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हम अपने बच्चों के लिए रेप और नफरत भरा समाज छोड़कर जाना चाहते हैं?

    • गुंजीत स्रा
    • Updated: 18 अप्रिल, 2018 05:19 PM
  • 18 अप्रिल, 2018 05:19 PM
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दिसंबर 2012 में पूरा देश 'भारत की बेटी' के लिए न्याय की मांगने सड़क पर उतर आया था. नतीजतन कुछ समय के लिए मामूली सफलता भी मिली. लेकिन पांच साल हम फिर से वहीं पर हैं. बल्कि इस बार और भी भयानक स्थिति में हैं.

मैं अब रेप के बारे में और नहीं लिख सकती. कुछ समय से सभी रेप मुझे मेरे व्यक्तित्व पर एक व्यक्तिगत हमले की तरह लग रहे हैं. मुझे समझ नहीं आता कि मैं ऐसे देश में रहती हूं जो अपनी महिलाओं के प्रति इतना बेपरवाह और क्रूर है. बलात्कारियों के लिए लोगों के तर्क सुनकर मैं चकित रह जाती हूं. और इस बात से भी हैरान हूं कि कैसे एक आठ साल की बच्ची के अपहरण, सामूहिक बलात्कार और उसकी हत्या को एक साम्प्रदायिक मुद्दा बना दिया गया है और अनावश्यक रूप से उसका राजनीतिकरण किया जा रहा है.

हैरान करने वाली बात ये है कि उन्नाव रेप के मामले में अभियुक्त कुलदीप सिंह सेंगर ने अभी तक अपने पद से इस्तीफा नहीं दिया है. जब मैं ये लिख रही हूं तब तक खबर है कि दो अन्य बच्चियों का रेप कर हत्या कर दी गई है. एक असम में और एक सूरत में. मुझे अच्छे से पता है अगर मैं अखबार उठा लिया तो इस तरह की और कई खबरें पता चलेंगी.

स्पष्ट हो गया है कि पिछले कुछ समय से हमारे समाज के भीतर एक विकृति अपनी जगह बनाती जा रही है और हम उस पर बात करने के लिए तैयार नहीं हैं. यह एक विकृति ही है जो हमें आठ साल की बच्ची के गैंगरेप और हत्या जैसे घिनौने मामले पर गुस्सा होने के बजाए इसे राजनीतिक एजेंडे के रुप में देख रही है. ये विकृति हमें असुविधाजनक स्थिति में अपनी नजरें फेर लेने का सबक देती है. ये विकृति हमें महिलाओं के खिलाफ होने वाले हिंसक अपराधों और उन अपराधियों का साथ देने, उनकी रक्षा करना सीखाती है. ये विकृति हमें सारी घटनाओं से मुंह फेर लेने, उन पर ध्यान न देने और ऐसे व्यवहार करना सीखाती है जैसे कुछ हुआ ही नहीं.

दिसंबर 2012 में पूरा देश "भारत की बेटी" के लिए न्याय की मांगने सड़क पर उतर आया था. नागरिकों ने विरोध प्रदर्शन किया, याचिकाओं पर हस्ताक्षर किए, बलात्कार के कानूनों में संशोधन के लिए सिफारिशें भेजी और इनका नतीजा ये हुआ कि कुछ समय के लिए मामूली सफलता भी मिली. थोड़ी देर के लिए ही सही ये जरुर महसूस हुआ कि सख्त कानून महिलाओं के खिलाफ हिंसा को रोकने में कारगर होते हैं. यह भी लगा कि...

मैं अब रेप के बारे में और नहीं लिख सकती. कुछ समय से सभी रेप मुझे मेरे व्यक्तित्व पर एक व्यक्तिगत हमले की तरह लग रहे हैं. मुझे समझ नहीं आता कि मैं ऐसे देश में रहती हूं जो अपनी महिलाओं के प्रति इतना बेपरवाह और क्रूर है. बलात्कारियों के लिए लोगों के तर्क सुनकर मैं चकित रह जाती हूं. और इस बात से भी हैरान हूं कि कैसे एक आठ साल की बच्ची के अपहरण, सामूहिक बलात्कार और उसकी हत्या को एक साम्प्रदायिक मुद्दा बना दिया गया है और अनावश्यक रूप से उसका राजनीतिकरण किया जा रहा है.

हैरान करने वाली बात ये है कि उन्नाव रेप के मामले में अभियुक्त कुलदीप सिंह सेंगर ने अभी तक अपने पद से इस्तीफा नहीं दिया है. जब मैं ये लिख रही हूं तब तक खबर है कि दो अन्य बच्चियों का रेप कर हत्या कर दी गई है. एक असम में और एक सूरत में. मुझे अच्छे से पता है अगर मैं अखबार उठा लिया तो इस तरह की और कई खबरें पता चलेंगी.

स्पष्ट हो गया है कि पिछले कुछ समय से हमारे समाज के भीतर एक विकृति अपनी जगह बनाती जा रही है और हम उस पर बात करने के लिए तैयार नहीं हैं. यह एक विकृति ही है जो हमें आठ साल की बच्ची के गैंगरेप और हत्या जैसे घिनौने मामले पर गुस्सा होने के बजाए इसे राजनीतिक एजेंडे के रुप में देख रही है. ये विकृति हमें असुविधाजनक स्थिति में अपनी नजरें फेर लेने का सबक देती है. ये विकृति हमें महिलाओं के खिलाफ होने वाले हिंसक अपराधों और उन अपराधियों का साथ देने, उनकी रक्षा करना सीखाती है. ये विकृति हमें सारी घटनाओं से मुंह फेर लेने, उन पर ध्यान न देने और ऐसे व्यवहार करना सीखाती है जैसे कुछ हुआ ही नहीं.

दिसंबर 2012 में पूरा देश "भारत की बेटी" के लिए न्याय की मांगने सड़क पर उतर आया था. नागरिकों ने विरोध प्रदर्शन किया, याचिकाओं पर हस्ताक्षर किए, बलात्कार के कानूनों में संशोधन के लिए सिफारिशें भेजी और इनका नतीजा ये हुआ कि कुछ समय के लिए मामूली सफलता भी मिली. थोड़ी देर के लिए ही सही ये जरुर महसूस हुआ कि सख्त कानून महिलाओं के खिलाफ हिंसा को रोकने में कारगर होते हैं. यह भी लगा कि एक समाज के रूप में देश ने इस विचार को खारिज कर दिया है कि एक महिला को अपने खिलाफ होने वाले हिंसक अपराधों को चुपचाप सहना चाहिए.

लेकिन फिर भी पांच साल बाद देश खुद को वापस एक मुश्किल दौर से घिरा हुआ देख रहा है. जहां एक बार फिर से उसे मुद्दे पर आवाजें उठ रही हैं तो वहीं अब इस संवाद का रुख बिल्कुल अलग है. इस मामले पर अब कोई एक साथ, एकजुट नहीं हैं, लोगों में एकता नहीं है. इसके बजाए घटना का राजनीतिकरण हो रहा है, आंकड़ों पर बातें हो रही हैं, सांप्रदायिकता और यहां तक कि जातिवाद को आधार बनाया जा रहा है. लेकिन सबसे ज्यादा विकृत ये सोच है कि अपराधियों का पक्ष लिया जा रहा है.

बच्चों को क्या देंगे ये सोचिए, धर्म या धैर्य?

प्रदेश के उन्नाव में एक नाबालिग के साथ बलात्कार करने के आरोपी विधायक को गिरफ्तार करने में पूरे एक साल का वक्त, उसके पिता की मौत, खबरों की लगातार कवरेज और जनता का दबाव, और उच्चतम न्यायालय द्वारा नोटिस की जरुरत पड़ी.

कठुआ में अपराधियों को तो गिरफ्तार कर लिया गया था. लेकिन वहां एक दूसरे ही तरह का विरोध हो रहा था. स्थानीय बार एसोसिएशन इस मामले में न्यायिक कार्यवाही को रोकने की कोशिश कर रहा था. अपराधियों के बचाने के लिए एक रैली आयोजित की गई थी और इसमें सत्तारूढ़ पार्टी (बीजेपी) के दो सांसद भी उपस्थित थे. पीड़ित के वकील और परिवार ने राज्य पुलिस से सुरक्षा की मांग की. साथ ही इस केस के सांप्रदायिक रंग लेने से बचने के लिए उन्होंने दो "तटस्थ" सिख अभियोजकों के नियुक्ति की मांग की.

जब नागरिकों ने इन बलात्कारों के विरोध में प्रदर्शन किया तो, भाजपा प्रवक्ता ने इसे "मीडिया सर्कस" कहकर नकार दिया. अपने इसी निर्दयी और संवेदनहीनता के  कारण भारत अपनी महिलाओं की नजरों में गिरता गया और वास्तव में, हम अब नियमित रूप से अपने बच्चों की नजरों में गिर रहे हैं. न्याय की मांग लगातार बढ़ रही है लेकिन हमें इन मामलों में नाबालिगों की भागीदारी पर ध्यान देना चाहिए. अपराधों में शामिल बच्चों और कठुआ रेप मामले में एक किशोर के शामिल होने की खबर डराने वाली है. वो किशोर ही था जिसने पीड़ित की हत्या की थी. वही किशोर था जिसने मेरठ में अपने दोस्त को फोन किया था.

क्यूं?

क्योंकि इस घटना का मास्टरमाइंड और उस किशोर के चाचा को पता था कि कानून उस पर सख्ती नहीं करेगा और उसके प्रति नर्म रुख रखेगा. फिर आखिर देश में कड़े कानून होने का क्या मतलब है जब हम उसके काट को खोज ही लेते हैं? इन मामलों में शामिल किशोरों के प्रति नर्म होने के बारे में क्या कहते हैं? ये जाहिर सी बात है कि महिलाओं के खिलाफ हिंसक अपराधों को अंजाम देने वाले अपराधियों द्वारा उसको दोहराने की संभावना अधिक होती है. जब तक कि वो एक मनोवैज्ञानिक उपचार न लें और सामान्य जीवन में उसे लाया जाए.

इन उपायों के बगैर वो फिर से अपनी पुरानी आदतों को दोहराएंगे. आखिर हमारा देश इस तरह के उपायों को लागू करने के लिए क्या कर रहा है?

रेप के मामले में आरोपियों को फांसी की सजा देने की मांग जोर शोर से उठ रही है. ये सही है या गलत इसपर अलग से बहस की जा सकती है. लेकिन इस तरह के मामलों के बारे में क्या जहां आरोपियों को बचाने के लिए जाति और धर्म का सहारा लिया जाता है. क्या ऐसे आरोपियों को छोड़ देना चाहिए? हम आखिर कैसे देश बन गए हैं जहां हमारी राजनीतिक और धार्मिक पहचान नैतिकता को खत्म कर देती है?

क्या आपको सच में लगता है कि उन्नाव मामले में आरोपी विधायक जिसने एक नाबालिग लड़की का रेप किया और पुलिस हिरासत में उस बच्ची के पिता की मौत के लिए जिम्मेदार है, उसे सच में सजा होगी? जब इस केस से कैमरे हट जाएंगे तब कौन इसे देखेगा?

क्या दलित लड़की और उसके परिवार को सच में न्याय मिलेगा? और इस मामले में न्याय है क्या, क्या अब वो अपने पिता को वापस पा सकेगी?

क्या अब वो अपना जीवन शांति और इज्जत से व्यतित कर पाएगी?

कठुआ मामले के बारे में क्या?

एक छोटी मासूम बच्ची का रेप और हत्या सिर्फ इसलिए कर देने पर कि आपको उसका समुदाय पसंद नहीं है क्या सजा दी जाएगी? क्या इससे उसके घर में शांति आ जाएगी? क्या इससे हमारे मन में बसे गुस्से और घृणा की भावना खत्म हो जाएगी जिससे प्रभावित होकर हम इस तरह का कदम उठाते हैं?

एक तरफ जब हम एक-दूसरे से लड़ने में व्यस्त हैं, वहीं दूसरी तरफ कुछ लोग हैं जो इस दुर्व्यवहार के शिकार हैं. हम अपने बच्चों को क्या भविष्य देंगे, अगर हम उन्हें सुरक्षित भी नहीं रख सकते? खुद से ये सवाल पूछें कि नफरत ही एकमात्र विरासत है जो आप अपने पीछे छोड़ने जा रहे हैं.

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इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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