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होली, दिवाली और बकरीद: ये त्योहार हैं या समस्‍या?

    • बिलाल एम जाफ़री
    • Updated: 21 अगस्त, 2018 07:13 PM
  • 21 अगस्त, 2018 07:13 PM
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सोशल मीडिया के कारण एक अजीब दौर चल पड़ा है, त्योहार आते नहीं और लोग विरोध करना शुरू कर देते हैं. होली और दिवाली जा चुकी है बकरीद आने वाली है और ऐसे में वो लोग सक्रिय हो गए हैं जो इस त्योहार का विरोध करने वाले हैं.

डिजिटल इंडिया में मेरा आपका हम सब का स्वागत है. डिग्री लिए हाथों में भले ही नौकरी हो या न हो. महंगे स्मार्ट फोन और उसपर भी जियो, एयरटेल, वोडाफोन की तरफ से कम दरों पर बांटे जा रहे डाटा की बदौलत लाइक कमेन्ट शेयर कर हम जिंदगी गुजार रहे हैं. डिजिटल इंडिया ऊपर से सोशल मीडिया का दौर. एक तो करेला ऊपर से नीम चढ़ा. सोशल मीडिया पर लिखा जा रहा है सोशल मीडिया पर लिखी बातों को पढ़ा जा रहा है. आम से लेकर खास तक होड़ लगी है कि कौन कितना बड़ा बुद्धिजीवी है. एक रेस है जहां सब भाग रहे हैं. रेस, जिसमें सबको आगे निकलना है. रेस जिसमें वरिष्ठ से लेकर कनिष्ठ तक, मध्यम से लेकर निम्न तक सब लगातार भागे जा रहे हैं.

सब को कुछ न कुछ सिद्ध करना है. ये सवाल प्रासंगिक है कि क्या सिद्ध करना है. मगर हां जो हो रहा है सब सोशल मीडिया के लिए सोशल मीडिया की खातिर हो रहा है. अपने को अल्पबुद्धियों और मंदबुद्धियों के बीच बुद्धिजीवी साबित करने के लिए हो रहा है.

जैसे जैसे बकरीद नजदीक आ रही है इस त्योहार का विरोध करने वाले सक्रिय हो गए हैं

होली और दिवाली बीत चुकी है बकरीद आ रही है. होली दिवाली से पहले हम पानी और हवा बचाने की अपीलें देख चुके हैं. बकरीद पर दया के पात्र बकरे हैं. हां वो बकरे जिनको लेकर मांसाहारियों ने शाकाहारियों के लिए अपने तर्क तैयार कर लिए हैं. मांसाहारी कह रहे हैं कि अगर इनके मांस से बनी चीजों का सेवन नहीं किया तो शरीर को प्रोटीन समेत अन्य पोषक तत्व नहीं मिल पाएंगे.

मांसाहारियों के इस अजीब से तर्क से असहमत शाकाहारियों ने कमर कस ली है. युद्ध की शुरुआत हो गई है. बैनर, पोस्टर, और पैम्पलेट के अलावा हैशटैग तैयार हैं. यलगार के साथ शंखनाद हो चुका है. शाकाहारी बुद्धिजीवियों के कूंचे में शोर है कि इस बकरीद जंग होगी घमासान होगी. मासूम बकरों को उनकी...

डिजिटल इंडिया में मेरा आपका हम सब का स्वागत है. डिग्री लिए हाथों में भले ही नौकरी हो या न हो. महंगे स्मार्ट फोन और उसपर भी जियो, एयरटेल, वोडाफोन की तरफ से कम दरों पर बांटे जा रहे डाटा की बदौलत लाइक कमेन्ट शेयर कर हम जिंदगी गुजार रहे हैं. डिजिटल इंडिया ऊपर से सोशल मीडिया का दौर. एक तो करेला ऊपर से नीम चढ़ा. सोशल मीडिया पर लिखा जा रहा है सोशल मीडिया पर लिखी बातों को पढ़ा जा रहा है. आम से लेकर खास तक होड़ लगी है कि कौन कितना बड़ा बुद्धिजीवी है. एक रेस है जहां सब भाग रहे हैं. रेस, जिसमें सबको आगे निकलना है. रेस जिसमें वरिष्ठ से लेकर कनिष्ठ तक, मध्यम से लेकर निम्न तक सब लगातार भागे जा रहे हैं.

सब को कुछ न कुछ सिद्ध करना है. ये सवाल प्रासंगिक है कि क्या सिद्ध करना है. मगर हां जो हो रहा है सब सोशल मीडिया के लिए सोशल मीडिया की खातिर हो रहा है. अपने को अल्पबुद्धियों और मंदबुद्धियों के बीच बुद्धिजीवी साबित करने के लिए हो रहा है.

जैसे जैसे बकरीद नजदीक आ रही है इस त्योहार का विरोध करने वाले सक्रिय हो गए हैं

होली और दिवाली बीत चुकी है बकरीद आ रही है. होली दिवाली से पहले हम पानी और हवा बचाने की अपीलें देख चुके हैं. बकरीद पर दया के पात्र बकरे हैं. हां वो बकरे जिनको लेकर मांसाहारियों ने शाकाहारियों के लिए अपने तर्क तैयार कर लिए हैं. मांसाहारी कह रहे हैं कि अगर इनके मांस से बनी चीजों का सेवन नहीं किया तो शरीर को प्रोटीन समेत अन्य पोषक तत्व नहीं मिल पाएंगे.

मांसाहारियों के इस अजीब से तर्क से असहमत शाकाहारियों ने कमर कस ली है. युद्ध की शुरुआत हो गई है. बैनर, पोस्टर, और पैम्पलेट के अलावा हैशटैग तैयार हैं. यलगार के साथ शंखनाद हो चुका है. शाकाहारी बुद्धिजीवियों के कूंचे में शोर है कि इस बकरीद जंग होगी घमासान होगी. मासूम बकरों को उनकी कुर्बानी का हक दिलाया जाएगा. इस बकरीद उन्हें कटने से बचाया जाएगा.

बहरहाल सवाल ये भी प्रासंगिक है कि बकरीद से पहले कितने बकरों को उनका हक मिलेगा कितने बकरे बचाए जाएंगे. सवाल इसलिए भी खड़ा हो रहा है कि क्योंकि बीती हुई होली और उससे पहले की कई होलियों में हम एक बड़े वर्ग या ये कहें कि बुद्धिजीवियों के एक समूह द्वारा पानी बचाने की और इन्हीं या इन्हीं जैसे दूसरे समूह से दिवाली में हवा बचाने की अपील करते देख चुके हैं. कितना पानी बचा कितनी हवा स्वच्छ हुई स्थिति हमसे छुपी नहीं है.

कहना गलत नहीं है कि सोशल मीडिया के इस दौर में 'विरोध' एक नया ट्रेंड है. जिसे देखो वही विरोध की आंच में अपने निजी हित का भुट्टा सेंकता नजर आ रहा है. होली दिवाली को बीते हुए एक लम्बा वक़्त बीत चुका है. इस पूरे मामले में कांवड़ यात्रा का उदाहरण देना सबसे सटीक रहेगा. अभी कुछ दिन पहले कांवड़ यात्रा चल रही थी. महादेव् को जल चढ़ाने के लिए भक्त सड़कों पर थे. सड़कों पर बम भोले का जाप करते इन भक्तों को देखना भर था, बुद्धिजीवी नाराज हो गए और इन्हें अराजक और समाज के सौहार्द के लिए खतरे के आलवा और न जाने क्या क्या बता दिया.

अभी होली आती भी नहीं है कि लोग वाटर लेस होली को लेकर अपना अपना मोर्चा खोल देते हैं

इनकी आस्था पर प्रश्नचिन्ह लगाने से पहले इन्होंने इस बात की जरा भी परवाह नहीं की कि आधी समस्याओं की जड़ पूर्वाग्रह हैं. यदि उन पूर्वाग्रहों को नजरंदाज कर दिया जाए तो स्थिति वैसी नहीं होगी जैसी अभी है. बल्कि वैसी होगी जहां हर आदमी अमन सुकून से रहेगा. ऐसा ही कुछ मिलता जुलता हाल बकरीद, दिवाली और होली समेत कई अन्य त्योहारों का है. त्योहार आते नहीं हैं और रंग में भंग पड़ना पहले ही शुरू हो जाता है.

यहां मुद्दा न आरोप है न प्रत्यारोप. बस एक फैसला करना है कि क्या वाकई हमारा चीजों के प्रति विरोध पर्यावरण के हित के लिए, हमारे परिवेश को रहने लायक बनाने के लिए है? कहीं ऐसा तो नहीं कि ये विरोध और इस विरोध पर समर्थन हम सोशल मीडिया पर अपने-अपने फॉलोवर्स को खुश करने के लिए कर रहे हैं.

अंत में हम बस इस नोट पर अपनी बात खत्म करेंगे कि चाहे विरोध हो या समर्थन हमें उसे करने का अधिकार तब है जब हम वाकई अपने प्रति, अपने आस पास के प्रति गंभीर हों. यदि हम इसे सोशल पर वाहवाही लूटने के लिए कर रहे हैं तो निश्चित तौर पर न हम कभी होली में पानी बचा पाएंगे न दिवाली में हवा और बकरीद में बकरे बचाने और उन्हें उनका खोया हुआ हक दिलाने का तो सवाल ही नहीं पैदा होता.

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इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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