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योगी आदित्यनाथ लाख कह दें यूपी में 'सब चंगा सी, मगर लाशों का हिसाब तो देना होगा!

    • बिलाल एम जाफ़री
    • Updated: 02 मई, 2021 07:15 PM
  • 02 मई, 2021 07:15 PM
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कोरोना की दूसरी वेव के आने और स्थिति गंभीर होने के बाद उत्तर प्रदेश सरकार और मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ कितने ही बड़े दावे क्यों न कर लें लेकिन जो सच्चाई है वो दिल को दहला कर रख देने वाली है. चाहे वो लखनऊ और वाराणसी हो या फिर कानपुर और प्रयागराज न तो लोगों को ऑक्सीजन और दवाइयां ही मिल पा रही हैं न ही भर्ती होने के लिए बेड.

बीते 12-15 दिन ज़िंदगी की डायरी में एक बेहद बुरे दौर के रूप में दर्ज हो चुके हैं. जब तक जीवन है ये दिन याद आएंगे और अवश्य ही बताएंगे कि किसी भी महामारी के दौरान असल चुनौतियां होती क्या हैं? ज़िंदगी कितनी कीमती है. मौत कितनी खौफ़नाक है. वाक़ई समझ नहीं आ रहा कि शुरू कहां से करूं? ऐसा इसलिए क्योंकि जो किस्सा सबका है, वही अपना भी है. परिवार के लोगों के कोविड पॉजिटिव आने और फिर पहले ऑक्सीजन फिर बेड और इलाज न मिल पाने ने बता दिया है कि बंगाल में रैलियां करते प्रधानमंत्री न्यू इंडिया और विकास की कितनी ही बातें क्यों न कर लें, लेकिन जमीनी सच्चाई यही है कि एक देश के रूप में भारत को विकासशील से विकसित होने में अभी लंबा वक्त लगेगा. कहने बताने और सुनने को बातें तमाम हैं. लेकिन उन्हें समझने के लिए मैं आपको 7 साल पीछे उस दौर में ले जाना चाहता हूं जब प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार के रूप में मैंने और मुझ जैसे तमाम लोगों ने न केवल नरेंद्र मोदी को देखा. बल्कि उनकी देश हित और बदलाव से लबरेज बातें सुनी. लगा कि इस आदमी में विजन है और शायद यही वो शख्स है जो देश को आगे ले जा सकता है.

कोविड की इस दूसरी वेव में सबसे बुरे हालात उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ के हैं

2014 के आम चुनाव हुए, देश ने कांग्रेस पार्टी और उसकी नीतियों को सिरे से खारिज किया और देश के प्रधानमंत्री के रूप में हमने नरेंद्र मोदी को देखा. 2014 से 2019 तक तमाम आरोप और प्रत्यारोपों के बीच पांच साल बीते. 2019 के मुद्दे अलग थे मगर देश ने पिछली बातों को भूलकर पुनः नरेंद्र मोदी को मौका दिया और उन्होंने दोबारा प्रधानमंत्री की शपथ ली. 19 के बाद जब साल 2020 आया. लोगों ने हर बार की तरह पूरे हर्ष और उल्लास के साथ नए साल का स्वागत किया मगर किसे पता था कि 2020 न केवल भारत बल्कि पूरी दुनिया के...

बीते 12-15 दिन ज़िंदगी की डायरी में एक बेहद बुरे दौर के रूप में दर्ज हो चुके हैं. जब तक जीवन है ये दिन याद आएंगे और अवश्य ही बताएंगे कि किसी भी महामारी के दौरान असल चुनौतियां होती क्या हैं? ज़िंदगी कितनी कीमती है. मौत कितनी खौफ़नाक है. वाक़ई समझ नहीं आ रहा कि शुरू कहां से करूं? ऐसा इसलिए क्योंकि जो किस्सा सबका है, वही अपना भी है. परिवार के लोगों के कोविड पॉजिटिव आने और फिर पहले ऑक्सीजन फिर बेड और इलाज न मिल पाने ने बता दिया है कि बंगाल में रैलियां करते प्रधानमंत्री न्यू इंडिया और विकास की कितनी ही बातें क्यों न कर लें, लेकिन जमीनी सच्चाई यही है कि एक देश के रूप में भारत को विकासशील से विकसित होने में अभी लंबा वक्त लगेगा. कहने बताने और सुनने को बातें तमाम हैं. लेकिन उन्हें समझने के लिए मैं आपको 7 साल पीछे उस दौर में ले जाना चाहता हूं जब प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार के रूप में मैंने और मुझ जैसे तमाम लोगों ने न केवल नरेंद्र मोदी को देखा. बल्कि उनकी देश हित और बदलाव से लबरेज बातें सुनी. लगा कि इस आदमी में विजन है और शायद यही वो शख्स है जो देश को आगे ले जा सकता है.

कोविड की इस दूसरी वेव में सबसे बुरे हालात उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ के हैं

2014 के आम चुनाव हुए, देश ने कांग्रेस पार्टी और उसकी नीतियों को सिरे से खारिज किया और देश के प्रधानमंत्री के रूप में हमने नरेंद्र मोदी को देखा. 2014 से 2019 तक तमाम आरोप और प्रत्यारोपों के बीच पांच साल बीते. 2019 के मुद्दे अलग थे मगर देश ने पिछली बातों को भूलकर पुनः नरेंद्र मोदी को मौका दिया और उन्होंने दोबारा प्रधानमंत्री की शपथ ली. 19 के बाद जब साल 2020 आया. लोगों ने हर बार की तरह पूरे हर्ष और उल्लास के साथ नए साल का स्वागत किया मगर किसे पता था कि 2020 न केवल भारत बल्कि पूरी दुनिया के लिए एक मनहूस साल होगा.

जनवरी 2020 में भारत में कोरोना वायरस का पहला मामला केरल से आया. पहली मौत देश की राजधानी दिल्ली के जनकपुरी में हुई. मार्च में पहले जनता कर्फ्यू फिर सम्पूर्ण लॉक डाउन लगा. इन सबके बीच देश ने कई मंजर भी देखे जिसमें अगर जनता के थाली बजाने और दिए जलाने की चर्चा होगी तो वहीं जिक्र कई सौ किलोमीटर पैदल चल अपने घर पहुंचने वाले प्रवासी मजदूरों का भी होगा. साथ ही चर्चा उन कुकिंग स्किल्स की भी होगी जिसमें यूट्यूब की बदौलत देश का हर वो नागरिक जो कोरोना वायरस से बचा वो शेफ था.

साल 2020 कैसे गुजरा किसी से छिपा नहीं है. अच्छा चूंकि सरकार और पीएम मोदी खुद इस बात को पहले ही कह चुके थे कि अब हमें कोरोना के साथ ही जीना है. तो देश को लगा चीजें नार्मल हो गईं हैं. 2021 आते आते सरकार की रजामंदी के बाद देश में तमाम लॉक्ड चीजों को अनलॉक कर दिया गया. वो बाजार, शॉपिंग काम्प्लेक्स, मॉल, रेस्टुरेंट जो कोरोना के खौफ में ज़िंदगी जी रहे थे पुनः गुलजार हुए. बाजारों में वो रौनक लौटी जिसे देखने के लिए न जाने कितनों की आंखें तरस गयीं थीं.

 लखनऊ में कोविड की दूसरी वेव को लेकर जो तैयारियां हुईं उसके नतीजे दिल दहला देने वाले हैं

जैसा हम भारतीयों का स्वभाव है हमने छूट के बाद खूब मौजमस्ती की और नतीजा है कोरोना की दूसरी लहर, जो पूर्व के मुकाबले कहीं ज्यादा विकराल, कहीं अधिक निर्मम/ निष्ठुर और जानलेवा है. अभी आप देश में कहीं भी चले जाइये लोग त्राहि त्राहि कर रहे हैं और इससे भी ज्यादा दुर्भाग्यपूर्ण ये है कि हमें अपने नेताओं, चाहे वो देश के प्रधानमंत्री हों या फिर अलग अलग सूबों के मुख्यमंत्री ट्विटर पर सबसे झूठे आश्वासन मिल रहे हैं.

ट्विटर पर नेता यही कह रहे हैं 'situation is under control'

जैसे पेचीदा हालात हैं. हमारे लिए ये कहना अतिश्योक्ति नहीं है कि भले ही वास्तव में कुछ भी ठीक न हो. लेकिन उधर ट्विटर पर अपने ट्वीट्स के जरिये नेताओं ने बता दिया है कि देश में सब कुछ ठीक है और कोई भी मरीज इलाज के आभाव में नहीं मरेगा. मगर क्या ऐसा है? क्या यही सच्चाई है? क्या देश में सब ठीक है? क्या इन मुश्किल हालात में सभी को दवा, ऑक्सीजन, बेड मुहैया हो पा रही है?

मैं कहीं और का तो नहीं जानता लेकिन उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ में ऐसा बिल्कुल नहीं हो रहा. लखनऊ में लोग मर रहे हैं और ट्विटर पर सब कुछ ओके बताने वाले सूबे के मुखिया इस मुश्किल वक़्त में हाथ पर हाथ धरे बैठे हैं.

सिस्टम की कमियां गिनाना सरकार के ख़िलाफ़ प्रोपोगेंडा नहीं.

बात आगे बढ़ाने से पहले ये बताना बेहद जरूरी है कि इस लेख का उद्देश्य भाजपा के खिलाफ प्रोपेगेंडा फैलाना और यूपी के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के खिलाफ एजेंडा चलाना नहीं है. उद्देश्य उस हकीकत को बताना है जहां अस्पताल के आईसीयू में भर्ती सिर्फ इस लिए मर जाता है क्योंकि वहां ऑक्सीजन ख़त्म हो गयी है और उसके बूढ़े मां बाप कोई 100 किलो का जंबो ऑक्सीजन सिलिंडर अपने कंधों पर ढो नहीं सकते.

या फिर वो स्थिति कि मरीज सड़क पर सिर्फ इसलिए जान दे देता है कि जिस एम्बुलेंस को मरीज लेकर इंदिरानगर से मेडिकल कॉलेज पहुंचना था उसका ड्राइवर उतने पैसे मांग लेता है जिसे देना एक गरीब के बस की बात नहीं है.

जैसा कि ऊपर बता दिया गया है कहने बताने और सुनने को बहुत कुछ है तो जान लीजिए चाहे वो राजधानी लखनऊ का भैंसाकुण्ड और गुलालाघाट हो या फिर ऐशबाग और नक्खास के कब्रिस्तान इतनी लाशें हैं शहर में कि उन्हें देखकर शायद पत्थर भी पिघल कर मोम हो जाएं.

ये अपने में दुर्भाग्यपूर्ण है कि चाहे वो शमशान हों या कब्रिस्तान सब लाशों से पटे पड़े हैं

लखनऊ उत्तर प्रदेश की राजधानी है जैसी हालत शहर की है कहीं तीमारदार अपने मरीज के लिए बेड, ऑक्सीजन और जरूरी दवाइयां खोज रहा है. तो कहीं शमशान और कब्रिस्तान के बाहर टोकन पकड़े आदमी इस इंतजार में है कि जल्दी से उस बॉडी का अंतिम संस्कार हो जाए जिसे लेकर वो वहां आया है.

भले ही शासनादेश में लखनऊ के लोगों को बेड और ऑक्सीजन भरपूर मिल रही हो लेकिन चाहे सरकारी हों या गैर सरकारी किसी भी अस्पताल का रुख कर लीजिए हकीकत और रोते, बिलखते, गिड़गिड़ाते परिजन आपके सामने होंगे. जिनको किसी जुआड़ से बेड मिल गया उनकी किस्मत वरना आम आदमी तो पैदा ही हुआ है अस्पतालों के बाहर तड़प के मरने के लिए.

ये कितना शर्मनाक है कि हमने तमाम लोगों को सिर्फ इस लिए खो दिया क्योंकि उनको ज़रूरी मदद नहीं मिल पाई

साल 2020 में पीएम मोदी की 'आपदा में अवसर' वाली बात कोरी लफ़्फ़ाज़ी नहीं

आगे मैं आपको बहुत कुछ बताऊंगा मगर उससे पहले मैं एक बार फिर देश के प्रधानमंत्री और 2020 में राष्ट्र के नाम संबोधन में उनके द्वारा बताई दो बातों का जिक्र करूंगा. 2020 में राष्ट्र को संदेश देते हुए पीएम ने आत्मनिर्भर होने और आपदा में अवसर की बातें कही थीं. पीएम मोदी के द्वारा कहे शब्दों के वो अर्थ जो हमें 2020 में समझ नहीं आए आज 2021 में हमें बखूबी समझ आ रहे हैं.

बात सिर्फ यूपी की राजधानी लखनऊ की नहीं है. सूबे में वाराणसी, कानपुर, इलाहाबाद, हरदोई, सीतापुर कहीं भी चले जाइये एक बड़ा वर्ग है जो कालाबाजारी में लिप्त है और जम कर आपदा में अवसर तलाश रहा है. चाहे अस्पताल हों, डॉक्टर हों, मेडिकल स्टोर वाले हों, मदद के नाम पर सिक्योरिटी रखवाकर ऑक्सीजन सिलिंडर उपलब्ध कराने वाले हों बहती गंगा में लोग हाथ धो रहे हैं बस धोए जा रहे हैं.

बात आपदा में अवसर की चली है तो हम इस समय देश में चर्चित कुछ दवाओं जैसे Remdesivir, Toclizumab का जिक्र जरूर करना चाहेंगे राजधानी दिल्ली समेत तमाम शहरों में Remdesivir जहां 70000 तक बिकी वहीं Toclizumab को आपदा में अवसर तलाशने वाले 1.5 लाख में अरेंज करा रहे हैं.

राजधानी लखनऊ में आए रोज ही कोई न कोई कोविड से जुड़ी दवाओं की कालाबाजारी में पुलिस के हत्थे चढ़ रहा है

बाकी बात ऑक्सीजन सिलिंडर की हुई है तो ये भी मुंह मांगी कीमतों पर बिक रहा है और वर्तमान में जंबो ऑक्सीजन सिलिंडर की कीमत 50,000 से 90,000 के बीच है. वहीं बात सिलिंडर में लगने वाली किट की हो तो वो किट जो अभी 1 महीना पहले तक 800 रुपए में बिक रही थी आज 10,000 देने पर भी नहीं मिल रही.

ऐसा ही कुछ मिलता जुलता हाल ऑक्सीजन कंसंट्रेटर मशीन का है 5 लीटर ऑक्सीजन देने वाली 50 से 55 हजार की मशीन एक सवा लाख में बुक हो रही है वो भी एडवांस. मशीन के मद्देनजर दिलचस्प बात ये है कि मशीन उपलब्ध कब होगी इसकी जानकारी न तो मरीज के तीमारदार को है और न ही उसे जो कालाबाजारी करते हुए डिवाइस उपलब्ध करा रहा है.

बाजार में 'ज़रूरी चीजों' की भारी कमी

ऐसा बिल्कुल नहीं है कि किल्लत सिर्फ Remdesivir, Toclizumab, Atchol - CV, Lycomerg, Azithromycin जैसी दवाओं की ही है. कोरोना की इस सेकंड वेव का सबसे दुखद पहलू ये है कि बाजार से मास्क, सर्जिकल ग्लव्स, नेबुलाइजर, रुई जैसी चीजें ग़ायब हैं. सेनेटाइजर का तो ऐसा है कि या तो मिल नहीं रहा या फिर जहां मिल रहा है 5 लीटर का कंटेनर 1200 रुपए के आसपास का है जिसमें पानी के अलावा लाल, नीला, पीला रंग है.

सीएम साहब कुछ कहें लेकिन लोग ऑक्सीजन की कमी से मर रहे हैं.

कोरोना की इस दूसरी लहर में जो बात सबसे ज्यादा दुखी करती है. वो है लोगों का ऑक्सीजन न मिलने से मरना. सूबे के मुखिया योगी आदित्यनाथ 'सब चंगा सी' का दावा तो कर रहे हैं. लेकिन उन्हें उन तीमारदारों से ज़रूर मिलना चाहिए जो एक अदने से ऑक्सीजन सिलिंडर के लिए दर ब दर भटक रहे हैं.

राजधानी लखनऊ के बक्शी का तालाब स्थित आरके ऑक्सीजन हो या फिर ऐशबाग स्थित अवध गैसेस आप कहीं का भी रुख कर लीजिए कतारें हैं और उन कतारों में अपने अपने मरीज के लिए ऑक्सीजन सिलिंडर का जुआड़ करते तीमारदार हैं. जो 24 से लेकर 36 घंटे तक बिना कुछ खाए पिये इस आस में लाइनों में रहते हैं कि उनके मरीज की जिंदगी आगे बढ़ जाए.

सरकार भले ही लाख दावे कर ले लेकिन यूपी के तमाम शहर ऐसे हैं यहां जनता को ऑक्सीजन की किल्लतों का सामना करना पड़ रहा है.

मददगारों का तो बस ईश्वर ही रक्षक

अब इसे विडंबना कहें या कुछ और कोविड की इस दूसरी लहर के बीच सरकारी मदद या तो मिल नहीं रही या फिर वो न के बराबर है. ऐसे में तमाम लोग हमारे बीच ऐसे भी हैं जो मरीजों को दवाइयों से लेकर ऑक्सीजन सिलिंडर, एम्बुलेंस मुहैया करा रहे थे मगर अब खौफ़ में ज़िंदगी जी रहे हैं. कारण सरकार का इन्हें गिरफ़्तार कराना इनपर रासुका लगाना.

वो लोग जिन्हें ये बात झूठ लग रही है वो जौनपुर के उस व्यक्ति को देख सकते हैं जो था तो पेशे से एम्बुलेंस ड्राइवर मगर जिसे परेशान लोगों की परेशानी देखी न गई और वो मदद के लिए सामने आया. युवक का ये अंदाज सीएमएस को पसंद नहीं आया और उन्होंने युवक पर गंभीर धाराओं में केस दर्ज करा दिया.

हर तरफ मौत हर तरफ लाशें

हममे से तमाम लोग ऐसे हैं जिन्होंने कोविड की इस दूसरी लहर में किसी अपने को खोया है. वो तमाम लोग शायद हमारे बीच होते यदि 'सिस्टम' ने उनको और उनकी बीमारी को गंभीरता से लिया होता. कहा यही जा रहा है कि इस दूसरी लहर का पीक आना अभी बाक़ी है. यदि ऐसा है तो ख़ुद सोचिए यदि स्थिति आज इतनी विकराल है तो तब क्या होगा जब पीक आएगा?

मदद के लिए आगे आए तमाम लोगों को हमारा सलाम

यूं तो कोविड की इस दूसरी लहर में ज्यादातर चीजें खिन्न करने वाली ही हैं मगर वो एक चीज जिसकी तारीफ हर सूरत में होनी चाहिए वो है बिना नाम या धर्म देखे लोगों का एक दूसरे की मदद के लिए आगे आना.

आज लोग जिस तरह एक दूसरे की मदद के लिए आगे आ रहे हैं उस बात में संदेह की बिल्कुल भी गुंजाइश नहीं है जिसमें कहा गया है कि सम्पूर्ण वसुंधरा हमारा घर है.

अपना बहुत ख्याल रखें और सकारात्मक रहें.

कोविड की ये दूसरी लहर कब जाती है? जाती है भी या नहीं जाती है इसके बारे में अभी से कुछ कहना जल्दबाजी है मगर जिस चीज को कहकर मैं अपने द्वारा कही तमाम बातों को विराम दूंगा वो ये कि अपना और अपने परिजनों का न केवल ख्याल रखें बल्कि सकारात्मक रहें. सकारात्मक होकर ही एक देश के रूप में हम कोरोना वायरस को इस जंग में परास्त कर पाएंगे.

अंत में बस इतना ही कि चाहे वो पीएम मोदी हों या फिर योगी आदित्यनाथ तमाम हुक्मरानों को गोस्वामी तुलसीदास की उस बात को याद रखना चाहिए जिसमें उन्होंने बहुत पहले कहा था कि

जासु राज प्रिय प्रजा दुखारी,

सो नृपु अवसि नरक अधिकारी...!!!

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इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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