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यूपी में सियासी फतवों वाली दुकानों का शटर डाउन!

    • नवेद शिकोह
    • Updated: 10 अप्रिल, 2019 10:56 PM
  • 10 अप्रिल, 2019 10:56 PM
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2019 का चुनाव इसलिए भी दिलचस्प है क्योंकि ऐसा पहली बार हुआ है जब चाहे कांग्रेस हो या फिर भाजपा दोनों ही दलों के नेताओं ने मुस्लिम आबादी को प्रभावित करने वाले मुस्लिम धर्मगुरुओं को अपने से बिल्कुल अलग कर दिया है.

जरूरी नहीं कि जो पहले होता रहा है वो अब भी हो. पहले दुल्हन का घूंघट में होना जरूरी था. पहले चुनाव में कुछ राजनीतिक दल अपने पक्ष में मौलाना की अपील भी जारी करवाना जरूरी समझत थे. जमाना बदला तो घूंघट तो छोड़िए खुले सिर दुल्हन नजर आने लगी. लोकतंत्र के इतिहास में हर चुनावी बारात में दुल्हन के जरूरी घूंघट की तरह उलेमा की अपीलों का एक महत्व था. एक आदेश से चुनाव पलट जाते थे. चुनावी खबरों में उलमा के फतवे सुर्खियां बनते थे. इस बार लोकसभा का पहला चुनाव है जब पार्टियां चुनावी अपीलों के लिए उलेमा की खुशामद करना तो दूर उन्हें अपने पास फटकने तक नहीं दे रही हैं.सियासत की फितरत भी बहुत स्वार्थी होती है.

जब वक्त पड़ता है तो वो गधे को भी बाप बना लेती है और जब वक्त बदलता है तो जिसे कभी बाप समझती थी उसे गधा समझ कर अपने से दूर हका देती है. वक्त के साथ पब्लिक का मूड बदल गया है. चुनाव में बहुसंख्यक हिन्दू समाज उलमा की अपीलों (जिसे मीडिया की जबान में फतवा कहा जाता है) से नफरत करने लगा है. और अल्पसंख्यक समाज के मुसलमानों को अपने उलमा की चुनावी अपीलों से नफरत नहीं इंतेहा से ज्यादा नफरत और चिढ़ हो गई है. मुस्लिम समाज को शक होने लगा है कि चंद उलमा राजनीतिक दलों से पैसा लेकर मुसलमानों को किसी पार्टी विशेष को वोट देने का फरमान जारी करते हैं.

लखनऊ में आयोजित एक कार्यक्रम में शिया धर्मगुरुओं मौलाना कल्बे जव्वाद, मौलाना हमीदुल हसन, मौलाना यासूब अब्बास के साथ गृह मंत्री राजनाथ सिंह

ये उलेमा हर चुनावी सीजन में स्वार्थवश क़ौम को गुमराह करके खुद करोड़पति हो जाते हैं. किसी पार्टी की विचारधारा या उसकी बैकग्राउंड पर नहीं उनके मोटे ऑफर पर उसे वोट देने का फरमान जारी किया जाता है. गोयाकि मुस्लिम समाज की खुद की सोच, आंकलन, फैसला और विवेक शून्य है. मौलाना अपनी क़ौम...

जरूरी नहीं कि जो पहले होता रहा है वो अब भी हो. पहले दुल्हन का घूंघट में होना जरूरी था. पहले चुनाव में कुछ राजनीतिक दल अपने पक्ष में मौलाना की अपील भी जारी करवाना जरूरी समझत थे. जमाना बदला तो घूंघट तो छोड़िए खुले सिर दुल्हन नजर आने लगी. लोकतंत्र के इतिहास में हर चुनावी बारात में दुल्हन के जरूरी घूंघट की तरह उलेमा की अपीलों का एक महत्व था. एक आदेश से चुनाव पलट जाते थे. चुनावी खबरों में उलमा के फतवे सुर्खियां बनते थे. इस बार लोकसभा का पहला चुनाव है जब पार्टियां चुनावी अपीलों के लिए उलेमा की खुशामद करना तो दूर उन्हें अपने पास फटकने तक नहीं दे रही हैं.सियासत की फितरत भी बहुत स्वार्थी होती है.

जब वक्त पड़ता है तो वो गधे को भी बाप बना लेती है और जब वक्त बदलता है तो जिसे कभी बाप समझती थी उसे गधा समझ कर अपने से दूर हका देती है. वक्त के साथ पब्लिक का मूड बदल गया है. चुनाव में बहुसंख्यक हिन्दू समाज उलमा की अपीलों (जिसे मीडिया की जबान में फतवा कहा जाता है) से नफरत करने लगा है. और अल्पसंख्यक समाज के मुसलमानों को अपने उलमा की चुनावी अपीलों से नफरत नहीं इंतेहा से ज्यादा नफरत और चिढ़ हो गई है. मुस्लिम समाज को शक होने लगा है कि चंद उलमा राजनीतिक दलों से पैसा लेकर मुसलमानों को किसी पार्टी विशेष को वोट देने का फरमान जारी करते हैं.

लखनऊ में आयोजित एक कार्यक्रम में शिया धर्मगुरुओं मौलाना कल्बे जव्वाद, मौलाना हमीदुल हसन, मौलाना यासूब अब्बास के साथ गृह मंत्री राजनाथ सिंह

ये उलेमा हर चुनावी सीजन में स्वार्थवश क़ौम को गुमराह करके खुद करोड़पति हो जाते हैं. किसी पार्टी की विचारधारा या उसकी बैकग्राउंड पर नहीं उनके मोटे ऑफर पर उसे वोट देने का फरमान जारी किया जाता है. गोयाकि मुस्लिम समाज की खुद की सोच, आंकलन, फैसला और विवेक शून्य है. मौलाना अपनी क़ौम को जिधर हंका देगा झुंड उधर ही जायेंगे. कभी इस दल का समर्थन और उस दल का विरोध तो कभी उस दल की मुखालिफत और इस दल का समर्थन. किसी पार्टी का समर्थन करने या उसे वोट देने की अपील करने वाले कोई भी मौलाना कभी भी अपनी जुबान पर कायम नहीं रहा.

दलबदलू उलेमा हर चुनाव में पार्टियों पर अपनी आस्था बदलते रहे. कभी भाजपा को हराने के लिये कांग्रेस के लिए वोट मांगा तो कभी सपा को हराने और बसपा को जिताने की अपील की. केंद्र और प्रदेश दोनों जगह भाजपा सत्ता मे आ गयी तो भाजपा पर अक़ीदा कायम कर लिया. देश की सत्ता का दरबार दिल्ली में सजता है और दिल्ली की सत्ता का रास्ता यूपी तय करती है. शायद इसलिए एक दिल्ली के और एक लखनऊ के उलमा हर चुनाव में वोट अपील करते रहे हैं.

अखिलेश यादव के साथ मुस्लिम धर्मगुरु खालिद रशीद फिरंगीमहली

मुसलमानों के दो अलग-अलग समुदायों के ये उलमा इस बार के चुनाव में खामोश हैं, परिस्थितियों ने इनकी बोलती बंद कर दी है. राजनीति परिदृश्य इतना बदल है कि शायद कोई भी दल उन्हे कोई ऑफर नहीं दे रहा. मोहब्बत और जंग की तरह सियासत में भी बहुत कुछ जायज हो जाता है. नीतियां, विचारधारा, दोस्ती-दुश्मनी सियासी जरूरत सबको उलट पुलट कर देती है.ऐसा नहीं है कि मूल रूप से सियासत से जुड़े नेता ही दलबदल कर अपनी विचारधारा से पलट जाते हैं.

जब भी कोई राजनीति से रिश्ता बनाना शुरू करता है तो सियासी जरूरते उसे भी दलबदलू बनने पर मजबूर कर देती हैं. कलाकार भी राजनीति में आ जाये तो उसे दलबदलू बनने पर मजबूर होना पड़ता है. यहां तक सियासत में पड़ने वाले उलमा भी अपना रंग बदलते रहते हैं. भोजपुरी स्टार मनोज तिवारी ,रविकिशन, दिनेश यादव उर्फ महरूआ ने राजनीति आस्था बदली. राजबब्बर से लेकर शत्रुघ्न सिन्हा जैसे तमाम कलाकार राजनीति में आने के बाद किसी एक दल में टिक नहीं सके.

इस सियासी फितरत से धार्मिक गुरु/मौलाना भी अछूते नहीं रहे. दिल्ली की शाही जामा मस्जिद के इमाम बुखारी ने हर चुनाव में अपनी सियासी आस्था बदली. शाही इमाम ने कभी किसी पार्टी को मुसलमानों के लिए फायदेमंद बताया तो कभी किसी दल को वोट देने की अपील जारी की. कभी कांग्रेस, कभी समाजवादी पार्टी तो कभी बहुजन समाज पार्टी को जिताने का हुक्म जारी किया. दिल्ली की कुर्सी यूपी तय करता है इसलिए लखनऊ मे भी सियासत की गंगा में हाथ धोने वाले कुछ उलेमा हर चुनाव में पार्टियों को जिताने और हराने की अपीलों की दुकान चलाने लगते हैं.

गृहमंत्री राजनाथ सिंह और यूपी के उप मुख्यमंत्री दिनेश शर्मा के साथ मौलाना कल्बे जव्वाद

चौथे कहार के रूप में चुनावों की डोली उठाने वाले उलेमा किसी एक पार्टी पर आस्था और विश्वास नहीं रखते. इनकी राजनीति आस्था अस्थायी होती है. बदलती रहती है. इस बार इस पार्टी की विचारधारा की पार्टी पर विश्वास करेंगे तो अगली बार दूसरी विचारधारा वाली पार्टी पर इनका दिल आ जाता है. राजनेताओं और कलाकारों की तरह मौलाना भी दल बदलने के बड़े कलाकार होते है. एक जमाने में लखनऊ में एक मशहूर मौलाना अपने धार्मिक फर्ज निभाने के साथ कभी कभी राजनीति बयानबाजी भी कर लेते थे.

उनका दौर खत्म हुआ. आज हालत ये है कि एक मौलाना राजनीति बयानबाजी ही करते हैं. सियासी मसरूफियत से वक्त निकाल कर कभी कभी धार्मिक फर्ज ही निभा पाते होंगे. पुराने दौर के मौलाना कांगेसी थे, जो बाद म़े भाजपाई हो गये थे. आज के दौर के धार्मिक नेता यानी मौलाना साहब हर पार्टी के समर्थन में अपीलें कर चुके हैं और हर पार्टी की मुखालिफत कर हर पार्टी को हराने की भी अपीलें कर चुके है. उनसे कोई पार्टी नहीं बची. सबका समर्थन भी और सबका विरोध भी कर चुके हैं.

आम तौर पर वो जिस पार्टी की सरकार आती है उस पार्टी और उसकी सरकार पर आस्था व्यक्त कर देते हैं. चुनावी मौसम में जिसकी सरकार बनती देखते हैं उस पार्टी को मुसलमानों की हमदर्द पार्टी होने का फरमान जारी कर देते हैं. एक जमाने में इन मौलाना साहब ने यूपी में विधानसभा चुनाव के समय फरमान जारी किया कि मुसलमानों की मुखालिफ भाजपा को समाजवादी पार्टी ही हरा सकती है इसलिए सपा को वोट देने की अपील की.

दिल्ली जामा मस्जिद के शाही इमाम अहमद बुखारी की फाइल फोटू. बुखारी का शुमार उन लोगों में है जो दिल्ली से पश्चिमी यूपी की राजनीति को प्रभावित करते थे  

इत्तेफाक से सपा जीत गयी. इसी तरह दस बरस पहले लोकसभा चुनाव में मौलाना साहब ने भाजपा से डराकर कांग्रेस को जिताने का फरमान जारी किया. इत्तेफाक से कांग्रेस भी सत्ता में आ गई. अब इन्हें गलतफहमी हो गई कि अब हमेशा उनकी दुकान चलती रहेगी. फिर कांग्रेस सरकार से काम नहीं बना तो मौलाना द्वारा कांग्रेस भी भाजपा की तरह मुस्लिम विरोधी साबित कर दी गयी. मौलाना साहब को उत्तर प्रदेश की तत्कालीन अखिलेश यादव सरकार से बहुत उम्मीदें थी.

उन्होनें सपा सरकार के वक्फ मंत्री आजम खान के घर के चक्कर कांटे. तत्कालीन वक्फ मंत्री से काम नहीं बना तो तत्कालीन मुख्यमंत्री अखिलेश यादव से लेकर मुलायम सिंह यादव के घर के करीब सात-आठ चक्कर काटे. फिर भी काम नहीं बना तो मौलाना बागी हो गये. फिर विधानसभा चुनाव का टाइम आ गया तो भाजपा और सपा को हराने और बसपा को जिताने के लिए मौलाना चुनाव प्रचार में उतर आये. लेकिन सरकार भाजपा की बन गयी तो रातों रात मौलाना भाजपाई हो गये.

जिन नरेंद मोदी को हराने के लिए रोज़ा रखने की अपील करते थे वही नरेंद मोदी प्रधानमंत्री बन गये तो उनमें ऐब नहीं खूबियां दिखने लगीं. फिलहाल लोकसभा चुनाव तक मौलाना में भाजपा के प्रति आस्था बर्करार है. हालिया बयान में भी मौलाना ने योगी और मोदी सरकारों की सरकारों को कांग्रेस और सपा सरकारों से लाख दर्जे बेहतर बताया है. उन्होनें एक इंटरव्यू म़े कहा कि कांग्रेस और सपा की सरकारों में मुसलमान सुरक्षित नहीं थे.

भाजपा की सरकारों में मुसलमान महफूज हैं. तमाम बयानों के मद्देनजर संभावना थी कि मौलाना अपने कट्टर विरोधी सपा नेता आजम खान को रामपुर की सीट से हराने के लिए भाजपा प्रत्याशी जया प्रदा के समर्थन का आह्वान करेंगे. इसी तरह अखिलेश यादव और और राहुल गांधी के विरुद्ध मौलाना क्रमशः मरहुआ और स्मृति इरानी को जिताने की अपील करने का अनुमान था. लेकिन बात वहीं घूम फिर कर आ गई. राजनीति परिदृश्य बदल गया है.

ऐसे चंद उलमा से उनकी कौम भी खुश नहीं है. शिया और सुन्नी कुछ सामाजिक और धार्मिक संगठनों ने चेताननी दी है कि यदि किसी मौलाना ने किसी पार्टी को वोट देने का हुक्म दिया तो उस मौलाना का बहिष्कार किया जायेगा. हिन्दू समाज भी मौलवियों के फतवों से बेहद चिढ़ने लगा है. ऐसे में ऑफर तो छोड़िये, पार्टी इस बात की इजाजत ही नहीं दे रही है कि मौलाना उसके प्रत्याशियों को जिताने और मुखालिफ पार्टी को हराने की अपील करें. शटर डाउन.

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इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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