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Coronavirus Lockdown: बंदी में क्या बदल पाया है स्त्री का जीवन?

    • अंकिता जैन
    • Updated: 01 अप्रिल, 2020 08:00 PM
  • 01 अप्रिल, 2020 08:00 PM
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कोरोना वायरस के चलते लॉकडाउन (Coronavirus Lockdown) का आज आठवां दिन हैं. इस खली पड़े समय में एक स्त्री का जीवन खुद ब खुद आंखों के सामने आ जाता है और मन अपने आप से सवाल करता है कि क्या विकास की इतनी बड़ी बड़ी बातों के बीच एक स्त्री अपना जीवन बदलने में कामयाब हो पाई है.

मेरे प्रिय,

आज बंदी का आठवां दिन भी बीत गया. कोई भी रास्ता जब शुरू होता है तो कितना कठिन लगता है ना. फिर जब हम उस पर चलने लगते हैं तो मंज़िल पर पहुंचने का लालच उस रास्ते को आसान बना देता है. कई बार मंज़िल बहुत उम्मीदों से भरी होती है और रास्ता बहुत कठिन. कुछ अभी जैसा ही. आज एक पुरानी सखी का फ़ोन आया था. उसका और मेरा रिश्ता यूं है कि एक-दूजे के जीवन में आए हुए तेरह साल बीत गए. क़रीबी हैं लेकिन फिर भी एक तयशुदा दूरी है. हम अपना-अपना जीवन जीते हैं और जब याद आती है तो याद कर लेते हैं. कल उसने कहा कि उसे मेरी बहुत याद आ रही थी. मैंने पूछा क्यों तो बोली ‘अब जीने की इच्छा ख़त्म सी होने लगी है’.

लॉक डाउन में जब सब अपने अपने घरों में बंद हो. जहन में सवाल स्त्रियों को लेकर भी आ रहे हैं। बड़ा सवाल ये है कि क्या आज स्त्रियां मुक्त हैं ?

मैं एक पल को चौंकी. एक तरफ जहां सारा संसार एक बीमारी से लड़ते हुए जीने की लालसा पाल रहा है. कब्र में पैर लटकाए हुए बैठा व्यक्ति भी चाहता है उसे ये विश्वव्यापी रोग ना लगे, और एक ये है जो कहती है कि जीने की इच्छा ख़त्म होने लगी है. मैंने कारण पूछा तो बोली, 'ज़िन्दगी में ना रस रह गया है ना प्रेम'.

मैंने पूछा, 'क्यों क्या हुआ, तेरा पति तो बड़ा रसिया सा था री, तू तो उसके मोह में बंधी ही रहती थी, फिर क्या हुआ?' बोली, 'कभी सोचा नहीं था कि मैं जिसे प्रेम समझकर जीती रही उसे शारीरिक ज़रुरत और...

मेरे प्रिय,

आज बंदी का आठवां दिन भी बीत गया. कोई भी रास्ता जब शुरू होता है तो कितना कठिन लगता है ना. फिर जब हम उस पर चलने लगते हैं तो मंज़िल पर पहुंचने का लालच उस रास्ते को आसान बना देता है. कई बार मंज़िल बहुत उम्मीदों से भरी होती है और रास्ता बहुत कठिन. कुछ अभी जैसा ही. आज एक पुरानी सखी का फ़ोन आया था. उसका और मेरा रिश्ता यूं है कि एक-दूजे के जीवन में आए हुए तेरह साल बीत गए. क़रीबी हैं लेकिन फिर भी एक तयशुदा दूरी है. हम अपना-अपना जीवन जीते हैं और जब याद आती है तो याद कर लेते हैं. कल उसने कहा कि उसे मेरी बहुत याद आ रही थी. मैंने पूछा क्यों तो बोली ‘अब जीने की इच्छा ख़त्म सी होने लगी है’.

लॉक डाउन में जब सब अपने अपने घरों में बंद हो. जहन में सवाल स्त्रियों को लेकर भी आ रहे हैं। बड़ा सवाल ये है कि क्या आज स्त्रियां मुक्त हैं ?

मैं एक पल को चौंकी. एक तरफ जहां सारा संसार एक बीमारी से लड़ते हुए जीने की लालसा पाल रहा है. कब्र में पैर लटकाए हुए बैठा व्यक्ति भी चाहता है उसे ये विश्वव्यापी रोग ना लगे, और एक ये है जो कहती है कि जीने की इच्छा ख़त्म होने लगी है. मैंने कारण पूछा तो बोली, 'ज़िन्दगी में ना रस रह गया है ना प्रेम'.

मैंने पूछा, 'क्यों क्या हुआ, तेरा पति तो बड़ा रसिया सा था री, तू तो उसके मोह में बंधी ही रहती थी, फिर क्या हुआ?' बोली, 'कभी सोचा नहीं था कि मैं जिसे प्रेम समझकर जीती रही उसे शारीरिक ज़रुरत और सामाजिक दायित्व कहूंगी. उसे मेरी परवाह ही नहीं. मैंने पूछा, 'तो कैसी परवाह चाहिए?' वह कुछ ना बोली. बस शांत हो गई. इधर-उधर की बातें करती रही. उसकी बातों से मैं अंदाज़ा लगाती रही कि किस परवाह की बात कर रही थी वह? स्त्री को क्या चाहिए? अरे मैं भी, तुम्हें क्या बता रही तुम तो जानते हो. समझते भी हो, है ना?

इस समय में जब अचनाक ही विपदा आने से हज़ारों जोड़े घरों में एक-दूजे के साथ कैद हो गए हैं तो संभवतः यह उनके जीवन में पहली ही बार हुआ होगा जब वे ‘बिना घर से बाहर निकले’ एक-दूजे के साथ इतना समय बिता रहे होंगे. ऐसे में कई सारी अपेक्षाएं, उम्मीदें जन्म लेने लगती हैं. जब हम चौबीसों घंटे साथ रहें तो अचानक ही कुछ नया सा दिखने लगता है.

उसी व्यक्ति में जिसमें अब तक नहीं दिखा हो. फिर भारतीय पुरुषों की परवरिश ऐसी होती है कि वे स्त्री-मन को समझने की शायद ही कोशिश करते हों. सभी ऐसे ही हों यह ज़रूरी नहीं किन्तु अधिकांश ऐसे ही होते हैं. ऐसे में स्त्री अब तक जिसे प्रेम समझती आई थी वह ख़याल किसी और ही दिशा में मुड़ने लगता है. तभी तो रेलगाड़ी सी धड़धड़ाती मेरी सखी आज शांत थी. पहली दफ़ा. जैसे उसकी गाड़ी का इंजन जीवन में पहली बार रुका हो.

इन दिनों में जब स्त्रियां अपने साथी को ही अपना सहयोगी बनाना चाह रही होंगी, ऐसे में उन्हें सहयोग ना मिले तो वे क्या सोचने लगेंगी यह कह पाना कठिन है. अब हर कोई तो ‘की एंड का’ का ‘का’ नहीं बन सकता ना. हाउसहेल्प ख़त्म हो जाने से मध्यमवर्गीय स्त्रियों का जीवन एक अलग से कटघरे से घिर गया है. जहां उसके जीवन में अब सुबह से शाम तक के कामों के अलावा दिनभर ख़ाली बैठे पति, बच्चों को मनोरंजन भी देना है.

समय पर खाना, समय पर चाय, समय पर कपड़े सब कुछ. और यदि वह वर्किंग हो तो और मुसीबत. ऐसे में यदि पति ठेठ पितृसत्ता वाला हुआ तो समझो गई भैंस पानी में. और मुझे मेरी सखी की भैंस भी इसी वजह से पानी में जाती लग रही है.

खैर, मैं भी क्या उसकी बात लेकर बैठ गई. उसे तो फिर बात करके समझाउंगी ही. पर मुझे यकीन है तुम अगर होते मेरे साथी, मेरे हमसफ़र के रूप में तो मेरी भैंस पानी में कभी ना जाती. तुम्हारे होने से रसोई की मसालों से ऊब नहीं बल्कि मोहब्बत हो जाती. तुम मेरी कमर पकड़कर मुझे उठाते और चूमते हुए बैठा देते स्लैप पर.

फिर बनाते कुछ स्वादिष्ट सा नाश्ता और चखाने के लिए मुझे ललचाते, सताते. मैं जब धो रही होती कपड़े तो सर्फ़ के झाग से मेरी मूछें बनाते और कहते, 'लॉकडाउन के इन दिनों में पार्लर नहीं जाओगी तो यही हाल होगा'. फिर गूंज उठता ठहाकों से हमारा छोटा सा संसार. रात जब बच्चों के सो जाने के बाद मैं थकी सी कमरे में आती तो तुम सहलाते मेरा माथा और अपनी उंगलियों से दूर कर देते मेरी पगथलियों की पीड़ा को.

तुम्हारे आगे आड़े नहीं आता अहम् पौरुष का, कभी भी. क्योंकि मैं जानती हूँ तुम्हारे भीतर भी है स्त्रीत्व का वह अंश जो इस दुनिया में अर्धनारीश्वर का प्रतीक है. स्त्री और पुरुष को एक पायदान पर रखने का मादा रखने वाले तुम जैसे पुरुषों की बहुत अधिक आवश्यकता है इस संसार में. मैं उम्मीद करूंगी कि तुम आओगे... और इसी उम्मीद में फिर बीत जाएगा बंदी का एक और एक दिन.

तुम्हारी

प्रेमिका

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