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Women's Day 2022: महिलाओं के खिलाफ पुरुष ही नहीं, महिलाएं भी लामबंद हैं!

    • अनु रॉय
    • Updated: 08 मार्च, 2022 05:49 PM
  • 08 मार्च, 2022 05:49 PM
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International women's day पर चाहे कितने लम्बे लेख लिख दिए जाएं, कितने ही भाषण कर लिए जाएं जब तक औरतें, औरतों को सपोर्ट नहीं करेंगी हमें कोई जीत हासिल नहीं होने वाली. काश कि औरतें साथ वाली औरतों को आगे लाने में मदद करती न कि उसके बढ़ते कदम को पीछे खींचने की प्लानिंग प्लॉटिंग!

बाक़ी सब कुछ ठीक है लेकिन एक चीज़ जो पिछले कुछ सालों में अपने काम के दौरान वर्क-प्लेस से सीखी और समझी है वो ये कि पुरुषों से ज़्यादा तकलीफ़ आपकी प्राग्रेस से वहां साथ काम कर रही औरतों को होती है. उन स्त्रियों में ख़ुद को बेहतर कैसे बनाएं से ज़्यादा स्ट्रॉंग इमोशन ये होता है कि दूसरी लड़की/औरत को आगे बढ़ने से कैसे रोका जाए. उसके काम की तारीफ़ उसे नहीं मिले, इन फ़ैक्ट उसकी मेहनत को भी अपने नाम कर लें बॉस के सामने. पुरुष इतना ज़्यादा पॉलिटिक्स नहीं करते जितना औरतें दूसरी औरतों के ख़िलाफ़ कर लेती हैं. पेट्रीआर्की के लिए अगर ख़ाली पुरुष ज़िम्मेदार होते तो आज दुनिया से ये टर्म ख़त्म हो चुका होता. स्त्रियां अपने मतलब के लिए पेट्रीआर्की को पालती हैं, बढ़ाती हैं.

ऑफ़िस छोड़िए सोसाइटी/मोहल्ले का उदाहरण भी देखिए. जितना जज औरतें, औरतों को करती हैं मर्द कभी नहीं करते. मर्द दूसरे तमाम तरीक़े अपना कर स्त्रियों को सताते हैं उनसे इनकार नहीं है लेकिन औरतें ज़िम्मेदार हैं अपनी हर हार के लिए. बताइए गोरी बहू के लिए कितने ससुर नाक भौं सिकुड़ाते मिलते हैं?

महिलाओं के बीच की आपसी राजनीति में उनके करियर में तमाम तरह की बाधाएं लाती है

कितने ससुर को इस बात से तकलीफ़ होती है कि उनका बेटा बहू को रसोई में हेल्प करके जोरू का ग़ुलाम हुआ जा रहा है? सास को हर चीज़ से परेशानी होती है ज़्यादातर ससुर की तुलना में. अब अगर साइकोलॉजी की बात करें तो एक चीज़ समझ में आती है कि स्त्रियां ही आख़िर अपने साथ वाली स्त्रियों से इतनी नफ़रत या चिढ़तीं क्यों हैं?

तो इसका जो सबसे मज़बूत पक्ष दिखता है वो ये कि ये स्त्रियां जो साथ वाली स्त्रियों से बैर रखती हैं वो कहीं न कहीं खुद को ले कर ख़ुश नहीं हैं. वो अपने आप में कुंठित हैं. वो असुरक्षित महसूस करती...

बाक़ी सब कुछ ठीक है लेकिन एक चीज़ जो पिछले कुछ सालों में अपने काम के दौरान वर्क-प्लेस से सीखी और समझी है वो ये कि पुरुषों से ज़्यादा तकलीफ़ आपकी प्राग्रेस से वहां साथ काम कर रही औरतों को होती है. उन स्त्रियों में ख़ुद को बेहतर कैसे बनाएं से ज़्यादा स्ट्रॉंग इमोशन ये होता है कि दूसरी लड़की/औरत को आगे बढ़ने से कैसे रोका जाए. उसके काम की तारीफ़ उसे नहीं मिले, इन फ़ैक्ट उसकी मेहनत को भी अपने नाम कर लें बॉस के सामने. पुरुष इतना ज़्यादा पॉलिटिक्स नहीं करते जितना औरतें दूसरी औरतों के ख़िलाफ़ कर लेती हैं. पेट्रीआर्की के लिए अगर ख़ाली पुरुष ज़िम्मेदार होते तो आज दुनिया से ये टर्म ख़त्म हो चुका होता. स्त्रियां अपने मतलब के लिए पेट्रीआर्की को पालती हैं, बढ़ाती हैं.

ऑफ़िस छोड़िए सोसाइटी/मोहल्ले का उदाहरण भी देखिए. जितना जज औरतें, औरतों को करती हैं मर्द कभी नहीं करते. मर्द दूसरे तमाम तरीक़े अपना कर स्त्रियों को सताते हैं उनसे इनकार नहीं है लेकिन औरतें ज़िम्मेदार हैं अपनी हर हार के लिए. बताइए गोरी बहू के लिए कितने ससुर नाक भौं सिकुड़ाते मिलते हैं?

महिलाओं के बीच की आपसी राजनीति में उनके करियर में तमाम तरह की बाधाएं लाती है

कितने ससुर को इस बात से तकलीफ़ होती है कि उनका बेटा बहू को रसोई में हेल्प करके जोरू का ग़ुलाम हुआ जा रहा है? सास को हर चीज़ से परेशानी होती है ज़्यादातर ससुर की तुलना में. अब अगर साइकोलॉजी की बात करें तो एक चीज़ समझ में आती है कि स्त्रियां ही आख़िर अपने साथ वाली स्त्रियों से इतनी नफ़रत या चिढ़तीं क्यों हैं?

तो इसका जो सबसे मज़बूत पक्ष दिखता है वो ये कि ये स्त्रियां जो साथ वाली स्त्रियों से बैर रखती हैं वो कहीं न कहीं खुद को ले कर ख़ुश नहीं हैं. वो अपने आप में कुंठित हैं. वो असुरक्षित महसूस करती हैं ख़ुद से ज़्यादा मज़बूत/शिक्षित/आज़ाद लड़कियों/औरतों को देख कर. ये वक़्त उनकी ज़िंदगी में वो रहा होगा जब वो ऐसी ही ज़िंदगी जीना चाहती रही होंगी लेकिन जो चाह रही थीं वो हो न पायीं इसलिए कड़वाहट उनके अंदर भर गयी.

वही कड़वाहट ईर्ष्या/जलन तो कभी साथ की औरतों पर अत्याचार करके निकलता रहता है. और पुरुष की सत्ता बची रहे इसलिए ऐसी औरतों को वो सपोर्ट करते हैं. पेट्रीआर्की का खेल ऐसे ही तो चलता है.

International women's day पर चाहे कितने लम्बे लेख लिख दिए जाएं, कितने ही भाषण कर लिए जाएं जब तक औरतें, औरतों को सपोर्ट नहीं करेंगी हमें कोई जीत हासिल नहीं होने वाली. काश कि औरतें साथ वाली औरतों को आगे लाने में मदद करती न कि उसके बढ़ते कदम को पीछे खींचने की प्लानिंग प्लॉटिंग!

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इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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