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Belgium Vs Morocco: बेल्जियम में मोरक्को के शरणार्थियों ने फोड़ा 'बहुसंस्कृतिवाद' का गुब्बारा

    • देवेश त्रिपाठी
    • Updated: 28 नवम्बर, 2022 08:35 PM
  • 28 नवम्बर, 2022 08:29 PM
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फीफा विश्व कप (FIFA World Cup 2022) में मोरक्को ने जैसे ही बेल्जियम (Belgium Vs Morocco) को शिकस्त दी. बेल्जियम की राजधानी ब्रसेल्स में दंगा (Brussels Riots) भड़क गया. ब्रसेल्स में दर्जनों जगहों पर मोरक्को का झंडा लेकर उमड़ी भीड़ ने जश्न मनाने के नाम पर आगजनी और पथराव किया. बहुसंस्कृतिवाद का बड़ा हिमायती रहा स्वीडन भी ऐसी ही चीजों से जूझ रहा है.

फीफा विश्व कप में मोरक्को ने बेल्जियम को 2-0 से हरा दिया. और, कुछ ही देर बाद यूरोपीय देश बेल्जियम की राजधानी ब्रसेल्स में दंगा भड़क गया. इतना ही नहीं, बेल्जियम में लगी दंगों की आग नीदरलैंड्स में भी कुछ जगहों पर पहुंच गई. इंडिया टुडे की खबर के मुताबिक, ब्रसेल्स में दर्जनों जगहों पर मोरक्को का झंडा लेकर उमड़ी भीड़ ने जश्न मनाने के नाम पर आगजनी और पथराव किया. हालात इस कदर बिगड़ गए कि पुलिस को वॉटर कैनन और आंसू गैस के गोले तक छोड़ने पड़े. आसान शब्दों में कहें, तो मोरक्को से हारते ही बेल्जियम में 'बहुसंस्कृतिवाद' का गुब्बारा फूट गया.

यूरोपीय देशों को लगता है कि अप्रवासियों और शरणार्थियों को पनाह देकर ये अपने देश में 'बहुसंस्कृतिवाद' को बढ़ावा दे रहे हैं.

दरअसल, बेलज्यिम समेत यूरोप के कई देश अप्रवासियों और शरणार्थियों को पनाह देने के लिए मशहूर हैं. ये तमाम देश एक अलग तरह की खुशफहमी का शिकार हैं. इन्हें लगता है कि अप्रवासियों और शरणार्थियों को पनाह देकर ये अपने देश में 'बहुसंस्कृतिवाद' को बढ़ावा दे रहे हैं. वैसे, ऐसी ही गलती स्वीडन ने भी की थी. जो अब मुस्लिम कट्टरपंथियों द्वारा छोटी-छोटी बातों पर दंगों की आग झेलने को मजबूर है. दरअसल, स्वीडन भी इसी ओपन बॉर्डर्स नीति को मानने वाला है. और, वहां हालात ये हो गए हैं कि स्वीडन की कुल आबादी में एक-तिहाई शरणार्थी और अप्रवासी हैं. जिनमें से अधिकतर मुस्लिम हैं. वैसे, बेल्जियम की राजधानी ब्रसेल्स में वहां के मूल निवासियों से ज्यादा आबादी अप्रवासी और शरणार्थियों की है.

इतना ही नहीं, स्वीडन के शहरों में तो 'नो गो जोन्स' बन चुके हैं. क्योंकि, वहां...

फीफा विश्व कप में मोरक्को ने बेल्जियम को 2-0 से हरा दिया. और, कुछ ही देर बाद यूरोपीय देश बेल्जियम की राजधानी ब्रसेल्स में दंगा भड़क गया. इतना ही नहीं, बेल्जियम में लगी दंगों की आग नीदरलैंड्स में भी कुछ जगहों पर पहुंच गई. इंडिया टुडे की खबर के मुताबिक, ब्रसेल्स में दर्जनों जगहों पर मोरक्को का झंडा लेकर उमड़ी भीड़ ने जश्न मनाने के नाम पर आगजनी और पथराव किया. हालात इस कदर बिगड़ गए कि पुलिस को वॉटर कैनन और आंसू गैस के गोले तक छोड़ने पड़े. आसान शब्दों में कहें, तो मोरक्को से हारते ही बेल्जियम में 'बहुसंस्कृतिवाद' का गुब्बारा फूट गया.

यूरोपीय देशों को लगता है कि अप्रवासियों और शरणार्थियों को पनाह देकर ये अपने देश में 'बहुसंस्कृतिवाद' को बढ़ावा दे रहे हैं.

दरअसल, बेलज्यिम समेत यूरोप के कई देश अप्रवासियों और शरणार्थियों को पनाह देने के लिए मशहूर हैं. ये तमाम देश एक अलग तरह की खुशफहमी का शिकार हैं. इन्हें लगता है कि अप्रवासियों और शरणार्थियों को पनाह देकर ये अपने देश में 'बहुसंस्कृतिवाद' को बढ़ावा दे रहे हैं. वैसे, ऐसी ही गलती स्वीडन ने भी की थी. जो अब मुस्लिम कट्टरपंथियों द्वारा छोटी-छोटी बातों पर दंगों की आग झेलने को मजबूर है. दरअसल, स्वीडन भी इसी ओपन बॉर्डर्स नीति को मानने वाला है. और, वहां हालात ये हो गए हैं कि स्वीडन की कुल आबादी में एक-तिहाई शरणार्थी और अप्रवासी हैं. जिनमें से अधिकतर मुस्लिम हैं. वैसे, बेल्जियम की राजधानी ब्रसेल्स में वहां के मूल निवासियों से ज्यादा आबादी अप्रवासी और शरणार्थियों की है.

इतना ही नहीं, स्वीडन के शहरों में तो 'नो गो जोन्स' बन चुके हैं. क्योंकि, वहां मुस्लिमों की आबादी ने पूरी डेमोग्राफी ही बदल दी है. दरअसल, बहुसंस्कृतिवाद के फलने-फूलने के लिए सबसे जरूरी चीज धर्म के मामले में एक-दूसरे को सम्मान देना है. लेकिन, बेल्जियम और स्वीडन जैसे देशों में आपसी सामंजस्य से इतर एक समानांतर समाज खड़ा हो चुका है. जो अपने मानवाधिकारों की आड़ में नए देश तक की मांग करने से नहीं हिचकता है. इन देशों में बहुसंस्कृतिवाद ने असल में नफरत और हिंसा को बढ़ावा दिया है. जिसका मकसद एकता नहीं है. और, बेल्जियम में हुए दंगे इसका सबसे ताजा उदाहरण हैं. 

वैसे, बताना जरूरी है कि करीब 1.1 करोड़ की आबादी वाले बेल्जियम में मोरक्को से आए प्रवासियों का आबादी काफी ज्यादा हैं. जो अब खेल के नाम पर शक्ति प्रदर्शन करने से नहीं चूकते हैं. जैसा स्वीडन में किया जा रहा है. खैर, भारत में भी इसी तरह की चीजें लंबे समय तक होती रही हैं. लेकिन, हाल के कुछ सालों में इन घटनाओं में बड़ी कमी आई है.

इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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