नई नई शब्दावलियों के जाल में उलझा देते हैं. और प्रतिक्रियाएं तो इतनी त्वरित और पूर्वाग्रहों से ग्रसित होती हैं कि शायद अब हमें पहले यह सोचना चाहिए कि समाज में अपने हकों की बात करते करते कहीं हम इतने नकरात्मक तो नहीं होते जा रहे कि मानव सभ्यता के प्रति अपना सकरात्मक योगदान देने का कर्तव्य लगभग भूल ही चुके हैं?

हदिया का धर्म परिवर्तन कर दूसरे मजहब को चुनना हमारी परवरिश को करारा तमाचा है

सवाल उठाए जा रहे हैं कि क्या हमारे देश में एक लड़की अपने पसंद के लड़के से शादी नहीं कर सकती? क्या वो अपने पसंद का जीवन नहीं जी सकती? क्या वो अपनी मर्जी से धर्म परिवर्तन नहीं कर सकती? ऐसे अनगिनत प्रश्न हैं जो एक सभ्य समाज के लिए उचित भी हैं. लेकिन ऐसे सवाल पूछने वालों से एक प्रश्न कि क्या ये तब भी ऐसे ही तर्क देते अगर हदिया उनकी खुद की बेटी होती? क्या हम अपनी बेटियों को हदिया बनाने के लिए तैयार हैं?

जबकि प्रश्न यह उठना चाहिए कि क्यों एक लड़की ने विद्रोह का रास्ता चुना? क्यों एक मामला जो कि पारिवारिक था कानूनी और सामाजिक मुद्दा बन गया? क्या वाकई में यह मामला 'लव' का है या फिर एक लड़की किसी लड़के के लिए 'जिहाद' का मोहरा भर है? यह लव जिहाद नहीं बल्की जिहादी लव तो नहीं है? ऐसी बातें निकलती...

परिवर्तन तो संसार का नियम है. व्यक्ति और समाज के विचारों में परिवर्तन समय और काल के साथ होता रहता है लेकिन जब व्यक्ति से समाज में मूल्यों का परिवर्तन होने लगे तो यह आत्ममंथन का विषय होता है.अखिला अशोकन से हदिया बनी एक लड़की आज देश में एक महिला के संवैधानिक अधिकारों और उसकी 'आजादी' की बहस का पर्याय बन गई है. दरअसल आज हमारा देश उस दौर से गुजर रहा है जहां हम हर घटना को कभी अपनी अभिव्यक्ति तो कभी अपनी स्वतंत्रता, कभी जीने की आजादी तो कभी अपने संवैधानिक अधिकारों जैसी विभिन्न नई नई शब्दावलियों के जाल में उलझा देते हैं. और प्रतिक्रियाएं तो इतनी त्वरित और पूर्वाग्रहों से ग्रसित होती हैं कि शायद अब हमें पहले यह सोचना चाहिए कि समाज में अपने हकों की बात करते करते कहीं हम इतने नकरात्मक तो नहीं होते जा रहे कि मानव सभ्यता के प्रति अपना सकरात्मक योगदान देने का कर्तव्य लगभग भूल ही चुके हैं?

हदिया का धर्म परिवर्तन कर दूसरे मजहब को चुनना हमारी परवरिश को करारा तमाचा है

सवाल उठाए जा रहे हैं कि क्या हमारे देश में एक लड़की अपने पसंद के लड़के से शादी नहीं कर सकती? क्या वो अपने पसंद का जीवन नहीं जी सकती? क्या वो अपनी मर्जी से धर्म परिवर्तन नहीं कर सकती? ऐसे अनगिनत प्रश्न हैं जो एक सभ्य समाज के लिए उचित भी हैं. लेकिन ऐसे सवाल पूछने वालों से एक प्रश्न कि क्या ये तब भी ऐसे ही तर्क देते अगर हदिया उनकी खुद की बेटी होती? क्या हम अपनी बेटियों को हदिया बनाने के लिए तैयार हैं?

जबकि प्रश्न यह उठना चाहिए कि क्यों एक लड़की ने विद्रोह का रास्ता चुना? क्यों एक मामला जो कि पारिवारिक था कानूनी और सामाजिक मुद्दा बन गया? क्या वाकई में यह मामला 'लव' का है या फिर एक लड़की किसी लड़के के लिए 'जिहाद' का मोहरा भर है? यह लव जिहाद नहीं बल्की जिहादी लव तो नहीं है? ऐसी बातें निकलती हैं तो दूर तलक जानी चाहिए लेकिन अफसोस तो यह है कि जाती नहीं है, कुछ बेमतलब के मुद्दों पर अटक कर ही दम तोड़ देती हैं.

चूंकि यह देश में अपने प्रकार का कोई पहला मुद्दा नहीं है इसलिए इनकी पुनरावृत्ति रोकने के लिए आवश्यक है कि ऐसे मुद्दों पर ईमानदारी से चर्चा की जाए. क्या वाकई हमारे देश के हालात इतने खराब हैं कि हमारी बेटियां (जैसा कि हदिया ने कहा) माता पिता, परिवार, समाज, जाति, धर्म और रूढ़ियों की  कैदी हैं? क्या हमारे देश में आज तक कोई प्रेम विवाह नहीं हुआ?

ऐसे मामले ये बताने के लिए काफी है कि इनमें दोष हमारा है

इन प्रश्नों के ईमानदार उत्तर तो हम सभी जानते हैं. अब सवाल उठता है एक हिन्दू लड़की के अपनी 'मर्जी से इस्लाम कबूलने' पर. हदिया या फिर किसी का भी अपने जन्म के धर्म को बदल कर किसी दूसरे सम्प्रदाय को अपनाना कोई मामूली घटना नहीं होती. ऐसे व्यक्ति से उसके विचारों में इतने बड़े मूलभूत बदलाव की कोई ठोस वजह उससे जरूर पूछी जानी चाहिए कि कम से कम ऐसे दस बिंदु वो लिखकर बताए जिसने उसे अपने बचपन के संस्कार, माता पिता से प्रेम, परिवार और सामाजिक बन्धन, अनुवांशिक गुण  जैसी भावनाओं को दरकिनार करते हुए यह कदम उठाया, इसका जवाब महत्वपूर्ण है. अब बात आती है 'अपनी पसंद से शादी' करने की.

सबसे महत्वपूर्ण तथ्य तो यह है कि हदिया का शफीन जहां से विवाह 'प्रेम विवाह' नहीं है. खुद उसके कथित पति के वकील कपिल सिब्बल ने कोर्ट में कहा है कि एक मैट्रीमेनिल साइट के जरिए दोनों का निकाह हुआ है तो  'प्रेम' की बात तो  खुदबखुद खत्म हो गई. उसने 'अपने प्रेमी' से नहीं बल्कि 'एक अजनबी' शफीन जहां से शादी की है. तो कुछ सवाल फिर उठ रहे हैं, शफीन जहां खाड़ी का रहने वाला है, हदिया को भी वो निकाह के बाद खाड़ी ले जाना चाहता था, उसका क्रिमिनल रिकार्ड भी है, क्या यह सारी बातें हदिया को शादी से पहले पता थीं? क्या यह सब जानने के बावजूद शफीन उसकी 'पसंद' था? और सबसे महत्वपूर्ण प्रश्न कि कपिल सिब्बल जैसे वकील से अपना केस लड़वाने के पैसे शफीन के पास कहां से आ रहे हैं?

सच तो यह है कि इन हालातों में अगर हमारी बेटियां हदिया बन रही हैं तो यह शफीन जैसों कि जीत नहीं बल्कि माता पिता के रूप में हमारी हार है. अगर आज हदिया को अपने माता पिता का साथ 'कैद' लगता है तो यह हमारे संस्कारों की असफलता है. वो समय जब बच्चा कच्ची मिट्टी होता है उस समय हम अगर उसके मन में संस्कारों के बीज नहीं डाल पाए तो उस भूमि पर अनचाहे विचार ही अपनी जगह बनाएंगे.

जिस प्रकार धरती का कोई टुकड़ा एक खूबसूरत बगीचा बनता है या फिर खरपतवार उस टुकड़े को बंजर करती है यह माली पर निर्भर करता है, उसी प्रकार हमारे बच्चे अपने पारिवारिक और सामाजिक मूल्यों पर अटूट विश्वास रखें और जीवन भर उन पर अडिग रहें यह उनकी परवरिश तय करती है.अगर परिवार के प्रति प्रेम की डोर मजबूत हो तो क्या लव और क्या जिहाद हमारी बच्चियां अखिला से हदिया कभी नहीं बन सकतीं.

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इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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