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जख्म तो गुजरते वक्त भरेंगे, बलात्कार का बोझ जरूर कम हो जाएगा

    • मृगांक शेखर
    • Updated: 01 अगस्त, 2015 12:31 PM
  • 01 अगस्त, 2015 12:31 PM
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जल्द ही पूरे परिवार को मौजूदा मुश्किल से निजात मिल जाएगी. वो छात्रा फिर से स्कूल जा सकेगी. पिता फिर से दुकान संभाल लेगा. मां भी काम पर जाने लगेगी. फिलहाल बलात्कार का बोझ शायद थोड़ा कम हो जाए.

"मैं तो उसके आंसू भी नहीं पोंछ सकता"

एक बेबस पिता की मजबूरी सिर्फ इतनी ही नहीं है. 14 साल की बेटी की अस्मत लूट ली जाती है. पता तब चलता है जब गर्भ ठहरे हुए चार महीने बीत चुके होते हैं. साइकिल का पंक्चर बना कर घर चलाने वाले उस पिता पर तो जैसे पहाड़ ही टूट पड़ा, "उसकी हालत देखकर मुझे लगता था मैं खुदकुशी कर लूंगा."

मजबूरी और बेबसी

मजबूरी ये भी है कि वो बेटी को ढाढ़स बंधाए भी तो किस तरह. उससे कहे तो क्या कहे. मन मसोस कर रह जाता है, "हमारे परिवार में बाप-बेटी इन मसलों पर कभी बात नहीं करते." तीन बच्चों में दो बेटियां हैं. साइकिल की दुकान से गुजारा मुश्किल हो जाता है इसलिए पत्नी खेतों में काम करती है. पहले से ही एक बेटी न तो शारीरिक रूप से पूरी तरह सक्षम है और न ही मानसिक रूप से. ऊपर से घर की सबसे होनहार बेटी के साथ ये हादसा.

कहां वो मीठी गोलियां देता

वाकया इसी साल फरवरी का है. उसे टाइफाइड हो गया था. वो अपनी मां के साथ एक होम्योपैथिक डॉक्टर के पास गई थी. उस दिन उसने मीठी गोलियां नहीं दी. पुलिस के मुताबिक डॉक्टर ने मां को बाहर बैठा दिया. लड़की को अपने चेंबर में ले जाकर उसने एक इंजेक्शन लगाया. जब बेहोश हो गई तो उसने बलात्कार किया. छात्रा को बात तभी समझ आई जब उसे होश आया. डॉक्टर ने उसे जी भर धमकाया भी. शायद इसी डर से उसने मां को भी डॉक्टर की करतूत नहीं बताई.

चार महीने तक चुप रही

जब चार महीने तक माहवारी नहीं आई तो मां को शक हुआ. चेक अप के लिए डॉक्टर के पास गई. चेक कर डॉक्टर ने प्रेगनेंट होने की बात बताई. ये बात 28 जून की है. जांच में पता चला कि छात्रा का हीमोग्लोबिन लेवल इतना कम है कि डिलीवरी जानलेवा साबित हो सकती है. फिर पुलिस के मामला गया. 9 जुलाई को पिता ने सेशंस कोर्ट में अबॉर्शन कराने की अनुमति मांगी तो कानूनी मजबरी के चलते जज ने हाथ खड़े कर दिए. दरअसल, एमटीपी यानी मेडिकल टर्मिनेशन ऑफ प्रिगनेंसी एक्ट, 1971 के प्रावधानों के...

"मैं तो उसके आंसू भी नहीं पोंछ सकता"

एक बेबस पिता की मजबूरी सिर्फ इतनी ही नहीं है. 14 साल की बेटी की अस्मत लूट ली जाती है. पता तब चलता है जब गर्भ ठहरे हुए चार महीने बीत चुके होते हैं. साइकिल का पंक्चर बना कर घर चलाने वाले उस पिता पर तो जैसे पहाड़ ही टूट पड़ा, "उसकी हालत देखकर मुझे लगता था मैं खुदकुशी कर लूंगा."

मजबूरी और बेबसी

मजबूरी ये भी है कि वो बेटी को ढाढ़स बंधाए भी तो किस तरह. उससे कहे तो क्या कहे. मन मसोस कर रह जाता है, "हमारे परिवार में बाप-बेटी इन मसलों पर कभी बात नहीं करते." तीन बच्चों में दो बेटियां हैं. साइकिल की दुकान से गुजारा मुश्किल हो जाता है इसलिए पत्नी खेतों में काम करती है. पहले से ही एक बेटी न तो शारीरिक रूप से पूरी तरह सक्षम है और न ही मानसिक रूप से. ऊपर से घर की सबसे होनहार बेटी के साथ ये हादसा.

कहां वो मीठी गोलियां देता

वाकया इसी साल फरवरी का है. उसे टाइफाइड हो गया था. वो अपनी मां के साथ एक होम्योपैथिक डॉक्टर के पास गई थी. उस दिन उसने मीठी गोलियां नहीं दी. पुलिस के मुताबिक डॉक्टर ने मां को बाहर बैठा दिया. लड़की को अपने चेंबर में ले जाकर उसने एक इंजेक्शन लगाया. जब बेहोश हो गई तो उसने बलात्कार किया. छात्रा को बात तभी समझ आई जब उसे होश आया. डॉक्टर ने उसे जी भर धमकाया भी. शायद इसी डर से उसने मां को भी डॉक्टर की करतूत नहीं बताई.

चार महीने तक चुप रही

जब चार महीने तक माहवारी नहीं आई तो मां को शक हुआ. चेक अप के लिए डॉक्टर के पास गई. चेक कर डॉक्टर ने प्रेगनेंट होने की बात बताई. ये बात 28 जून की है. जांच में पता चला कि छात्रा का हीमोग्लोबिन लेवल इतना कम है कि डिलीवरी जानलेवा साबित हो सकती है. फिर पुलिस के मामला गया. 9 जुलाई को पिता ने सेशंस कोर्ट में अबॉर्शन कराने की अनुमति मांगी तो कानूनी मजबरी के चलते जज ने हाथ खड़े कर दिए. दरअसल, एमटीपी यानी मेडिकल टर्मिनेशन ऑफ प्रिगनेंसी एक्ट, 1971 के प्रावधानों के तहत गर्भाधान के 20 सप्ताह से अधिक अवधि के बाद गर्भपात कराना गैर-कानूनी माना जाता है. मगर जज ने राज्य सरकार को इलाज के लिए 25 हजार रुपये की मदद मुहैया कराने का हुक्म दिया.

जब गुजरात हाई कोर्ट में भी बात नहीं बनी तो पिता ने सुप्रीम कोर्ट में गुहार लगाई. सुप्रीम कोर्ट ने अबॉर्शन की इजाजत तो दी लेकिन तभी जब मेडिकल पैनल ऐसा जरूरी समझता हो. कोर्ट के आदेश पर स्त्री रोक विशेषज्ञों ओर एक क्लिनिकल सायकॉलॉजिस्ट को मिलाकर एक पैनल बनाया गया जिसने जांच के बाद अबॉर्शन कराने की सलाह दी.

जल्द ही पूरे परिवार को मौजूदा मुश्किल से निजात मिल जाएगी. वो छात्रा फिर से स्कूल जा सकेगी. पिता फिर से दुकान संभाल लेगा. मां भी काम पर जाने लगेगी. फिलहाल बलात्कार का बोझ शायद थोड़ा कम हो जाए. धीरे धीरे दिलो-दिमाग पर पड़ा जख्म भी भरने लगेगा. वक्त से कारगर अब तक कोई मरहम भी तो नहीं बना.

अब तक वो उम्मीदों के ही सहारे रहे. जब सुप्रीम कोर्ट पहुंचे तो उम्मीद बंधी भी और बढ़ी भी. महिलाओं के लिए हाल फिलहाल सुप्रीम कोर्ट में दस्तक मसीहा से मुलाकात जैसी रही है. रेप के एक मामले में बलात्कारी और पीड़ित की शादी कराने के मामले को सिरे से खारिज करते हुए कोर्ट ने पीड़ित महिला के लिए सबसे अपमानजनक माना. सिंगल मदर के केस में पिता के बगैर भी संरक्षण का पूरा अधिकार भी सुप्रीम कोर्ट ने दिया है.

सुप्रीम कोर्ट जाकर उस पिता को भी लगा कि मसीहा के पास पहुंचे हैं. अब तो यकीन भी हो गया होगा. यकीन इस बात का भी कि उन्हें एक दिन इंसाफ भी जरूर मिलेगा.

इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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