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मुंबई में नकली कोविड वैक्सीन, दिल्ली में ब्लैकफंगस का नकली इंजेक्शन: क्या सजा हो गुनाहगारों की?

    • अनुज शुक्ला
    • Updated: 20 जून, 2021 10:12 PM
  • 20 जून, 2021 10:12 PM
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इस भयावह कहानी से जुड़ा सबसे बड़ा सवाल यही है कि क्या कालाबाजारियों को काबू करने में हमारा क़ानून प्रभावी नहीं हैं? सिलसिलेवार घटनाओं से तो यही लग रहा है कि क़ानून का कोई खौफ ही नहीं. केस ही चलेगा ना?

एक तरफ देश कोरोना जैसी भयावह महामारी की आपदा से जूझ रहा है. दूसरी ओर आपदा को अवसर बनाने वालों ने ना सिर्फ मानवता को शर्मसार किया बल्कि क़ानून और संविधान को भी ठेंगा दिखाया है. पिछले तीन महीने से कोरोना इलाज को लेकर बदहाल स्थिति देखने को मिली. पहले दवाइयों, मेडिकल ऑक्सीजन और उपकरणों की किल्लत हुई. ये किल्लत मुश्किल वक्त के लिए तैयारियों में कमी से तो उपजी ही थीं, मगर कालाबाजारियों ने भी इसे बढ़ाने का काम किया. जरूरी दवाओं और मेडिकल सप्लाई को सबसे मुश्किल वक्त में स्टॉक किया गया. किल्लत बनाई गई और बाद में उसे मुंहमागी कीमतों पर ब्लैक मार्केट में बेंचा गया. सरकारी अमला थोडा नहीं बहुत देर से हरकत में आया.

फिलहाल महामारी की लहर थम गई. मगर आपदा में अवसर तलाशने वालों के दूसरे गोरखधंधे शुरू हैं. अब ब्लैक फंगस की नकली इंजेक्शन बनाकर बेची जा रही है. टीकाकरण में भी गोरखधंधा की खौफनाक कहानी सामने है. महाराष्ट्र में एक गैंग के फर्जीवाड़े का पता चला. कई जगहों पर कैम्प के जरिए फर्जी कोरोना टीका लगाकर लोगों से पैसे वसूले गए. भला कौन जीना नहीं चाहता. कौन चाहता है कि कोरोना की वजह से बार-बार लॉकडाउन हो और वो घर बैठे. काम धंधा ठप हो जाए. बच्चे स्कूल का मुंह तक देखने को तरश जाएं और लोग चाहकर भी यार दोस्त और रिश्तेदारों से मिल ना सकें. हर कंपनी चाहती है कि उसके कर्मचारी आएंगे, काम करेंगे तभी कंपनी की कमाई होगी.

इन सब चीजों का हल सिर्फ टीके में था. महामारी को नजदीक से देखने वाले कुछ संस्थाओं, कंपनियों के मुंबईकरों ने भरोसा किया और 1200 रुपये तक देकर टीके लगवाए. उन्होंने कल्पना भी नहीं की थी कि ऐसे भी लोग हैं जो सैकड़ों लोगों को मौत की खाई में झोंककर पैसा कम रहे हैं. फर्जी टीका लगाया गया, अलग-अलग अस्पतालों के फर्जी टीका सर्टिफिकेट भी बांटे गए. जैसे टीका लगाने के बाद सरकार देती है. ये सबकुछ किसी दूर-दराज इलाके में नहीं बल्कि मुंबई में हो रहा था. हैरान करने वाली बात है कि सरकारी अमलों को बंदरबाट की भनक तक नहीं लगी. खुलासा तब हुआ जब टीका लेने वालों ने...

एक तरफ देश कोरोना जैसी भयावह महामारी की आपदा से जूझ रहा है. दूसरी ओर आपदा को अवसर बनाने वालों ने ना सिर्फ मानवता को शर्मसार किया बल्कि क़ानून और संविधान को भी ठेंगा दिखाया है. पिछले तीन महीने से कोरोना इलाज को लेकर बदहाल स्थिति देखने को मिली. पहले दवाइयों, मेडिकल ऑक्सीजन और उपकरणों की किल्लत हुई. ये किल्लत मुश्किल वक्त के लिए तैयारियों में कमी से तो उपजी ही थीं, मगर कालाबाजारियों ने भी इसे बढ़ाने का काम किया. जरूरी दवाओं और मेडिकल सप्लाई को सबसे मुश्किल वक्त में स्टॉक किया गया. किल्लत बनाई गई और बाद में उसे मुंहमागी कीमतों पर ब्लैक मार्केट में बेंचा गया. सरकारी अमला थोडा नहीं बहुत देर से हरकत में आया.

फिलहाल महामारी की लहर थम गई. मगर आपदा में अवसर तलाशने वालों के दूसरे गोरखधंधे शुरू हैं. अब ब्लैक फंगस की नकली इंजेक्शन बनाकर बेची जा रही है. टीकाकरण में भी गोरखधंधा की खौफनाक कहानी सामने है. महाराष्ट्र में एक गैंग के फर्जीवाड़े का पता चला. कई जगहों पर कैम्प के जरिए फर्जी कोरोना टीका लगाकर लोगों से पैसे वसूले गए. भला कौन जीना नहीं चाहता. कौन चाहता है कि कोरोना की वजह से बार-बार लॉकडाउन हो और वो घर बैठे. काम धंधा ठप हो जाए. बच्चे स्कूल का मुंह तक देखने को तरश जाएं और लोग चाहकर भी यार दोस्त और रिश्तेदारों से मिल ना सकें. हर कंपनी चाहती है कि उसके कर्मचारी आएंगे, काम करेंगे तभी कंपनी की कमाई होगी.

इन सब चीजों का हल सिर्फ टीके में था. महामारी को नजदीक से देखने वाले कुछ संस्थाओं, कंपनियों के मुंबईकरों ने भरोसा किया और 1200 रुपये तक देकर टीके लगवाए. उन्होंने कल्पना भी नहीं की थी कि ऐसे भी लोग हैं जो सैकड़ों लोगों को मौत की खाई में झोंककर पैसा कम रहे हैं. फर्जी टीका लगाया गया, अलग-अलग अस्पतालों के फर्जी टीका सर्टिफिकेट भी बांटे गए. जैसे टीका लगाने के बाद सरकार देती है. ये सबकुछ किसी दूर-दराज इलाके में नहीं बल्कि मुंबई में हो रहा था. हैरान करने वाली बात है कि सरकारी अमलों को बंदरबाट की भनक तक नहीं लगी. खुलासा तब हुआ जब टीका लेने वालों ने ही खुद शिकायत की. जिन अस्पतालों के नाम से सर्टिफिकेट जारी किए गए थे, पूछताछ में उन्होंने इनकार कर दिया कि उनका किसी के साथ भी इस तरह का करार नहीं था.

आरोपियों पर क्या ये धाराएं पर्याप्त हैं

फिर पता चला कि ये तो टीकाकरण के नाम पर गोरखधंधा चल रहा था. अब तक पांच आरोपी धरे गए हैं. मामले में दो केस दर्ज हुए हैं. आशंका है कि आरोपियिओं ने मई और जून में कई स्कूलों, हाउसिंग सोसायटीज और कंपनियों में फर्जी टीकाकरण कैम्प लगाए हैं. अभी और भी मामले सामने आए तो हैरान नहीं होना चाहिए. आरोपियों पर धारा 268 (सार्वजनिक उपद्रव), 270 (घातक कार्य जिससे जीवन के लिए खतरनाक किसी भी बीमारी का संक्रमण फैलने की संभावना है), 274 (दवाओं में मिलावट), 275 (फर्जी दवा बेचने), 419 (धोखाधड़ी), 465 (फर्जीवाड़ा) आदि के तहत केस दर्ज हुआ है. लेकिन इस भयावह कहानी से जुड़ा सबसे बड़ा सवाल यही है कि क्या कालाबाजारियों को काबू करने में हमारा क़ानून प्रभावी नहीं हैं? सिलसिलेवार घटनाओं से तो यही लग रहा है कि क़ानून का कोई खौफ ही नहीं. केस ही चलेगा ना? देख लेंगे.

फर्जी दवाओं के मार्केट में पहुंचने से पहले रोकने में दिक्कत क्या है?

अगर आरोपियों को क़ानून का खौफ होता तो वो ऐसा करने से पहले हजार बार सोचते. तीन महीने से कोरोना को लेकर जमाखोरी और दवाओं का फर्जीवाडा जारी है. मुंबई में फर्जी कैम्प लगे तो दिल्ली में डॉ अल्तमस हुसैन अपने ही घर में ब्लैक फंगस के नकली इंजेक्शन बना रहा था. ये नेटवर्क सिर्फ दिल्ली तक सीमित नहीं है. इसके तार यूपी, मध्य प्रदेश बिहार और कई दूसरे राज्यों के शहरों तक फैले हुए हैं. समझ में नहीं आता कि फर्जीवाड़ा होता रहता है. जब लोग शिकायतें करते हैं तो सरकार सक्रिय होती है. एक दो पकड़ में आते हैं. कई बार लगता है कि इस तरह के गोरखधंधे में जो पकडे जाते हैं वो छोटी मुर्गियां हैं. ऑपरेट करने वाले बड़े बागड़ बिल्ले सदा सुरक्षित हैं. और इसी वजह से कालाबाजार कुछ दिन के सन्नाटे के बाद फिर उठ खड़ा हो जाता है. समझ में नहीं आता कि निगरानी के लिए जो संबंधित विभाग हैं वो इतने दिनों तक आखिर क्या करते रहते हैं. किसी फर्जी दवा के ब्लैक मार्केट में पहुँचने से पहले आखिर उन्हें दबोचने में क्या दिक्कतें हैं? कहीं ये बड़े स्तर की मिलीभगत तो नहीं?

आरोपी पकड़े गए ये महत्वपूर्ण नहीं, किस ताकत ने उन्हें अबतक बचाकर रखा?

ब्लैक फंगस का फर्जी इंजेक्शन बनाने और मुंबई में कैम्प लगाने वाले दोनों केस में क्या दिखता है. ब्लैक फंगस के केस में पेशे से दो डॉक्टर शामिल हैं. और फर्जी वैक्सीनेशन कैम्प का मास्टरमाइंड मलाड के मेडिकल एसोसिएशन में क्लर्क को बताया जा रहा है. दोनों मेडिकल फील्ड से थे. यानी उन्हें आसानी से फर्जीवाडा करने और उससे बचने के तरीके पता थे. फर्जीवाड़े का उन्हें अंजाम भी पता होगा. और ये कोई पहला काम नहीं होगा उनका. वो पहले भी ऐसा करते होंगे. निश्चित ही इससे पहले पकड़ में नहीं आए थे. सवाल यही है कि अगर वो पहले से ही फर्जीवाड़े के धंधे में थे तो अब तक बचे हुए कैसे थे. बेहतर संरक्षण की वजह से ही वो अबतक बचे होंगे. पता नहीं क्यों अपराध की गंभीरता और हिमाकत को देखते हुए ये मानने में मुश्किल हो रही है कि आरोपी आरोपी नेक्सस के शीर्ष पॉइंट हैं. 

ये मिलावट या सामन्य फर्जीवाड़े का मामला नहीं, नरसंहार की कोशिश है

ये कोई ऐसा मामला नहीं है जिसे दो दिन की बहस के बाद भुला दिया जाए. हैरानी है कि मुंबई जैसी जगहों में जहां इस वक्त प्रशासनिक और मेडिकल अमला सक्रिय है उसकी नजर फर्जीवाड़े पर नहीं गई. क्यों नहीं गई इसपर ज्यादा सवाल होने चाहिए. टीके के नाम पर हफ़्तों से फर्जीवाड़ा हो रहा था. और बीएमसी को भनक तक नहीं लगी. टीका लगवाने वाला तो बेफिक्र हो गया होगा कि अब वो कोरोना से लड़ने के लिए बिल्कुल तैयार है. हकीकत में आरोपियों ने बड़े पैमाने पर लोगों की हत्या जैसी कोशिश ही की. हत्या क्यों कहा जाए इसे. ये तो सीधे-सीधे नरसंहार की कोशिश हुई. देश को खोखला बनाने की कोशिश. नरसंहार की कोशिश के लिहाज से जितनी भी धाराएं आरोपियों पर लगी हैं वो नाकाफी हैं.

सरकार को कालाबाजारी रोकने के लिए ठहरकर सोचना होगा. क्या ये सही वक्त नहीं होगा कि जीवन के लिए जरूरी सेवाओं में कालाबाजारी करने वालों के मामलों के लिए अलग से कोर्ट बनाकर तेज सुनवाई की जाए. उन पर नरसंहार की कोशिशों का मुक़दमा चलाया जाए. और महीने दो महीने में ही उन्हें सजा दी जाए. अगर कालाबाजारी की बीमारी को रोकना है तो नजीर पेश करनी होगी. वर्ना कभी फैबी फ़्लू, रेमडेसविर ब्लैक में बिकेगी. कभी मेडिकल ऑक्सीजन, कभी फर्जी टीका लगाया जाएगा और कभी ब्लैक फंगस के लिए मरीजों को नकली एम्फोटेरिसिन-बी इमल्शन इंजेक्शन बेंची जाएगी. या स्टॉक करके कीमतें ही बढ़ा दी जाएंगी. इसे रोकना है तो अभी कुछ करना होगा.

इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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