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बहुसंख्यक हिंदू आबादी को तालिबानी सोच वाला बताने से मुस्लिमों की हालत नहीं सुधरेगी

    • देवेश त्रिपाठी
    • Updated: 06 सितम्बर, 2021 08:51 PM
  • 06 सितम्बर, 2021 08:13 PM
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जावेद अख्तर (Javed Akhtar) खुद को एक नास्तिक और अपॉलिटिकल शख्स के तौर पर लोगों के सामने पेश करते हैं. लेकिन, वो शरद पवार के यहां तीसरे मोर्चे की सुगबुगाहट वाली बैठक में भी नजर आते हैं. तो, जावेद अख्तर के इस बयान को अराजनीतिक तरीके से नहीं देखा जाना चाहिए.

अफगानिस्तान में तालिबान के सत्ता पर काबिज होने के साथ भारत में तालिबान-प्रेमियों की संख्या अचानक से बढ़ना शुरू हो गई है. बड़े-बड़े मजहबी जानकारों से लेकर मुस्लिम समुदाय का एक हिस्सा इस कट्टरपंथी इस्लामिक संगठन के समर्थन में आवाज उठाता दिख रहा है. इसे 'इस्लामोफोबिया' से लेकर भक्त, संघी आदि की संज्ञाएं बांटते हुए तमाम कुतर्कों के साथ सही साबित करने की कोशिश की जा रही है. इस बहती गंगा में जाने-माने लिरिक्स राइटर जावेद अख्तर ने भी अपने हाथ धोकर खुद को पवित्र कर लिया है. जावेद अख्तर ने तालिबान की तुलना आरएसएस से करते हुए कहा कि संघ का समर्थन करने वाले लोगों की मानसिकता भी तालिबान जैसी है. उन्होंने अपने बयान में ये भी कहा कि तालिबान का स्‍वागत करने वाले लोग भारत की मुस्लिम आबादी का छोटा सा हिस्‍सा हैं.

वैसे, जावेद अख्तर खुद को एक नास्तिक और अपॉलिटिकल शख्स के तौर पर लोगों के सामने पेश करते हैं. लेकिन, वो शरद पवार के यहां तीसरे मोर्चे की सुगबुगाहट वाली बैठक में भी नजर आते हैं. तो, जावेद अख्तर के इस बयान को अराजनीतिक तरीके से नहीं देखा जाना चाहिए. भाजपा को संघ की विचारधारा से जुड़ा हुआ कहा जाता है. तो, संघ की तुलना तालिबान के साथ करते हुए जावेद अख्तर केवल आरएसएस को कठघरे में खड़ा करने की कोशिश में नहीं थे. उन्होंने भाजपा और केंद्र की मोदी सरकार को भी तालिबानी सोच का घोषित किया है. इतना ही नहीं इस देश की उस बहुसंख्यक हिंदू आबादी को भी उन्होंने तालिबानी सोच वाला बताया है, जिसने मोदी सरकार को चुनकर संसद भेजा है. अब संघ का समर्थन करने वालों की मानसिकता तालिबान जैसी होने का सीधा सा मतलब तो यही निकलता है.

संघ की विचारधारा और उनके सिद्धांत क्या हैं? उनका भारत को हिंदू राष्ट्र बनाने का सपना क्या है? संघ की तुलना तालिबान से करना उचित है या नहीं? इन तमाम चीजों पर बात करने से ज्यादा जरूरी आज के समय में यह है कि क्या बहुसंख्यक हिंदू आबादी को तालिबानी सोच वाला बताने से मुस्लिमों की स्थिति में सुधार हो जाएगा? आमतौर पर जावेद अख्तर हर...

अफगानिस्तान में तालिबान के सत्ता पर काबिज होने के साथ भारत में तालिबान-प्रेमियों की संख्या अचानक से बढ़ना शुरू हो गई है. बड़े-बड़े मजहबी जानकारों से लेकर मुस्लिम समुदाय का एक हिस्सा इस कट्टरपंथी इस्लामिक संगठन के समर्थन में आवाज उठाता दिख रहा है. इसे 'इस्लामोफोबिया' से लेकर भक्त, संघी आदि की संज्ञाएं बांटते हुए तमाम कुतर्कों के साथ सही साबित करने की कोशिश की जा रही है. इस बहती गंगा में जाने-माने लिरिक्स राइटर जावेद अख्तर ने भी अपने हाथ धोकर खुद को पवित्र कर लिया है. जावेद अख्तर ने तालिबान की तुलना आरएसएस से करते हुए कहा कि संघ का समर्थन करने वाले लोगों की मानसिकता भी तालिबान जैसी है. उन्होंने अपने बयान में ये भी कहा कि तालिबान का स्‍वागत करने वाले लोग भारत की मुस्लिम आबादी का छोटा सा हिस्‍सा हैं.

वैसे, जावेद अख्तर खुद को एक नास्तिक और अपॉलिटिकल शख्स के तौर पर लोगों के सामने पेश करते हैं. लेकिन, वो शरद पवार के यहां तीसरे मोर्चे की सुगबुगाहट वाली बैठक में भी नजर आते हैं. तो, जावेद अख्तर के इस बयान को अराजनीतिक तरीके से नहीं देखा जाना चाहिए. भाजपा को संघ की विचारधारा से जुड़ा हुआ कहा जाता है. तो, संघ की तुलना तालिबान के साथ करते हुए जावेद अख्तर केवल आरएसएस को कठघरे में खड़ा करने की कोशिश में नहीं थे. उन्होंने भाजपा और केंद्र की मोदी सरकार को भी तालिबानी सोच का घोषित किया है. इतना ही नहीं इस देश की उस बहुसंख्यक हिंदू आबादी को भी उन्होंने तालिबानी सोच वाला बताया है, जिसने मोदी सरकार को चुनकर संसद भेजा है. अब संघ का समर्थन करने वालों की मानसिकता तालिबान जैसी होने का सीधा सा मतलब तो यही निकलता है.

संघ की विचारधारा और उनके सिद्धांत क्या हैं? उनका भारत को हिंदू राष्ट्र बनाने का सपना क्या है? संघ की तुलना तालिबान से करना उचित है या नहीं? इन तमाम चीजों पर बात करने से ज्यादा जरूरी आज के समय में यह है कि क्या बहुसंख्यक हिंदू आबादी को तालिबानी सोच वाला बताने से मुस्लिमों की स्थिति में सुधार हो जाएगा? आमतौर पर जावेद अख्तर हर विवादित मामले पर अपनी बेबाक राय के सहारे खूब सुर्खियां बटोरते हैं. वो एक समान तरीके से दोनों ओर के कट्टरपंथियों पर निशाना साधते रहते हैं. लेकिन, उनके बयानात का फायदा मुस्लिम समाज तक कहीं से भी पहुंचता नजर नहीं आता है. उलटा ऐसे बयानों से बहुसंख्यक आबादी अपने धर्म के प्रति और कट्टर होती जा रही है.

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा था कि वो चाहते हैं कि मुसलमानों के एक हाथ में कुरान और दूसरे में कंप्यूटर हो.

मार्च, 2018 में एक कार्यक्रम के दौरान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा था कि वो चाहते हैं कि मुसलमानों के एक हाथ में कुरान और दूसरे में कंप्यूटर हो. इस कार्यक्रम को तीन साल से ज्यादा का समय बीत चुका है. मोदी सरकार ने अल्पसंख्यकों के लिए वजीफे से लेकर तमाम तरह की सुविधाओं के द्वार खोले हैं. लेकिन, अभी भी भारत की आबादी का दूसरा सबसे बड़ा हिस्सा मुस्लिम वर्ग सामाजिक, आर्थिक और शैक्षिक पिछड़ेपन का शिकार है. ये बात सही है कि केवल तीन सालों में कोई बड़ा बदलाव देखने को नहीं मिल सकता है. लेकिन, छोटा सा बदलाव तो देखने को मिल ही सकता था. हालात ऐसे हैं कि आज भी हमारे देश का मुस्लिम समाज अफवाहों के पीछे भागने वाला ही बना हुआ है. सीएए विरोधी प्रदर्शनों में हुई हिंसा से ये बात साबित हो जाती है.

खुली आंखों से बिना किसी राजनीतिक चश्मे को लगाए देखा जाए तो, सामने आता है कि हिंदुत्व और राष्ट्रवाद के नाम पर मुस्लिम समाज में जहर घोलने वालों के बच्चे भारत के बड़े-बड़े कॉलेजों और विदेशों की यूनिवर्सिटीज में पढ़ाई कर खुद को समृद्ध करने में जुटे हुए हैं. लेकिन, इसी मुस्लिम समाज के निचले तबके का शख्स आज भी मदरसे की पढ़ाई से ऊपर नहीं जा पा रहा है. मुसलमानों में शिक्षा का स्तर क्या है, ये किसी से छिपा नहीं है. आधुनिक और नौकरीपरक शिक्षा की कमी को मदरसे कभी भी पूरा नहीं कर सकते हैं. वहीं, मुस्लिम समाज में शिक्षा को बीच में छोड़ देने वालों की तादात भी काफी ज्यादा है. पैगम्बर हजरत मोहम्मद साहब ने कहा था कि एक बच्ची को पढ़ाने का मतलब एक खानदान और एक पूरी नस्ल को पढ़ाना है. लेकिन, मुस्लिम समाज में लड़कियों की शिक्षा के प्रति बेरुखी का आलम सबे सामने है.

तालिबान ने अफगानिस्तान में बच्चियों के स्कूल जाने पर पाबंदी लगा दी है. तालिबान राज में पहले महिलाओं के अधिकारों की क्या स्थितियां थीं और अब क्या हैं, ये सबके सामने हैं. लेकिन, भारत में ऐसा नहीं है. सरकारें कोई भी रही हों, देश के हर नागरिक के अधिकार समान रहे हैं. कांग्रेस नेतृत्व वाली यूपीए सरकार ने 2005 में सच्चर कमेटी का गठन किया था. सच्चर कमेटी की रिपोर्ट में कहा गया था कि भारत के मुसलमानों में वंचित होने की भावना काफी आम है. इतना समय बीत जाने के बाद भी देश में मुसलमानों के सामाजिक, आर्थिक और शैक्षिक पिछड़ेपन के हालत बद से बदतर ही हुए हैं. इसे देखकर इतना तो कहा ही जा सकता है कि वंचित होने की भावना के साथ खुद को मुख्यधारा से जोड़ने की कोशिश नहीं करने के लिए आरएसएस तो जिम्मेदार नहीं है. उलटा लंबे समय से आरएसएस मुस्लिम समाज को राष्ट्रवाद के जरिये देश को हर तरह से मजबूत करने की बात ही करता रहा है. अपने धार्मिक पूर्वाग्रहों का दोष आप देश की बहुसंख्यक आबादी पर मढ़ते रहेंगे, तो मुस्लिमों की स्थिति में सुधार आना नामुमकिन होगा.

इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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