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साम्यवाद की बकलोली कर कांवड़ियों को घेरने वाले समझ लें, कांवड़ उठाने के लिए भरपूर गूदा चाहिए!

    • सिद्धार्थ अरोड़ा सहर
    • Updated: 02 अगस्त, 2022 08:35 PM
  • 02 अगस्त, 2022 08:35 PM
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साम्यवाद की बकलोली करने वाले कितनी जल्दी ये जता देते हैं कि मजदूर होना लानत है.अफसरशाही को कोसने वाले, वही बनने की बात कहते भी हैं तो किस तर्क से? एक आदमी जो कांवड़ में 120 किलो गंगाजल लेकर आया है, ये इसका गूदा है भई! और किसको पता कि ये पढ़ा लिखा नहीं है? क्या पढ़ाई लिखाई का ये मतलब है कि आदमी की लिमिट्स क्रॉस करने की कैपेबिलिटी खत्म हो जाए?

सबकी अपनी अपनी क्षमता होती है. दिल्ली में मेरठ और वेस्ट यूपी के बहुत लोग रहते हैं, वो इसे अपने लोकल लिंगो में ‘गूदा’ कहते हैं. कि सबका अपना अपना गूदा होता है. मेरा एक दूर का दोस्त है, उससे कम ही बात होती है क्योंकि वो सॉफ्टवेयर इंजीनियर है. जहां मैं हर डेढ़ दो घंटे बाद लैपटॉप किनारे रखकर वाक करने निकल जाता हूं, वहीं वो रोबो-कॉप 15-16 घंटे तक एक ही पोज़िशन में बैठकर कोडिंग करता रहता है. अपनी अपनी क्षमता है, अपना-अपना गूदा! लेकिन इंसानी फितरत है अपनी बाउन्ड्री, अपनी लिमिट्स को तोड़ने की कोशिश करते रहना. मेरा एक जिगरी दोस्त है, वो जम के दारू पीता है. हाफ के बिना तो कहो उसे नशा न हो. लेकिन उसने एक बार अपनी क्षमता चेक करने के लिए, पूरी बोतल दारू पी ली. सूअर की तरह लुढ़का पड़ा मिला, वो अलग बात है. इसी तरह वो दूर का सॉफ्टवेयर वाला दोस्त, वो पूरी रात पार्टी करने के बाद, सुबह 8 बजे से फिर कोडिंग करने बैठ गया. लाखों में कमाता है, लेकिन फिर भी जुनून है कि आराम नहीं करना. गूदा है, काम करना है.

आलोचना करने वाले इस बात को गांठ बांध लें कांवड़ उठाना कोई मजाक नहीं है

वो अलग बात है कि उसे 500 मीटर मेट्रो तक चलने के लिए कह दो तो ऑनलाइन ऑटो/कैब बुला लेता है. ऐसे ही जब हम पहली बार घर से आगरा, जो कोई 210 किलोमीटर है, बाइक से गए थे तब लगा था ये बहुत लंबा रास्ता है. बम चिपक गए, तेल निकल गया, धूल में सने थे कि बारिश हो गई, मिट्टी का पकौड़ा बन गए भई. अब नहीं जाना,दैट्स इट, गूदा चेक! लेकिन नहीं, अगली बार मैं 300 किलोमीटर देहरादून मसूरी की ट्रिप मारकर आया! उसी नन्हे से 110 सीसी इंजन से! बाइक और मेरी, दोनों की क्षमता चेक हो गई! बाउन्ड्रीज़ थोड़ी और खिसका दी गईं.

इसके बाद भी मन नहीं भरा तो करीब 400 किलोमीटर शिमला और अन्नी (हिमाचल) की ट्रिप पर...

सबकी अपनी अपनी क्षमता होती है. दिल्ली में मेरठ और वेस्ट यूपी के बहुत लोग रहते हैं, वो इसे अपने लोकल लिंगो में ‘गूदा’ कहते हैं. कि सबका अपना अपना गूदा होता है. मेरा एक दूर का दोस्त है, उससे कम ही बात होती है क्योंकि वो सॉफ्टवेयर इंजीनियर है. जहां मैं हर डेढ़ दो घंटे बाद लैपटॉप किनारे रखकर वाक करने निकल जाता हूं, वहीं वो रोबो-कॉप 15-16 घंटे तक एक ही पोज़िशन में बैठकर कोडिंग करता रहता है. अपनी अपनी क्षमता है, अपना-अपना गूदा! लेकिन इंसानी फितरत है अपनी बाउन्ड्री, अपनी लिमिट्स को तोड़ने की कोशिश करते रहना. मेरा एक जिगरी दोस्त है, वो जम के दारू पीता है. हाफ के बिना तो कहो उसे नशा न हो. लेकिन उसने एक बार अपनी क्षमता चेक करने के लिए, पूरी बोतल दारू पी ली. सूअर की तरह लुढ़का पड़ा मिला, वो अलग बात है. इसी तरह वो दूर का सॉफ्टवेयर वाला दोस्त, वो पूरी रात पार्टी करने के बाद, सुबह 8 बजे से फिर कोडिंग करने बैठ गया. लाखों में कमाता है, लेकिन फिर भी जुनून है कि आराम नहीं करना. गूदा है, काम करना है.

आलोचना करने वाले इस बात को गांठ बांध लें कांवड़ उठाना कोई मजाक नहीं है

वो अलग बात है कि उसे 500 मीटर मेट्रो तक चलने के लिए कह दो तो ऑनलाइन ऑटो/कैब बुला लेता है. ऐसे ही जब हम पहली बार घर से आगरा, जो कोई 210 किलोमीटर है, बाइक से गए थे तब लगा था ये बहुत लंबा रास्ता है. बम चिपक गए, तेल निकल गया, धूल में सने थे कि बारिश हो गई, मिट्टी का पकौड़ा बन गए भई. अब नहीं जाना,दैट्स इट, गूदा चेक! लेकिन नहीं, अगली बार मैं 300 किलोमीटर देहरादून मसूरी की ट्रिप मारकर आया! उसी नन्हे से 110 सीसी इंजन से! बाइक और मेरी, दोनों की क्षमता चेक हो गई! बाउन्ड्रीज़ थोड़ी और खिसका दी गईं.

इसके बाद भी मन नहीं भरा तो करीब 400 किलोमीटर शिमला और अन्नी (हिमाचल) की ट्रिप पर निकल गया. इस बार 40 किलो तो सामान ही बंधा था. लौटते में लैपटॉप की लंका भी लगा दी! पर पता चला, कितना गूदा है! कितना दम है मुझमें और बाइक में. वो इंसान ही क्या जो अपने ब्रेकिंग पॉइंट को इक्स्टेन्ड न करे! जैसा की ऊपर लिखा, अपना-अपना गूदा है! मैं बाइक पर सहज हूं, कोई लैपटॉप चलाने में सहज है, कोई पेग खींचने में!

इसमें लॉजिक की उंगली करनी ही क्यों है? लेकिन नहीं! शिवरात्रि निकलने के 3 दिन बाद तक पोस्ट मैसेज मिल रहे हैं कि क्या मिलता हैं इन सनकियों को कांवड़ उठाकर? क्यों पैदल जाना इतनी दूर? क्यों वजन लेकर पागलों की तरह आना? क्यों करना पाखंड? पाखंड! एक वीडियो में दर्शाया गया कि एक बच्चा कांवड़ लेने निकला, दूसरा पढ़ाई करता रहा! जो पढ़ाई कर रहा था वो IAS बन गया, जो काँवड़ लेकर निकला वो बड़े होकर मजदूर बन गया! अब आप बताओ आपको IAS बनना है या मजदूर?

सीरीअसली? साम्यवाद की बकलोली करने वाले कितनी जल्दी ये जता देते हैं कि मजदूर होना लानत है. अफसरशाही को कोसने वाले, वही बनने की बात कहते भी हैं तो किस तर्क से? एक आदमी जो कांवड़ में 120 किलो गंगाजल लेकर आया है! ये इसका गूदा है भई! और किसको पता कि ये पढ़ा लिखा नहीं है? क्या पढ़ाई लिखाई का ये मतलब है कि आदमी की लिमिट्स क्रॉस करने की कैपेबिलिटी खत्म हो जाए? ऐसी पढ़ाई 200 साल से हो रही है देश में, और 200 सालों में कितनी इन्वेंशन की हमने, ये किसी से छुपा नहीं है.

गांजे-चरस-हल्ला-गुल्ला-डीजे आदि वाले 5% कांवड़िये ही सबको नज़र आते हैं? ऐसे ही कोई सिर्फ उन्हीं IAS अधिकारियों को उदाहरण बना ले जो घूस लेते पकड़े गए हैं तो ये जायज़ होगा? मैं भले ही कभी कांवड़ लेने नहीं गया! उम्मीद भी नहीं कि कभी जाऊं! लेकिन हर शिवभक्त के लिए मेरे मन में बहुत इज़्ज़त है. कोई एक हफ्ता ट्रैफिक जाम की दिक्कत होती है, रास्ता बदल लेता हूं पर कोसता नहीं हूं कि ये ऐसा क्यों कर रहे वो वैसा क्यों कर रहा है?

इस दुनिया में सबकुछ आपके तर्क की कसौटी पर खरा नहीं उतर सकता! अत्यधिक तर्क दिमाग को संकीर्ण कर देता है. बल्कि मुझे कई बार रास्ते में बार-बार दंडवत करते भक्त दिख जाते हैं तो उनके आगे नतमस्तक होता हूं कि जहां हम ढीले-ढाले लोग 5 किलोमीटर सीधे पैदल चलने में हांफने लगते हैं, ये मानुष 200 किलोमीटर बार-बार दंडवत करता हुआ जाने वाला है.

सोचिए उसका पैशेन्स लेवल, उसकी एकाग्रता! उसका ध्यान-चित्त! यहां मैंने गाड़ी वालों को 2 मिनट के लिए रुके ट्रैफिक में गाली गलौच करते देखा है. भला गाड़ी में बैठा आदमी कितना लेट हो जायेगा पहुंचने में? सोचिए, तर्क को कहीं किनारे रख के सोचेंगे तो उस शिव-भक्त की असीम शक्ति का अंदाज़ा होगा. ऐसे भक्तों के सामने, ऐसी क्षमता के सामने, इस लेवल के गूदे के सामने मैं नतमस्तक होता हूं.

इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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