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एनडीटीवी प्रसंग : एक चैनल, एक अखबार या एक मालिक पूरा मीडिया नहीं

    • अभिरंजन कुमार
    • Updated: 06 जून, 2017 06:21 PM
  • 06 जून, 2017 06:21 PM
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मीडिया फ्रीडम को किसी भी लोकतंत्र की आत्मा कहा जा सकता है. लेकिन किसी एक चैनल, एक अखबार, एक पत्रकार या एक मालिक को मीडिया नहीं कह सकते.

एनडीटीवी में हमने छह साल से अधिक समय तक काम किया है. आज भी वहां सगे भाई-बहन समान हमारे कई प्यारे दोस्त हैं. इसलिए हमारा सुझाव और हमारी भावना है कि आप अपनी बात को मज़बूती से रखें. प्रेस फ्रीडम पर हमला बताना एक राजनीतिक बयान है. इससे आपके विरोधियों को आपके बारे में नकारात्मक बोलने का और अधिक मौका मिलता है. आपका पक्ष कितना मजबूत है, वह इसी से पता चलेगा कि लग रहे आरोपों का आप कितना तथ्यसम्मत जवाब देते हैं.

लोकतंत्र में कानून और संविधान से ऊपर कोई नहीं. न हम, न आप. जिस पर भी आरोप लगते हैं, उसे बेदाग निकलकर आना होता है. यह नहीं हो सकता कि कुछ व्यक्तियों या संस्थाओँ को 'पवित्र गाय' या 'पवित्र कुरान' का दर्जा देकर उन्हें बहस-मुबाहिसे आरोप-प्रत्यारोप से परे कर दिया जाए. यह भी नहीं हो सकता कि हमें तो किसी पर भी कोई भी आरोप लगाने की सुविधा प्राप्त हो, पर कोई दूसरा हम पर उंगली भी न उठा सके.

मीडिया को लोकतंत्र का चौथा स्तम्भ माना जाता है और इसीलिए मीडिया फ्रीडम को किसी भी लोकतंत्र की आत्मा कहा जा सकता है. लेकिन किसी एक चैनल, एक अखबार, एक पत्रकार या एक मालिक को मीडिया नहीं कह सकते. मीडिया तो वह एकजुट समूह है, जिसमें सभी रजिस्टर्ड मीडिया कंपनियां यानी सभी रजिस्टर्ड अखबार-पत्रिकाएं, रेडियो-टीवी चैनल, वेबसाइट्स इत्यादि शामिल हैं.

इसलिए सरकार अगर कोई ऐसा कदम उठाती है, जिससे मीडिया नाम के समुच्चय के सारे घटकों पर एक साथ बुरा असर पड़े, तो इसे मीडिया पर हमला कहा जा सकता है. जैसे सरकार अगर कोई असंवैधानिक बिल लाकर मीडिया संस्थानों के लिखने-बोलने-दिखाने की आज़ादी को सीमित करती है या घटनाओं की रिपोर्टिंग या खबरों के विश्लेषण पर पाबंदियां लगाती है, तो इसे मीडिया फ्रीडम पर हमला कहा जा सकता है.

मीडिया फ्रीडम पर पहला बड़ा हमला इस देश में 1975 में इंदिरा गांधी ने इमरजेंसी...

एनडीटीवी में हमने छह साल से अधिक समय तक काम किया है. आज भी वहां सगे भाई-बहन समान हमारे कई प्यारे दोस्त हैं. इसलिए हमारा सुझाव और हमारी भावना है कि आप अपनी बात को मज़बूती से रखें. प्रेस फ्रीडम पर हमला बताना एक राजनीतिक बयान है. इससे आपके विरोधियों को आपके बारे में नकारात्मक बोलने का और अधिक मौका मिलता है. आपका पक्ष कितना मजबूत है, वह इसी से पता चलेगा कि लग रहे आरोपों का आप कितना तथ्यसम्मत जवाब देते हैं.

लोकतंत्र में कानून और संविधान से ऊपर कोई नहीं. न हम, न आप. जिस पर भी आरोप लगते हैं, उसे बेदाग निकलकर आना होता है. यह नहीं हो सकता कि कुछ व्यक्तियों या संस्थाओँ को 'पवित्र गाय' या 'पवित्र कुरान' का दर्जा देकर उन्हें बहस-मुबाहिसे आरोप-प्रत्यारोप से परे कर दिया जाए. यह भी नहीं हो सकता कि हमें तो किसी पर भी कोई भी आरोप लगाने की सुविधा प्राप्त हो, पर कोई दूसरा हम पर उंगली भी न उठा सके.

मीडिया को लोकतंत्र का चौथा स्तम्भ माना जाता है और इसीलिए मीडिया फ्रीडम को किसी भी लोकतंत्र की आत्मा कहा जा सकता है. लेकिन किसी एक चैनल, एक अखबार, एक पत्रकार या एक मालिक को मीडिया नहीं कह सकते. मीडिया तो वह एकजुट समूह है, जिसमें सभी रजिस्टर्ड मीडिया कंपनियां यानी सभी रजिस्टर्ड अखबार-पत्रिकाएं, रेडियो-टीवी चैनल, वेबसाइट्स इत्यादि शामिल हैं.

इसलिए सरकार अगर कोई ऐसा कदम उठाती है, जिससे मीडिया नाम के समुच्चय के सारे घटकों पर एक साथ बुरा असर पड़े, तो इसे मीडिया पर हमला कहा जा सकता है. जैसे सरकार अगर कोई असंवैधानिक बिल लाकर मीडिया संस्थानों के लिखने-बोलने-दिखाने की आज़ादी को सीमित करती है या घटनाओं की रिपोर्टिंग या खबरों के विश्लेषण पर पाबंदियां लगाती है, तो इसे मीडिया फ्रीडम पर हमला कहा जा सकता है.

मीडिया फ्रीडम पर पहला बड़ा हमला इस देश में 1975 में इंदिरा गांधी ने इमरजेंसी में किया. फिर लोकसभा चुनाव 1989 से ठीक साल भर पहले 1988 में राजीव गांधी ने डेफेमेशन बिल लाकर मीडिया को कुचलने की नाकाम कोशिश की. इन दो बड़ी कोशिशों के नाकाम होने के बाद इस देश की सरकारों ने समझ लिया कि जो भी सरकार मीडिया को कुचलने की कोशिश करेगी, वह स्वयं जनता के द्वारा कुचल दी जाएगी. इसलिए, तिबारा किसी सरकार ने ऐसा आपराधिक दुस्साहस नहीं किया है.

हां, किसी एक मीडिया संस्थान, पत्रकार या मालिक के खिलाफ की गई कार्रवाई को भी मीडिया पर हमला कहा जा सकता है, बशर्ते कि अन्य सभी मीडिया संस्थान, पत्रकार और मालिक भी इस बात से सहमत हों कि उसके खिलाफ की जा रही कार्रवाई दुर्भावना से प्रेरित है और वे उसके पक्ष में एकजुटता दिखाएं, क्योंकि आम तौर पर हम यह मान सकते हैं कि सामूहिक विवेक गलत नहीं होता. लेकिन एनडीटीवी के मामले में मीडिया बुरी तरह से बंटा हुआ है. ज़्यादातर मीडिया संस्थान, मालिक और पत्रकार इसे मीडिया पर हमला न मानकर कुछ आरोपों पर एक चैनल या उसके मालिक के खिलाफ की गई कानूनी कार्रवाई मात्र मान रहे हैं.

इसलिए जब आरोपों पर तथ्यसम्मत जवाब देने के बजाय एनडीटीवी यह कहती है कि सीबीआई की कार्रवाई मीडिया फ्रीडम पर हमला है, तो अधिकांश लोग इसे अपने बचाव में दिया गया राजनीतिक बयान ही मानते हैं. ठीक उसी तरह, जैसे हर नेता किसी मामले में फंसने पर अपने खिलाफ कार्रवाई को राजनीति से प्रेरित या बदले की कार्रवाई बताता है. ठीक उसी तरह, जैसे कोई अल्पसंख्यक, कोई दलित, कोई पिछड़ा किसी मामले में फंस जाए, तो कहता है कि उसे अल्पसंख्यक, दलित या पिछड़ा होने की वजह से फंसाया जा रहा है.

आज सभी मीडिया संस्थानों को मिल-जुलकर इस बारे में चिंता करनी चाहिए कि एक तरफ जनता में उसकी विश्वसनीयता गई, दूसरी तरफ उसकी आपस की एकजुटता गई. और जब आपकी विश्वसनीयता और एकजुटता दोनों चली जाती है, तो आप बिल्कुल भी सुरक्षित नहीं रह जाते. इसलिए, आज जो एनडीटीवी को झेलना पड़ रहा है, कल वह अन्य संस्थानों को भी झेलना पड़े, तो मुझे हैरानी नहीं होगी. एक सरकार में इनके खिलाफ, तो दूसरी सरकार में उनके खिलाफ़ कार्रवाई होगी, यह तय है.

आज स्थिति यह बन गई है कि हर चैनल खुलेआम एक-दूसरे पर एजेंडा चलाने का आरोप लगा रहा है और एक-दूसरे की छीछालेदर कर रहा है. पत्रकारों ने भी अपने निजी स्वार्थ के लिए राजनीतिक दलों, नेताओं और पूंजीपतियों से सांठ-गांठ कर ली है. और सांठ-गांठ करने वाले ऐसे तमाम पत्रकार अपनी-अपनी जगह बैठकर क्रांतिकारी होने का दावा ठोंक रहे हैं. देश की जनता जब यह सब देखती है, तो उसे समझ में आ जाता है कि मीडिया के हम्माम में भी आज सभी नंगे हो चुके हैं. इसलिए अब वह दौर चला गया कि हम अपने मुंह से अपने को पाक-साफ़ बताएं और लोग इसे मान लें.

कई लोग एनडीटीवी मालिक के खिलाफ की गई कार्रवाई को एक लाइव डिबेट में एंकर निधि राजदान और बीजेपी प्रवक्ता संविद पात्रा के बीच के हॉट टॉक से भी जोड़कर देख रहे हैं. हमारा कहना है कि सभी पक्ष मर्यादा का पालन करें. जब हम अपने शो में किसी को भी बुलाते हैं, चाहे वह कोई नेता या मंत्री हो, या फिर कोई मामूली किसान या मजदूर, हम उसे अपमानित नहीं कर सकते. और उसे अपने कार्यक्रम से तो तब तक बाहर नहीं कर सकते, जब तक कि वह कोई कानून न तोड़ रहा हो. जैसे हमारा पैनलिस्ट हमारे तमाम आरोपों को सुनता, सहता और जवाब देता है, उसी तरह अगर वह भी हमपर कोई आरोप लगाए, तो हममें भी उसे सुनने, सहने औऱ हैंडल करने का धैर्य होना चाहिए. अभिव्यक्ति और असहमति की आजादी एकतरफा नहीं हो सकती. सहिष्णुता सबमें होनी चाहिए- नेता में भी, जनता में भी और मीडियाकर्मियों में भी.

याद रखिए कि जब मर्यादाएं टूटने लगती हैं, तो समाज में कुछ भी नहीं बचता. आप हमपर हमले करेंगे. हम आप पर हमले करेंगे. समाज के विभिन्न अंगों के बीच का सौहार्द्र समाप्त हो जाता है. इसलिए विक्टिमाइजेशन बंद होना चाहिए. किसी नेता विशेष का भी, किसी पत्रकार का भी और किसी आम से आम नागरिक का भी. मीडिया संस्थान एजेंडा चलाना छोड़ें और जनता के साथ खड़े हों. हमें गलत को गलत और सही को सही कहने की ईमानदारी अपनानी होगी.

मैं एनडीटीवी के साथ हूं, बशर्ते वह कानूनी तरीके से अपने को बेदाग साबित करे. अगर आप अपने को बेदाग साबित नहीं कर सकते, तो गले का ज़ोर दिखाने भर से कौन आपके साथ खड़ा होगा? तरुण तेजपाल और पीटर मुखर्जी के साथ कौन खड़ा हुआ? आज कितने चैनलों के मालिक और पत्रकार जेल में हैं या जेल से घूमकर आए हैं? इसलिए कानून का सामना कीजिए और बरी होइए. हमारी शुभकामनाएं और सदिच्छाएं आपके साथ हैं !

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इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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