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तो क्या जनहित में हर सिगरेट पर चेतावनी को और मजबूती से नहीं लिखा जा सकता?

    • prakash kumar jain
    • Updated: 21 अगस्त, 2022 04:40 PM
  • 21 अगस्त, 2022 04:40 PM
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पिछले दिनों सुप्रीम कोर्ट ने धूम्रपान की उम्र 18 से बढ़ाकर 21 करने और खुले में सिगरेट की बिक्री पर प्रतिबंध लगाने का निर्देश देने की याचना करने वाली वाली याचिका को खारिज कर दिया है. कोर्ट के इस फैसले के बाद तमाम सवाल हैं जो उठ रहे हैं.

यहां तो स्मोकिंग यानी सिगरेट को लेकर दाखिल की गई याचिका जनहित में है ही नहीं! जस्टिस एस के कौल और जस्टिस सुधांशु धूलिया की दो सदस्यीय पीठ प्रभावित ही नहीं हुई और उन्हें इसे दाखिल करने वाले विद्वान वकीलों का पब्लिक स्टंट लगा. पता नहीं क्यों माननीय जजों को अधिवक्ता शुभम अवस्थी और सप्त ऋषि मिश्रा 'आए थे हरि भजन को ओटन लगे कपास' सरीखे लगे. और दोनों ही वकीलों को फटकार लगी सो अलग. अच्छी बात हुई या कहें उन पर महती कृपा हुई कि हल्का फुल्का जुर्माना भी नहीं लगा. पता नहीं क्यों कोर्ट ने दाखिल पीआईएल को पब्लिसिटी इंटरेस्ट लिटिगेशन करार दिया? खैर! जो हुआ सो हुआ. कुल मिलाकर खाने पीने की स्वतंत्रता के तहत राइट टू स्मोकिंग राइट टू हेल्थ पर तरजीह पा गई, याचिका में बताये गए लंबे चौड़े तथ्य धराशायी हो गए. विडंबना ही है कि जिन बातों को हमारे देश में पब्लिसिटी स्टंट बता दिया गया है, उन्हीं बातों को दुनिया के देश लागू करने जा रहे हैं. मसलन कनाडा शायद सिगरेट पर वार्निंग लिखने वाला दुनिया का पहला देश बनेगा.

सिगरेट की डिब्बियों पर चेतावनी लिखी रहती है बावजूद इसके लोग इसे धड़ल्ले से खरीद रहे हैं

उन युवाओं को, जो एक बार में एक सिगरेट लेते हैं और पैकेट पर लिखी चेतावनी नहीं देख पाते, संदेश देने का एक मकसद है 'हर कश में जहर है' सरीखी किसी भावी कविता की हेडलाइन में. निःसंदेह सिगरेट जैसे प्रोडक्ट लोगों के हेल्थ के लिए खतरा है! याचिका में बातें थी स्कूल-कॉलेज के आस-पास खुले में सिगरेट बिक्री को बैन करने, अस्पतालों और धार्मिक स्थलों के पास सिगरेट की बिक्री बंद करने और स्मोकिंग पर कंट्रोल के लिए केंद्र को योजना बनाने के निर्देश देने की.

बात स्मोकिंग एरिया में धुएं के फिल्ट्रेशन के लिए गाइडलाइन बनाने के निर्देश दिए जाने की भी थी. याचिका तवज्जो दिला रही...

यहां तो स्मोकिंग यानी सिगरेट को लेकर दाखिल की गई याचिका जनहित में है ही नहीं! जस्टिस एस के कौल और जस्टिस सुधांशु धूलिया की दो सदस्यीय पीठ प्रभावित ही नहीं हुई और उन्हें इसे दाखिल करने वाले विद्वान वकीलों का पब्लिक स्टंट लगा. पता नहीं क्यों माननीय जजों को अधिवक्ता शुभम अवस्थी और सप्त ऋषि मिश्रा 'आए थे हरि भजन को ओटन लगे कपास' सरीखे लगे. और दोनों ही वकीलों को फटकार लगी सो अलग. अच्छी बात हुई या कहें उन पर महती कृपा हुई कि हल्का फुल्का जुर्माना भी नहीं लगा. पता नहीं क्यों कोर्ट ने दाखिल पीआईएल को पब्लिसिटी इंटरेस्ट लिटिगेशन करार दिया? खैर! जो हुआ सो हुआ. कुल मिलाकर खाने पीने की स्वतंत्रता के तहत राइट टू स्मोकिंग राइट टू हेल्थ पर तरजीह पा गई, याचिका में बताये गए लंबे चौड़े तथ्य धराशायी हो गए. विडंबना ही है कि जिन बातों को हमारे देश में पब्लिसिटी स्टंट बता दिया गया है, उन्हीं बातों को दुनिया के देश लागू करने जा रहे हैं. मसलन कनाडा शायद सिगरेट पर वार्निंग लिखने वाला दुनिया का पहला देश बनेगा.

सिगरेट की डिब्बियों पर चेतावनी लिखी रहती है बावजूद इसके लोग इसे धड़ल्ले से खरीद रहे हैं

उन युवाओं को, जो एक बार में एक सिगरेट लेते हैं और पैकेट पर लिखी चेतावनी नहीं देख पाते, संदेश देने का एक मकसद है 'हर कश में जहर है' सरीखी किसी भावी कविता की हेडलाइन में. निःसंदेह सिगरेट जैसे प्रोडक्ट लोगों के हेल्थ के लिए खतरा है! याचिका में बातें थी स्कूल-कॉलेज के आस-पास खुले में सिगरेट बिक्री को बैन करने, अस्पतालों और धार्मिक स्थलों के पास सिगरेट की बिक्री बंद करने और स्मोकिंग पर कंट्रोल के लिए केंद्र को योजना बनाने के निर्देश देने की.

बात स्मोकिंग एरिया में धुएं के फिल्ट्रेशन के लिए गाइडलाइन बनाने के निर्देश दिए जाने की भी थी. याचिका तवज्जो दिला रही थी वर्ल्ड हेल्थ आर्गेनाईजेशन की इंडिया को लेकर पब्लिश की गयी फैक्ट शीट का भी जिसके अनुसार तंबाकू सेवन की वजह से युवा कार्डियोवैस्कुलर (दिल से जुड़ी) बीमारियों से पीड़ित हो रहे हैं.

इनमें सिगरेट का योगदान सबसे ज्यादा है, जो भारत में 90 लाख से अधिक लोगों की मौत के लिए जिम्मेदार है. याचिका कई अन्य चौंकाने वाले तथ्यों की भी बात कर रही थी. मसलन वर्तमान समय में पिछले दो दशकों से धूम्रपान करने वालों की संख्या लगातार बढ़ रही है. ये एक महामारी की तरह फैलती जा रही है. अगर 16 से 64 साल के लोगों के धूम्रपान की बात की जाए तो भारत अब दूसरे स्थान पर है.

याचिका जर्नल ऑफ निकोटीन एंड टोबैको रिसर्च की भी बात करती है जिसके मुताबिक सेकेंड हैंड स्मोक के एक्सपोज़र के कारण स्वास्थ्य सेवाओं में सालाना 567 अरब खर्च होता है जो कि ऐनुअल हेल्थ केयर का 8 फीसदी है. वहीं तंबाकू के उपयोग में सालाना 177 अरब रुपये खर्च होते हैं.

स्मोकिंग न केवल फेफड़ों को खराब कर रही है बल्कि इसका असर आंखों पर भी पड़ रहा है. और उपरोक्त सारी बातें महज पब्लिसिटी स्टंट के लिए की गयी थी - विश्वास नहीं होता कि ऐसा सर्वोच्च न्यायालय ने कहा. माननीय न्यायालय वकील द्वय को पब्लिक हेल्थ डिपार्टमेंट के पास जाने की सलाह देते हुए उन्हें याचिका वापस लेने के लिए कह सकता था और वह एक आदर्श स्थिति होती.

कम से कम ऐसा तो नहीं लगता कि सर्वोच्च न्यायालय ने महत्वपूर्ण तथ्यों की अनदेखी कर दी ! जबकि न्यूजीलैंड की सरकार ने स्मोकिंग ख़त्म करने के अन्य प्रयासों के फलीभूत ना होने का जिक्र करते हुए तंबाकू उद्योग पर दुनिया की सबसे कठिन कार्रवाई में से एक में युवाओं को अपने जीवनकाल में सिगरेट खरीदने पर प्रतिबंध लगाने की योजना बनाई है.

यदि योजना लागू हो गयी, let us cross fingers, वहां 2008 के बाद पैदा हुए लोग सिगरेट नहीं पी पाएंगे. प्रस्तावित कानून के मुताबिक 14 वर्ष और उससे कम्र उम्र के लोग 2027 में कभी भी सिगरेट नहीं खरीद पाएंगे. कानून तंबाकू के खुदरा विक्रेताओं की संख्या पर भी अंकुश लगाएगा और सभी उत्पादों में निकोटीन के स्तर में कटौती करेगा.

मात्र 50-55 लाख की जनसंख्या वाले देश के इस प्रस्तावित कानून के लागू होने और साथ ही सफल होने की कामना करते हुए उम्मीद की जा सकती है कि दुनिया के अन्य देश इसे पायलट प्रोजेक्ट के रूप में स्वीकारेंगे.

आजकल जज फिल्मों से, माइथोलॉजी से प्रभावित होते हैं और तदनुसार फैसले भी सुनाते हैं मसलन पिछले दिनों ही बम्बई हाई कोर्ट के जज ने अजय देवगन स्टारर रनवे 34 का हवाला देते हुए कहा कि विमानन सुरक्षा AIR TRAFFIC CONTROL (एटीसी) पर निर्भर करती है. 'नो स्मोकिंग' सरीखी ना नजरअंदाज की जा सकने वाली वार्निंग के आलोक में अदालत से अपेक्षा थी कि वह कम से कम कनाडा और न्यूज़ीलैंड से प्रभावित होती.

क्यों ना हम एक #WriteOnCigerettePoisonInEveryPuff मुहिम चलाएं और जन चेतना जागृत करने की दिशा में एक कदम तो उठाए ही और सुनिश्चित करें कि एक सिगरेट खरीदने वाले को भी वैधानिक चेतावनी मिले. 

इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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