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गर्भपात कानून में होने वाले बच्‍चे का हित भी देखिए !

    • आईचौक
    • Updated: 22 जुलाई, 2016 09:22 PM
  • 22 जुलाई, 2016 09:22 PM
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भारत में भ्रूण हत्या को लेकर 1971 में बने कानून के मुताबिक 20 हफ्ते की प्रेग्नेंसी के बाद अबॉर्शन कराना गैरकानूनी है. आज भ्रूण का लिंग परीक्षण देश में प्रतिबंधित है और मेडिकल टेक्नोलॉजी का अच्‍छा खासा विकास हो चुका है.

भारत में भ्रूण हत्या को लेकर 1971 में बने कानून के मुताबिक 20 हफ्ते की प्रेग्नेंसी के बाद अबॉर्शन कराना गैरकानूनी है. वह ऐसा दौर था जब देश में मेडिकल टेक्नोलॉजी विकसित हो रही थी. बड़े शहरों में अल्ट्रासाउंड की सुविधा पहुंच चुकी थी और उसका इस्तेमाल भ्रूण के लिंग जानने के लिए किया जा रहा था. लेकिन अब हम 21वीं सदी में पहुंच चुके हैं. आज भ्रूण का लिंग परीक्षण देश में प्रतिबंधित है और मेडिकल टेक्नोलॉजी का अच्‍छा खासा विकास हो चुका है.

इसे भी पढ़ें: जख्म तो गुजरते वक्त भरेंगे, बलात्कार का बोझ जरूर कम हो जाएगा

कहने का आशय यह है कि अब भ्रूण के विकसित होने की हर अवस्‍था में मां और बच्‍चे के स्‍वास्‍थ्‍य से जुड़ी अहम जानकारी टेक्‍नोलॉजी के जरिए ली जा सकती है. इन्‍हीं टेक्‍नोलॉजी के हवाले से कहा जा सकता है कि कई महत्‍वपूर्ण सूचनाएं 20 हफ्ते के गर्भ तक मिल ही नहीं पाती हैं. और जब खतरे का पता चलता है तब तक 1971 वाला गर्भपात कानून सामने आ जाता है.

 

अब इस समस्‍या को एक उदाहरण से समझते हैं, जो इस समय सुप्रीम कोर्ट के सामने है. बलात्कार पीड़ित एक महिला ने कोर्ट से गुहार लगाई है कि उसे 24 हफ्ते के अपने गर्भ को अबॉर्ट करने की इजाजत दी जाए. महिला की याचिका के मुताबिक, उसके गर्भ में पल रहे भ्रूण का विकास ठीक से नहीं हुआ है. भ्रूण एंसीफेली नाम की बीमारी से ग्रस्त है और उसके मस्तिष्क का विकास भी रुक गया है. महिला के डॉक्टरों का मत है कि डेलिवरी के बाद शिशु के जीने की संभावना लगभग न के बराबर है.

भारत में भ्रूण हत्या को लेकर 1971 में बने कानून के मुताबिक 20 हफ्ते की प्रेग्नेंसी के बाद अबॉर्शन कराना गैरकानूनी है. वह ऐसा दौर था जब देश में मेडिकल टेक्नोलॉजी विकसित हो रही थी. बड़े शहरों में अल्ट्रासाउंड की सुविधा पहुंच चुकी थी और उसका इस्तेमाल भ्रूण के लिंग जानने के लिए किया जा रहा था. लेकिन अब हम 21वीं सदी में पहुंच चुके हैं. आज भ्रूण का लिंग परीक्षण देश में प्रतिबंधित है और मेडिकल टेक्नोलॉजी का अच्‍छा खासा विकास हो चुका है.

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कहने का आशय यह है कि अब भ्रूण के विकसित होने की हर अवस्‍था में मां और बच्‍चे के स्‍वास्‍थ्‍य से जुड़ी अहम जानकारी टेक्‍नोलॉजी के जरिए ली जा सकती है. इन्‍हीं टेक्‍नोलॉजी के हवाले से कहा जा सकता है कि कई महत्‍वपूर्ण सूचनाएं 20 हफ्ते के गर्भ तक मिल ही नहीं पाती हैं. और जब खतरे का पता चलता है तब तक 1971 वाला गर्भपात कानून सामने आ जाता है.

 

अब इस समस्‍या को एक उदाहरण से समझते हैं, जो इस समय सुप्रीम कोर्ट के सामने है. बलात्कार पीड़ित एक महिला ने कोर्ट से गुहार लगाई है कि उसे 24 हफ्ते के अपने गर्भ को अबॉर्ट करने की इजाजत दी जाए. महिला की याचिका के मुताबिक, उसके गर्भ में पल रहे भ्रूण का विकास ठीक से नहीं हुआ है. भ्रूण एंसीफेली नाम की बीमारी से ग्रस्त है और उसके मस्तिष्क का विकास भी रुक गया है. महिला के डॉक्टरों का मत है कि डेलिवरी के बाद शिशु के जीने की संभावना लगभग न के बराबर है.

इसे भी पढ़ें: बलात्कार का बोझ: एक तत्काल जिंदगी के लिए एक लंबी मौत

अब मौजूदा कानून के मुताबिक बलात्कार पीड़ित इस महिला का अबॉर्शन नहीं किया जा सकता क्योंकि इस भ्रूण को 20 हफ्ते से ज्यादा समय हो गया है. हालांकि कानून में प्रावधान है कि 20 हफ्ते से ज्यादा के भ्रूण को तभी अबॉर्ट किया जा सकता है जब उससे गर्भवती महिला के जान को कोई खतरा हो. अब कानून के इस पक्ष से भी महिला को कोई मदद नहीं मिल रही है क्योंकि मौजूदा कानून गर्भवती महिला के स्वास्‍थ्‍य की बात तो जरूर करता है लेकिन भ्रूण के जीवन से उसका कोई लेना-देना नहीं है.

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हालांकि, इस आशय का संशोधन बिल संसद में इंतजार कर रहा है जिसमें मेडिकल टर्मिनेशन ऑफ प्रेग्नेंसी एक्ट में सुधार किया जाना है. लेकिन फिलहाल इस मामले को बेहद गंभीरता से लेते हुए सुप्रीम कोर्ट ने केन्द्र और महाराष्ट्र सरकार को एक मेडिकल कमेटी गठित कर इस महिला के अबॉर्शन पर अपना रुख साफ करने के लिए कहा है. माना जा रहा है कि सुप्रीम कोर्ट इस मामले में अब और देरी नहीं करना चाहती लिहाजा मेडिकल पैनल से रिपोर्ट मिलते ही वह अबॉर्शन की 20 महीने की मियाद पर अपना फैसला सुना देगी.

उम्‍मीद है, अबॉर्शन के मौजूदा कानून का दर्द पीड़ित महिलाओं को आगे चलकर नहीं सहना होगा?

इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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