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बहुत हुआ, पेरियार को लेकर मूर्ख बनाना बंद कर दीजिए अब!

    • अनुज शुक्ला
    • Updated: 17 सितम्बर, 2022 11:20 PM
  • 17 सितम्बर, 2022 11:20 PM
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पेरियार की वैचारिकी को उत्तर लाने की कोशिश हो रही है. स्टालिन की सरकार और तमाम ओबीसी चिंतक इस दिशा में कार्य करते नजर आ रहे हैं. मगर सवाल है कि क्या तमिलनाडु में पेरियार के बाद उनके अनुयायियों ने लक्ष्य हासिल कर लिया जो अब वे उत्तर की तरफ देख रहे है?

ईवी रामास्वामी पेरियार का आज जन्मदिन है. उनकी वैचारिकी को लेकर सहमत असहमत होना अलग प्रश्न है, मगर उनका काम ऐसा है जिसे खारिज नहीं किया जा सकता. पेरियार की उपलाब्धियां बेमिसाल हैं. अपने समय में पेरियार क्रांतिकारी नजर आते हैं. आधुनिक तमिलनाडु में दूर दूर तक कोई उनके कद का दूसरा कोई नहीं दिखता. ना सिर्फ तमिल राजनीति और समाज, बल्कि उन्होंने समूचे दक्षिण की वैचारिकी को हिलाकर रख दिया था. दक्षिण में हर तरफ उनका असर महसूस किया जा सकता है. हर तरफ. डॉ भीमराव आंबेडकर के बाद- सिर्फ पेरियार नजर आते हैं. हालांकि उत्तर में भी पेरियार का विचार पहुंचा है मगर एमके स्टालिन की सरकार इस दिशा में ठोस काम करना चाहती है. वह पेरियार के जरिए उत्तर और दक्षिण की राजनीति में एक पुल बनाने की कोशिश में दिखते हैं. उनकी इस योजना पर तमाम ओबीसी विद्वान नेतृत्व करते दिख रहे हैं.

वैसे भी उत्तर में सत्ता पर ओबीसी वर्चस्व कायम होने के बाद समाजवादी विचारों में लंबे समय से शून्यता और विरोधाभास दिख रहा है. शायद पेरियार के क्रांतिकारी विचार उस शून्यता को पूरा करने में सक्षम बने. ये दूसरी बात है कि बाबा साहेब के परिनिर्वाण के बाद उनकी वैचारिकी सामजिक न्याय के उसी पथ पर आगे बढ़ती दिखी है संभवत: अपने जीवन में उन्होंने जो ख्वाब देखे होंगे. मगर आज की तारीख में पेरियार के बाद उनकी वैचारिकी तमिलनाडु और उसके बाहर नाना प्रकार के विरोधाभासों और अंतर्द्वंद्व का शिकार बने देखा जा सकता है. इसका दुष्परिणाम यह हुआ है कि अब उनका विचार काम नहीं आ रहा. सामाजिक-धार्मिक-राजनीतिक वैशाखियों का सहारा लेना पड़ रहा है. आज की तारीख में नास्तिक पेरियार का इससे बड़ा दुर्भाग्य और क्या होगा कि उनकी सबसे ज्यादा वकालत करने वालों में ईसाई मिशनरी और मुसलामानों के कट्टरपंथी चेहरे भी वारिसदार और अगुआ बने नजर आते है.

ईवी रामास्वामी पेरियार का आज जन्मदिन है. उनकी वैचारिकी को लेकर सहमत असहमत होना अलग प्रश्न है, मगर उनका काम ऐसा है जिसे खारिज नहीं किया जा सकता. पेरियार की उपलाब्धियां बेमिसाल हैं. अपने समय में पेरियार क्रांतिकारी नजर आते हैं. आधुनिक तमिलनाडु में दूर दूर तक कोई उनके कद का दूसरा कोई नहीं दिखता. ना सिर्फ तमिल राजनीति और समाज, बल्कि उन्होंने समूचे दक्षिण की वैचारिकी को हिलाकर रख दिया था. दक्षिण में हर तरफ उनका असर महसूस किया जा सकता है. हर तरफ. डॉ भीमराव आंबेडकर के बाद- सिर्फ पेरियार नजर आते हैं. हालांकि उत्तर में भी पेरियार का विचार पहुंचा है मगर एमके स्टालिन की सरकार इस दिशा में ठोस काम करना चाहती है. वह पेरियार के जरिए उत्तर और दक्षिण की राजनीति में एक पुल बनाने की कोशिश में दिखते हैं. उनकी इस योजना पर तमाम ओबीसी विद्वान नेतृत्व करते दिख रहे हैं.

वैसे भी उत्तर में सत्ता पर ओबीसी वर्चस्व कायम होने के बाद समाजवादी विचारों में लंबे समय से शून्यता और विरोधाभास दिख रहा है. शायद पेरियार के क्रांतिकारी विचार उस शून्यता को पूरा करने में सक्षम बने. ये दूसरी बात है कि बाबा साहेब के परिनिर्वाण के बाद उनकी वैचारिकी सामजिक न्याय के उसी पथ पर आगे बढ़ती दिखी है संभवत: अपने जीवन में उन्होंने जो ख्वाब देखे होंगे. मगर आज की तारीख में पेरियार के बाद उनकी वैचारिकी तमिलनाडु और उसके बाहर नाना प्रकार के विरोधाभासों और अंतर्द्वंद्व का शिकार बने देखा जा सकता है. इसका दुष्परिणाम यह हुआ है कि अब उनका विचार काम नहीं आ रहा. सामाजिक-धार्मिक-राजनीतिक वैशाखियों का सहारा लेना पड़ रहा है. आज की तारीख में नास्तिक पेरियार का इससे बड़ा दुर्भाग्य और क्या होगा कि उनकी सबसे ज्यादा वकालत करने वालों में ईसाई मिशनरी और मुसलामानों के कट्टरपंथी चेहरे भी वारिसदार और अगुआ बने नजर आते है.

पेरियार पेरियार शूद्र माने जाते हैं जो अंग्रेजी जाति वर्गीकरण के हिसाब से 'ओबीसी' हैं. लेकिन वे हर तरह से संपन्न पारिवारिक पृष्ठभूमि से आते हैं. मुझे नहीं मालूम कि अंग्रेजी व्यवस्था से पहले वह असल में शूद्र ही थे या मध्य जातियों (क्षत्रीय या वैश्य) में शामिल थे. जहां तक उनके जीवनी से पता चलता है उनकी पृष्ठभूमि सामजिक आर्थिक रूप से मजबूत नजर आती है. उनके नाम पर बने संग्रहालय में भी परिवार से जुड़ी विरासत दिखती है. दीवारों पर तलवारें टंगी हैं. हो सकता है कि वे शूद्र ही रहे हों और शूद्रों के आतंरिक ढाँचे में उनकी स्थिति अन्य शूद्र जातियों से बेहतर रही हो. जैसे उत्तर की अनुसूचित जातियों में दलित और महादलित की श्रेणी है. या फिर पिछड़ी जातियों के आतंरिक ढाँचे में यादव-कोइरी-कुर्मी की तुलना में अन्य पिछड़ी जातियां के बीच जमीन आसमान का अंतर है. ब्राह्मणों की आतंरिक जाति के ढाँचे में भी बिल्कुल ऐसा ही अंतर नजर आता है.

कई का दावा है कि तमिल समाज में ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र जैसी व्यवस्था नहीं है. वैसे कुछ ओबीसी 'विद्वान' बताते हैं कि दक्षिण की द्रविड़ व्यवस्था में जाति के सर्वोच्च पायदान पर ब्राह्मण काबिज हैं. इसके बाद सब शूद्र जातियां या फिर अछूत हैं. तमिलों के समाज विज्ञान में यह सब कैसे हुआ- चूंकि लेखक तमिल समाज व्यवस्था को ठीक-ठीक नहीं जानता तो वह पेरियार की जाति को लेकर कोई निष्कर्ष स्थापित नहीं करना चाहता. लेकिन पेरियार के बहाने सोशल मीडिया पर कथित ओबीसी ज्ञानियों के विचार से कुछ सवालों को लेकर जिज्ञासा है और बेल्लौस पूछना चाहता है. पहला सवाल तो यही है कि जब द्रविड़ व्यवस्था, आर्य व्यवस्था से अलग है तो वहां किस बुनियादी जरूरत ने सिर्फ ब्राह्मणों को प्रवेश करने दिया- और जिस रास्ते द्रविड़ व्यवस्था में ब्राह्मणों का प्रवेश हो गया आखिर वह कौन पहरेदार था जिसने आर्यों की दूसरी मनुवादी जातियों (क्षत्रिय और वैश्य) को घुसने से रोक दिया?

बावजूद कि वैज्ञानिक अनुसंधानों (डीएनए जैसे विश्लेषण भी) में यह दावे के साथ पूरी तरह स्पष्ट हो चुका है कि भारत में आर्य और द्रविडियन रेस जैसी अलग-अलग चीज थी ही नहीं. भारतवंशियों का डीएनए एक है. हो सकता है कि वैज्ञानिकों ने अनुसंधानों के जो सैम्पल लिए हों उसमें घालमेल किया गया हो. या फिर दूसरी कोई साजिश हो. इस बारे में कुछ साफ़ साफ़ नहीं कहा जा सकता. दूसरा बड़ा सवाल यह है कि 'शूद्र' पेरियार के विचारों से अलग तमिलनाडु में उनके अनुयायियों की सरकार और उन्हीं के अनुयायियों के विपक्ष में बैठने के बावजूद किसी 'सेंगई' को जातिगत उत्पीड़नों का सामना क्यों करना पड़ता है? जयभीम 'सेंगई' की कहानी है और सेंगई का उद्धारक कोई पेरियार या उनके विचारों पर टिके संगठन का अनुयायी नहीं था. बल्कि वह एक वामपंथी था. समझ नहीं आता कि पेरियारवादी संगठन सेंगई के पक्ष में क्यों नहीं खड़ा हुए? जय भीम का उदाहरण ताजा है और यहां इसलिए महत्वपूर्ण हो जाती है- फिल्म का कथानक तमिलनाडु में पेरियार की विरासत पर हिमालय से भी बड़े सवाल खड़े कर देता है. क्या पेरियार के विचार कुछ दलों के लिए सत्ता पर काबिज होने का रास्ता भर था और उसके लिए सामजिक न्याय का सपना बेंचा गया.

तमिलनाडु में पेरियार के ही एक अनुयायी समूह (वन्नियार) ने जय भीम का तीखा विरोध किया था. याद ही होगा. आरोप था कि हमें गलत तरीके से चित्रित किया गया. तमिलनाडु में अभी भी जातीय उत्पीड़न की घटनाएं कम नहीं हुई हैं. जबकि एक जमाने से वहां पेरियार के कट्टर अनुयायी एकछत्र राज कर रहे हैं बारी-बारी से. क्या पेरियार के अनुयायी भी लोहिया के समाजवादी अनुयायायियों लालू यादव और नीतीश कुमार की तरह ही हैं. जो राजनीति तो समाजवाद के नाम पर करते हैं मगर दतिया के पीताम्बरा पीठ में चुपके से मुख्यमंत्री की कुर्सी पाने के लिए नाना प्रकार के तांत्रिक अनुष्ठान करवाते हैं. तो, अच्छा यह होगा कि पेरियार को तमिल से उत्तर तक लाया जाए, मगर कृपा करके तमिलनाडु के सामाजिक न्याय मॉडल का खोखला ढिंढोरा ना पीटा जाए.

कम से कम वैसे तो नहीं जैसे राहुल गांधी की भारत जोड़ो यात्रा के पहले दिन कन्याकुमारी में विवेकानंद रॉक के सामने खड़े होकर योगेंद्र यादव ने दक्षिण के सामजिक न्याय का महिमा गान किया था. माफ़ करिएगा तमिलनाडु में सामाजिक न्याय का कोई आदर्श मॉडल नहीं दिखता. उसमें कोई सुरखाब के पर नजर नहीं आते. अपनी बनावट में जैसे यूपी-बिहार में सामजिक न्याय का हश्र है तमिलनाडु भी उससे बहुत बेहतर नहीं है. वहां भी पेरियार के नाम पर मजबूत हुई राजनीति से थेवर, वन्नियार और कोंगू वेल्ललार जैसी सिर्फ तीन जातियों का दबदबा दिखता है. तीन जातियां.

जहां तक काशी में पेरियार के मंदिर में नहीं घुसने देने वाली कहानी है- उसे आंख मूंदकर पूरी तरह से फर्जी नैरेटिव ही माना जाएगा. उसे खारिज करने के लिए तर्क की जरूरत ही नहीं है. कोई सामजिक-आर्थिक आधार भी नहीं दिखता. पंडे ऐतिहासिक रूप से इतने लालची रहे हैं कि विधर्मी म्लेच्छ अकबर तक की टेंट से चढ़ावे ऐंठ लेते दिखते हैं इतिहास में तो फिर 'अमीर और संपन्न' पेरियार जैसे आसामी की दक्षिणा भला क्यों छोड़ देंगे? और वैसे भी काशी के पंडे तो घाघपने को लेकर सातवें सोपान पर बैठे सुनाई पड़ते हैं. ओबीसी विचारकों के ही नैरेटिव को लें तो पता चलता है कि काशी के पंडितों को भले दलितों से दिक्कत रही हो मगर पिछड़ों के मामले में वे ज्यादा सहिष्णु थे. अगर छत्रपति शिवाजी महाराज पिछड़े शूद्र जाति से थे तो. अब तर्क पर कैसे भरोसा किया जाए जब महाराष्ट्र के ब्राह्मणों (क्रोएशियाई या पेशवाई जो भी थे) ने शूद्र शिवाजी का राज्याभिषेक करने से मना कर दिया, काशी के ही पंडों ने उनका अभिषेक संपन्न करवाया.

बनारस में ही तमाम मराठा शूद्रों से मोटी दक्षिणा ली गई. उनके मंदिरों में दर्शन के विवरण भी हैं. ओबीसी चिंतक तो यही बताते आए हैं. मध्यकाल का समाजवादी ब्राह्मण पेरियार के समय में 'संघी' हो गया हो तो यह बात दूसरी है. और यह बात भी पचाने लायक नहीं कि अगर नास्तिक पेरियार को मंदिरों से दिक्कत है तो भला चर्चों और मस्जिदों के लिए उनकी धारणा अलग कैसे हो जाती है. क्या पेरियार के अनुयायियों को नम्बूदरीपाद इसाइयों और अशराफ मुसलमानों से दिक्कत नहीं है?

पेरियार के बहाने सामजिक न्याय की गंगा उत्तर आए इसमें कोई दिक्कत नहीं. बल्कि यह हर्ष की बात है. शायद इधर के क्षत्रियों-वैश्यों आदि का भी कल्याण हो जाए. आखिर ब्राह्मण और यादव जैसी हर लिहाज से संपन्न पिछड़ी जातियों के बीच उसी तरह सामजिक भेदभाव और मेल मिलाप है जैसा उनका ठाकुरों और वैश्यों के साथ है. ब्राह्मण के घर भोजन के बाद ठाकुर साब भी सिर्फ जातीय वजहों से अपना बर्तन खुद धोने की जिद करते हैं वैश्य भी और यादव जी भी. निश्चित ही ब्राह्मण जाति के पायदान पर वर्ण क्रम में सबसे ऊपर बैठा नजर आता है. अगर इतने आधार भर से हिमालय से लेकर अरब महासागर तक राजे रजवाड़ा पैदा करने वाला यदुवंशी समाज शूद्र (ओबीसी) हो सकता है फिर भला वैश्य या ठाकुर क्यों नहीं हो सकते? क्या दोष है उनका.

कहीं ऐसा तो नहीं कि मध्य की संपन्न जातियां सामजिक न्याय और 'बहुजन' का शिगूफा खड़ा करके सत्ता और संसाधनों पर अपने तक नियंत्रण बनाए रखना चाहती हैं. जैसे भाजपा वाले इस्लाम का हौवा खड़ा कर कई मर्तबा राजनीतिक मनमानी करते दिखते हैं. जबकि इस्लाम अलग है और अकबर से लेकर औरंगजेब तक सभी आततायी शासक अलग हैं. औरंगजेब के उत्पीड़नों की सारी पर्ची किसी नबी के ऊपर फाड़ना गलत है. ठीक इसी तरह ब्राह्मणों और पंडों के पाखंड के लिए किसी धर्म की आलोचना करना गलत है. उसे प्रचारित करना भी गलत है.

शरीर के सभी घावों पर बराबर मरहम लगाया जाना चाहिए. एक घाव पर मरहम लगाने से बाकी दूसरे घाव सूखते नहीं बल्कि वक्त के साथ ज्यादा लाइलाज बन जाते हैं. कभी-कभी जानलेवा भी.

इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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