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हमारे देश का राष्ट्रवाद पश्चिमी देशों से कितना अलग है?

    • लोकेन्द्र सिंह राजपूत
    • Updated: 30 नवम्बर, 2022 08:41 PM
  • 30 नवम्बर, 2022 08:34 PM
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Nationalism and Politics in India: भारत का राष्ट्रवाद दुनिया के दूसरे देशों के राष्ट्रवाद से अलग है. पश्चिम का राष्ट्रवाद बहुत नया है और यह राजनीति पर केंद्रित है. जबकि भारत का राष्ट्रवाद सनातन है और यह राजनीति पर नहीं, बल्कि संस्कृति केंद्रित है.

विश्व में भारत राष्ट्र की पहचान उसकी संस्कृति से रही है. संस्कृति भारत की आत्मा है. भारत की एकता का मुख्य आधार भी संस्कृति ही है. इसलिए भारत का राष्ट्रवाद दुनिया के दूसरे देशों के राष्ट्रवाद से अलग है. पश्चिम का राष्ट्रवाद बहुत नया है और यह राजनीति पर केंद्रित है. जबकि भारत का राष्ट्रवाद सनातन है और यह राजनीति पर नहीं, बल्कि संस्कृति केंद्रित है. हमें इसके प्रमाण संस्कृत साहित्य और अन्य क्षेत्रीय भाषाओं के साहित्य में भी मिलते हैं.

सच्चाई तो यह है कि जब इंग्लैंड में नेशन, नेशनलिज्म और नेशनलटी जैसे शब्द प्रयोग में आना शुरू हुए, उसके कई शताब्दियों पहले संस्कृत वैदिक साहित्य में 'राष्ट्र' शब्द की अभिव्यक्ति हुई और यह यदा-कदा इस्तेमाल नहीं किया गया, बल्कि सैकड़ों वैदिक ऋचाओं में राष्ट्र शब्द का उल्लेख मिलता है. ऐतिहासिक रूप से देखें तो यूरोप में तीन-चार सौ वर्ष पूर्व एक प्रतिक्रियावादी और संघर्ष-पूर्ण अवधारणा के रूप में राष्ट्रवाद आया, जबकि भारत में यह न केवल कई सदियों पूर्व से है, वरन एक सहकारी और रचनात्मक अवधारणा है. स्पष्टत: पश्चिम का राष्ट्रवाद राजनीतिक है, जबकि भारत का सांस्कृतिक है.

भारत जब अलग-अलग जनपदों में बंटा था, अलग-अलग राजाओं के राज्य थे, तब भी दुनिया में हमारे देश की पहचान अलग-अलग राज्यों के रूप में नहीं, बल्कि 'एक संस्कृति' के आधार पर 'एक राष्ट्र भारत' के रूप में रही. यह जो एक संस्कृति है, भाषा, खान-पान और रहन-सहन की विविधता के बावजूद भारत को एकता के सूत्र में पिरोती है. इसलिए 'भारत की अवधारण' में भरोसा करने वाले विद्वान भारत के राष्ट्रवाद को 'सांस्कृतिक राष्ट्रवाद' या 'सांस्कृतिक राष्ट्रत्व' कहते हैं.

राष्ट्रवाद की जगह राष्ट्रत्व अधिक उपयुक्त शब्द है. किसी भी अवधारणा या विचार के साथ जब 'इज्म' अर्थात् 'वाद' जुड़ जाता है, तब वह एक...

विश्व में भारत राष्ट्र की पहचान उसकी संस्कृति से रही है. संस्कृति भारत की आत्मा है. भारत की एकता का मुख्य आधार भी संस्कृति ही है. इसलिए भारत का राष्ट्रवाद दुनिया के दूसरे देशों के राष्ट्रवाद से अलग है. पश्चिम का राष्ट्रवाद बहुत नया है और यह राजनीति पर केंद्रित है. जबकि भारत का राष्ट्रवाद सनातन है और यह राजनीति पर नहीं, बल्कि संस्कृति केंद्रित है. हमें इसके प्रमाण संस्कृत साहित्य और अन्य क्षेत्रीय भाषाओं के साहित्य में भी मिलते हैं.

सच्चाई तो यह है कि जब इंग्लैंड में नेशन, नेशनलिज्म और नेशनलटी जैसे शब्द प्रयोग में आना शुरू हुए, उसके कई शताब्दियों पहले संस्कृत वैदिक साहित्य में 'राष्ट्र' शब्द की अभिव्यक्ति हुई और यह यदा-कदा इस्तेमाल नहीं किया गया, बल्कि सैकड़ों वैदिक ऋचाओं में राष्ट्र शब्द का उल्लेख मिलता है. ऐतिहासिक रूप से देखें तो यूरोप में तीन-चार सौ वर्ष पूर्व एक प्रतिक्रियावादी और संघर्ष-पूर्ण अवधारणा के रूप में राष्ट्रवाद आया, जबकि भारत में यह न केवल कई सदियों पूर्व से है, वरन एक सहकारी और रचनात्मक अवधारणा है. स्पष्टत: पश्चिम का राष्ट्रवाद राजनीतिक है, जबकि भारत का सांस्कृतिक है.

भारत जब अलग-अलग जनपदों में बंटा था, अलग-अलग राजाओं के राज्य थे, तब भी दुनिया में हमारे देश की पहचान अलग-अलग राज्यों के रूप में नहीं, बल्कि 'एक संस्कृति' के आधार पर 'एक राष्ट्र भारत' के रूप में रही. यह जो एक संस्कृति है, भाषा, खान-पान और रहन-सहन की विविधता के बावजूद भारत को एकता के सूत्र में पिरोती है. इसलिए 'भारत की अवधारण' में भरोसा करने वाले विद्वान भारत के राष्ट्रवाद को 'सांस्कृतिक राष्ट्रवाद' या 'सांस्कृतिक राष्ट्रत्व' कहते हैं.

राष्ट्रवाद की जगह राष्ट्रत्व अधिक उपयुक्त शब्द है. किसी भी अवधारणा या विचार के साथ जब 'इज्म' अर्थात् 'वाद' जुड़ जाता है, तब वह एक निश्चित दायरे में बंध जाता है. उसका स्वरूप संकीर्ण हो जाता है. जबकि तत्व के साथ यह समस्या नहीं है. तत्व मूल है. वह विचार के विकास में सहायक है, बाधक नहीं. इसलिए भारत के राष्ट्रत्व को जर्मनी के राष्ट्रवाद के समकक्ष रखा जाना सर्वथा अनुचित है. भारत की एकता एवं अखण्डता के लिए सांस्कृतिक राष्ट्रत्व आवश्यक है. जब तक हमारे मन में राष्ट्रत्व का भाव जाग्रत है, तब तक 'ब्रेकिंग इंडिया बिग्रेड' भारत को तोड़ नहीं सकतीं.

अपनी संस्कृति पर गर्व का भाव मर जाए इसलिए ही भारत विरोधी मानसिकता के बुद्धिजीवी सांस्कृतिक राष्ट्रत्व को वर्षों से पश्चिम के राष्ट्रवाद के समकक्ष रख कर कन्याकुमारी से कश्मीर तक सामान्य जनों के बीच बने एकात्म भाव को कमजोर करने का षड्यंत्र रचते रहे हैं. कम्युनिस्ट विचारधारा के राजनीतिक कार्यकर्ता एक संस्कृति के विचार को नकार कर बहुलतावादी संस्कृति के पक्षधर बनते हैं. अपनी बहुलतावादी संस्कृति के विचार को आगे बढ़ाने के प्रयास में उन्होंने उस भारत में भाषा, जाति और निवास के आधार पर भयंकर झगड़े खड़े कर दिए, जिस भारत में सभी प्रकार की विविधताएं सहकारिता भाव के साथ सुखपूर्वक रह रहीं थीं.

भारत के राजनीतिक और सामाजिक संकटों का समाधान पाना है तो उसका एक ही रास्ता है, सांस्कृतिक राष्ट्रत्व की भावना को मजबूत करना और उसका अनुपालन करना. भारत की संस्कृति को कमजोर करने और उसे समाप्त करने के लिए विभिन्न राजनीतिक विचारधाराएं षड्यंत्र करती रहती हैं. खासकर, यह राजनीतिक ताकतें भारत की मूल संस्कृति के विरुद्ध नयी अवधारणाएं खड़ी करती हैं. ऐसी अवधारणाएं, जिनसे भारत के सामान्य व्यक्ति के मन में अपनी सनातक संस्कृति के प्रति नकारात्मक भाव घर कर जाए. पंडित दीनदयाल उपाध्याय ने 'सांस्कृतिक राष्ट्रवाद: भारतीयता की अभिव्यक्ति' शीर्षक से लिखे अपने लेख में इस षड्यंत्र की ओर संकेत किया है, बल्कि यह कहना उचित होगा कि भारतीयता के विरुद्ध हो रही साजिश को उन्होंने उजागर किया है.

उन्होंने लिखा है, ''भारत में एक ही संस्कृति रह सकती है; एक से अधिक संस्कृतियों का नारा देश के टुकड़े-टुकड़े कर हमारे जीवन का विनाश कर देगा. अत: मुस्लिम लीग का द्वि-संस्कृतिवाद, कांग्रेस का प्रच्छन्न द्वि-संस्कृतिवाद और साम्यवादियों का बहु-संस्कृतिवाद नहीं चल सकता. आज तक एक-संस्कृतिवाद को सम्प्रदायवाद कहकर ठुकराया गया किन्तु अब कांग्रेस के विद्वान भी अपनी गलती समझकर एक-संस्कृतिवाद को अपना रहे हैं. इसी भावना और विचार से भारत की एकता तथा अखण्डता बनी रह सकती है, तभी हम अपनी सम्पूर्ण समस्याओं को सुलझा सकते हैं.''

स्पष्ट होता है कि लाखों वर्षों से जो एक संस्कृति हमको जोड़े रखे रही, वह संस्कृति ही हमें आज की समस्याओं के समाधान दे सकी है. इसलिए जो राजनीतिक धाराएं एक-संस्कृतिवाद का विरोध करती हैं, उनके बरक्स एक-संस्कृतिवाद का समर्थन करने वाली राजनीति को मजबूत करना होगा. भारत इसी रास्ते पर चलकर आगे पहुंच सकता है.

इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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