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Ram Mandir Ayodhya verdict हाशिम अंसारी और परमहंस की दोस्ती को समर्पित

    • पारुल चंद्रा
    • Updated: 09 नवम्बर, 2019 07:03 PM
  • 09 नवम्बर, 2019 07:03 PM
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श्रीराम मन्दिर आंदोलन के प्रमुख संत महंत परमहंस रामचंद्र दास और बाबरी मस्जिद के मुद्दयी हाशिम अंसारी वो दो शख्स हैं जिनकी दोस्ती की कहानी आज सुनाई जानी जरूरी है. अपने धर्म के लिए समर्पित ये दो शख्स भारत की धार्मिक एकता की मिसाल हैं.

Ram mandir और Babri Masjid दोनों के पक्षकारों के रिश्ते न फैसला आने से पहले अच्छे थे और न फैसला आने के बाद होंगे. लेकिन फैसले को लेकर तल्खियां समेटे लोगों को अगर इस मामले से जुड़े दो लोगों की याद न दिलाई जाए तो ये अच्छा नहीं होगा.

श्रीराम मन्दिर आंदोलन के प्रमुख संत और श्रीराम जन्मभूमि न्यास के अध्यक्ष महंत परमहंस रामचंद्र दास और बाबरी मस्जिद के मुद्दयी हाशिम अंसारी वो दो शख्स हैं जिनकी दोस्ती की कहानी आज सुनाई जानी जरूरी है. दोनों इस मामले पर एक दूसरे के खिलाफ खड़े थे, लड़ाई विचारिक थी लेकिन इसका असर उनकी दोस्ती पर मरते दम तक नहीं पड़ा था. ये दोनों ही आज इस दुनिया में नहीं हैं.

हाशिम अंसारी और परमहंस रामचंद्र दास की ये तस्वीर लोगों के लिए नजीर है

ये दोनों अपने अपने हक की लड़ाई लड़ रहे थे, एक को राम मंदिर चाहिए था, तो दूसरे को मस्जिद की जिद थी. लेकिन अधिकारों की ये लड़ाई कभी दोस्ती के बीच न आ जाए इस बात को दोनों ने जिम्मेदारी से निभाया भी. दोस्ती का आलम ये था कि इस मामले की सुनवाई के लिए दोनों एक ही रिक्शे पर बैठकर जाते और हंसते-बोलते वापस भी साथ ही आया करते थे. कभी-कभी दोनों दंतधावन कुंड के पास आकर ताश भी खेला करते थे, तब चाय के दौर चलते और खेल रात तक चलता था. लेकिन मजाल है कि इन सबके बीच कभी भी मंदिर या मस्जिद की कोई बात करता हो. दोनों अपने हक और आराध्य के लिए समर्पित थे.

1921 में जन्मे हाशिम पेशे से दर्जी थे. वो अकेले अयोध्या के उन कुछ चुनिंदा लोगों में से थे जो दशकों तक अपने धर्म और babri masjid के लिए कानूनी लड़ाई लड़ते रहे थे. हाशिम अंसारी के रिश्ते साधु-संतों से भी बहुत अच्छे थे और हमेशा अच्छे ही रहे. आसपास के हिंदू युवक उन्हें चचा कहकर बुलाते थे. Hashim Ansari के घर में होली के दिन किसी हिंदू...

Ram mandir और Babri Masjid दोनों के पक्षकारों के रिश्ते न फैसला आने से पहले अच्छे थे और न फैसला आने के बाद होंगे. लेकिन फैसले को लेकर तल्खियां समेटे लोगों को अगर इस मामले से जुड़े दो लोगों की याद न दिलाई जाए तो ये अच्छा नहीं होगा.

श्रीराम मन्दिर आंदोलन के प्रमुख संत और श्रीराम जन्मभूमि न्यास के अध्यक्ष महंत परमहंस रामचंद्र दास और बाबरी मस्जिद के मुद्दयी हाशिम अंसारी वो दो शख्स हैं जिनकी दोस्ती की कहानी आज सुनाई जानी जरूरी है. दोनों इस मामले पर एक दूसरे के खिलाफ खड़े थे, लड़ाई विचारिक थी लेकिन इसका असर उनकी दोस्ती पर मरते दम तक नहीं पड़ा था. ये दोनों ही आज इस दुनिया में नहीं हैं.

हाशिम अंसारी और परमहंस रामचंद्र दास की ये तस्वीर लोगों के लिए नजीर है

ये दोनों अपने अपने हक की लड़ाई लड़ रहे थे, एक को राम मंदिर चाहिए था, तो दूसरे को मस्जिद की जिद थी. लेकिन अधिकारों की ये लड़ाई कभी दोस्ती के बीच न आ जाए इस बात को दोनों ने जिम्मेदारी से निभाया भी. दोस्ती का आलम ये था कि इस मामले की सुनवाई के लिए दोनों एक ही रिक्शे पर बैठकर जाते और हंसते-बोलते वापस भी साथ ही आया करते थे. कभी-कभी दोनों दंतधावन कुंड के पास आकर ताश भी खेला करते थे, तब चाय के दौर चलते और खेल रात तक चलता था. लेकिन मजाल है कि इन सबके बीच कभी भी मंदिर या मस्जिद की कोई बात करता हो. दोनों अपने हक और आराध्य के लिए समर्पित थे.

1921 में जन्मे हाशिम पेशे से दर्जी थे. वो अकेले अयोध्या के उन कुछ चुनिंदा लोगों में से थे जो दशकों तक अपने धर्म और babri masjid के लिए कानूनी लड़ाई लड़ते रहे थे. हाशिम अंसारी के रिश्ते साधु-संतों से भी बहुत अच्छे थे और हमेशा अच्छे ही रहे. आसपास के हिंदू युवक उन्हें चचा कहकर बुलाते थे. Hashim Ansari के घर में होली के दिन किसी हिंदू के घर से ज्यादा लोग पहुंचते थे.

हाशिम अंसारी के संबंध साधु-संतों से भी बहुत अच्छे थे

हाशिम के बेटे इकबाल अंसारी कहते हैं, 'अब्बू 1949 से मुकदमें की पैरवी कर रहे थे. लेकिन कभी किसी हिंदू ने उन्हें एक भी लफ्ज़ गलत नहीं कहा. हिंदू भाई हमें त्योहारों पर अपने घर बुलाते थे और हम सपरिवार जाते थे. हम इसी संस्कृति में पले बढ़े थे, जहां मुहर्रम के जुलूस पर हिंदू फूल बरसाते हैं और नवरात्रि के जुलूस पर मुसलमान फूलों की बारिश करते हैं.' 1949 में जब हाशिम अंसारी ने विवादित जमीन पर अजान की तो गिरफ्तार भी हुए थे.

लेकिन 6 दिसंबर 1992 को Babri Masjid ढहाई जाने के बाद हुए दंगों में दंगाइयों ने उनका घर जला दिया था, लेकिन Ayodhya के हिंदुओं ने ही उन्हें और उनके परिवार को बचाया. इसके बाद हाशमी को सरकार ने सुरक्षा भी मुहिया करवाई थी, लेकिन 4 पुलिसवालों का उनके घर के बाहर हमेशा खड़े रहना उन्हें जरा भी पसंद नहीं था. दोनों साथ होते तो इस मामले पर होने वाले दंगों की आलोचना किया करते थे. कभी हाशिम परेशान होते तो इस मामले पर अपने विचार परमहंस का बताते. वो इतमिनान से उनकी बात सुनते, उन्हें चाय पिलाते.

हाशिम अंसारी ने 2014 में इस बात का जिक्र भी किया था कि किस तरह राम के नाम का इस्तेमाल करके राजनीति की जा रही है. उन्हें अफसोस था कि 6 दशकों तक न्याय के लिए लड़ाई उन्होंने लड़ी और लोगों ने उसपर राजनीति की. और इसलिए उन्होंने रामलला (Ramlala) को आजाद कर देने की बात भी कही थी.

रामलला के लिए एक मुसलमान की चिंता क्या आपने कभी देखी थी. लेकिन ऐसा करने वाले शायद हाशिम अंसारी ही थे.

हाशिम अंसारी, जिन्होंने 6 दशकों तक अपने अधिकार की लड़ाई लड़ी

1913 को जन्मे परमहंस रामचंद्र 1934 से अयोध्या में राम जन्मभूमि आंदोलन (Ayodhya Ram janambhoomi andolan) से जुड़े थे. दिगंबर अखाड़ा के अध्यक्ष रहे. 1950 में परमहंस ने श्री राम की पूजा अर्चना के लिए अर्जी दायर की थी. पूजा-अर्चना बेरोक-टोक जारी रखने के लिए जिला न्यायालय के आदेश की पुष्टि कर दी. इसी आदेश के कारण आज तक श्रीराम जन्मभूमि पर श्रीरामलला की पूजा-अर्चना होती चली आ रही है. परमहंस महाराज ने खुद को मंदिर के लिए ही समर्पित किया हुआ था. और उनके दृढ़ संकल्प का ही नतीजा था कि 09 नवम्बर 1989 को शिलान्यास हुआ.

परमहंस रामचंद्र 1934 से अयोध्या में राम जन्मभूमि आंदोलन से जुड़े थे

30 अक्टूबर 1990 की कारसेवा के समय हजारों कारसेवकों का उन्होंने नेतृत्व व मार्गदर्शन भी किया था. खुद अपनी आंखों से उस ढांचे को बिखरते हुए देखा था जो उनके लिए एक सपने के पूरा होने जैसा था. लेकिन इस आंदोलन के सबसे सक्रिय सदस्य रहे परमहंस 92 साल की उम्र में 31 जुलाई 2003 को चल बसे.

स्थानीय पुजारी आचार्य प्रदीप बताते हैं कि जब परमहंस की मृत्यु की खबर हाशिम अंसारी को हुई तो वो अपने प्रिय दोस्त के जाने पर फूट-फूटकर रोए थे. और अतिम संस्कार होने तक उनके साथ ही रहे थे. उनके आंसू सच्चे थे बिलकुन उनकी दोस्ती की तरह.' 20 जुलाई 2016 को 96 साल की उम्र में हाशिम का भी देहांत हो गया.

इन दोनों दोस्तों की कहानी ये बताने के लिए काफी है कि दोनों ने अपने अपना पूरा जीवन अपने धर्म को समर्पित रखा था. विचारधारा की इस लड़ाई में दोनों ने ही हार नहीं मानी लेकिन दुनिया को ये दोनों एक ही पौगाम देकर गए, जिसका नाम दोस्ती है. एक हिंदू और एक मुसलमान के बीच की दोस्ती जो तमाम विवादों के बाद भी मरते दम तक कायम रही. अब धर्म के नाम पर झगड़ने वाले लोगों को इन दोनों ने ये भी समझाया है कि किस तरह आम इंसान की भावनाओं का फायदा उठाकर राजनीति करने वाले लोग सिर्फ अपना भला करते हैं. और दो धर्मों के बीच का सारा प्रेम विवादों में ही खत्म हो जाता है. अयोध्या राम मंदिर और बाबरी मस्जिद का जब-जब जिक्र होगा इन दोनों दोस्तों की ये प्यारी तस्वीर हमेशा याद आएगी.

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इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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