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जानिए, कब ज़रूरी हो जाता है मनोवैज्ञानिक की सलाह लेना

    • हेमंती पांडेय
    • Updated: 11 अगस्त, 2020 11:35 AM
  • 11 अगस्त, 2020 11:35 AM
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दुनिया डिप्रेशन (Depression) के प्रति बहुत गंभीर है लेकिन भारत (India) में तो इसे एक ऐसी बीमारी की तरह देखा जाता है जिसके बारे में लोग बात करना भी पसंद नहीं करते. डिप्रेशन उतना हल्का बिलकुल भी नहीं है जितना ये प्रतीत होता है इसलिए जैसे ही मरीज में लक्षण दिखें उसे किसी मनोचिकित्सक या लाइफ कोच से संपर्क करना चाहिए.

विज्ञान ने हमारे देश में इतनी तरक्की की है कि जिसकी हम आशा भी नहीं कर सकते हैं. आसमान और उसके भी आगे. चाहे टेक्नोलॉजी हो या मशीनरी, अविष्कार हो या पुरुस्कार हमारे देश ने काफी तरक्की की. मेरा सवाल ये है कि इतना आगे बढ़ने के बाद भी मनोविज्ञान या इंसान के स्वभाव को समझने में हम इतना पीछे क्यों हैं? इंसान भावनाओं को छुपाने की पूरी कोशिश करता है, और वो कोशिश तब नाकाम हो जाती है जब या तो मानसिक रूप से वो परेशान हो जाता है या उससे कोई भारी गलती हो जाती है. हमारे देश में शारीरिक और मानसिक बीमारी बहुत अलग तरह से समझा जाता है. अगर किसी को जुखाम (Flu) भी हो जाए तो वो जल्दी ही किसी बहुत अच्छे डॉक्टर के पास जाता है इलाज के लिए, लेकिन अगर कोई दुखी हो या मानसिक रूप से परेशान हो तो क्या वो उतनी ही जल्दी किसी मनोवैज्ञानिक या लाइफ कोच के पास जाता है? सवाल का जवाब आप खुद अपने आप से पूछिए?

आज डिप्रेशन हमारे समाज की एक क्रूर हकीकत बन गया है जो कई लोगों की ज़िन्दगी लील रहा है

हमारी भावनाएं हमारे व्यवहार पर पूरा असर डालती हैं. अपने अंदर चल रही बातों को स्पष्ट बोलें या जाहिर करें, उससे ज़रूर आप हल्का महसूस करेंगे. मानसिक बीमारी सिर्फ पागलपन नहीं होती, एक सर्टिफाइड लाइफ कोच भी आपकी समस्याओं को समझकर और उसके पीछे काम कर सकता है. आपको जागरूक होने की ज़रूरत है और दूसरों को भी ये संदेश पहुंचाए. मैंने अपने करियर में काफी केस देखे हैं जहां समस्या होते हुए भी या तो परिवार के डर के या फिर समाज के डर से लोग चुप रहते हैं. अंदर ही अंदर घुटते रहते हैं. और एक समय आता है जब वो या तो डिप्रेशन में चला जाता है या सुसाइड जैसा कदम उठा लेता है.

सवाल ये आता है, आखिर वो कौन सा समय है जब ज़रूरी हो जाता है मनोवैज्ञानिक, लाइफ कोच या मनोचिकित्सक की सलाह...

विज्ञान ने हमारे देश में इतनी तरक्की की है कि जिसकी हम आशा भी नहीं कर सकते हैं. आसमान और उसके भी आगे. चाहे टेक्नोलॉजी हो या मशीनरी, अविष्कार हो या पुरुस्कार हमारे देश ने काफी तरक्की की. मेरा सवाल ये है कि इतना आगे बढ़ने के बाद भी मनोविज्ञान या इंसान के स्वभाव को समझने में हम इतना पीछे क्यों हैं? इंसान भावनाओं को छुपाने की पूरी कोशिश करता है, और वो कोशिश तब नाकाम हो जाती है जब या तो मानसिक रूप से वो परेशान हो जाता है या उससे कोई भारी गलती हो जाती है. हमारे देश में शारीरिक और मानसिक बीमारी बहुत अलग तरह से समझा जाता है. अगर किसी को जुखाम (Flu) भी हो जाए तो वो जल्दी ही किसी बहुत अच्छे डॉक्टर के पास जाता है इलाज के लिए, लेकिन अगर कोई दुखी हो या मानसिक रूप से परेशान हो तो क्या वो उतनी ही जल्दी किसी मनोवैज्ञानिक या लाइफ कोच के पास जाता है? सवाल का जवाब आप खुद अपने आप से पूछिए?

आज डिप्रेशन हमारे समाज की एक क्रूर हकीकत बन गया है जो कई लोगों की ज़िन्दगी लील रहा है

हमारी भावनाएं हमारे व्यवहार पर पूरा असर डालती हैं. अपने अंदर चल रही बातों को स्पष्ट बोलें या जाहिर करें, उससे ज़रूर आप हल्का महसूस करेंगे. मानसिक बीमारी सिर्फ पागलपन नहीं होती, एक सर्टिफाइड लाइफ कोच भी आपकी समस्याओं को समझकर और उसके पीछे काम कर सकता है. आपको जागरूक होने की ज़रूरत है और दूसरों को भी ये संदेश पहुंचाए. मैंने अपने करियर में काफी केस देखे हैं जहां समस्या होते हुए भी या तो परिवार के डर के या फिर समाज के डर से लोग चुप रहते हैं. अंदर ही अंदर घुटते रहते हैं. और एक समय आता है जब वो या तो डिप्रेशन में चला जाता है या सुसाइड जैसा कदम उठा लेता है.

सवाल ये आता है, आखिर वो कौन सा समय है जब ज़रूरी हो जाता है मनोवैज्ञानिक, लाइफ कोच या मनोचिकित्सक की सलाह लेना-

घर से ले कर आपके दफ्तर तक, ज़िन्दगी किसी के लिए नहीं रुकती. मानसिक असंतुलन कभी भी बन सकती है. काम के प्रेशर की वजह से टेंशन हो या घर में रिश्तों में दरार की वजह से. बच्चे बात नहीं मानता या कोई ऐसी बीमारी है जिसे परेशान है. फाइनेंशियल समस्या है या अकेलापन कॉन्फिडेंस की कमी की वजह से समाज में नाम नहीं या फिर मन अतीत की बातों से ख़राब हो. मानसिक परेशानी किसी भी बात से हो सकती है, एक जागरूक नागरिक कभी भी चुप हो कर अपनी परेशानी से अकेले न जूझता रहे इसलिए ये आर्टिकल लिख रही हूं.

हम एक ऐसे समय से गुजर रहे हैं जहां अक्सर मन की बात करने वाला कोई नहीं होता. और दौड़ती भागती लाइफस्टाइल इस लाइफस्टाइल में हम कहीं न कहीं ख़ुद को अकेले पाते हैं और ये एक बहुत बड़ी वजह है मानसिक परेशानी की. सालों पहले परिवार के नाम पे लोग मोबाइल फ़ोन हाथों में लेकर नहीं बैठते थे बल्कि एक दूसरे से बात करना पसंद करते थे. इसलिए उनदिनों बात करने के लिए लोग हुआ करते थे.

लोगों का सवाल ये होता है कि कैसे समझें कि वो ठीक नहीं हैं अंदर से. तो जवाब बहुत सीधा है- जब कुछ समझ न आए, बेवजह गुस्सा आए, या गुस्से पे काबू न रहे, अकेले रहने की कोशिश करना, गुमसुम रहना, खोया हुआ रहना, किसी भी काम में मन न लगना, नींद न आना, ऐसे अनगिनत कारण हैं जब आपको इंतज़ार न करके मदद लेनी चाहिए.

समझदारी समस्या को अनदेखा करने में नहीं बल्कि उस समस्या के बारे में सही व्यक्ति से बात करने में है. काउंसलिंग जैसे तरीके से आप सही वास्तविकता का अंदाजा लगा सकते हैं. अपनी भावनाओं और फीलिंग को इग्नोर न करें. उन्हें समझें और अगर समझ न आए तो उनके पास जाएं जो समझ सके आपको. आप सर्टिफाइड मनोवैज्ञानिक, लाइफ कोच या मनोचिकित्सक के पास अपनी समस्या लेके जा सकते हैं.

हम से हमारा देश, और हम आगे तभी बढ़ेंगे जब हम खुद को और भी बेहतर तरीके से समझें और जो जरूरी लगे उसे करें. ख़ुद को जागरूक करिये और दूसरों की मदद भी.

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इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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