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वे कौन लोग हैं, जिन्हें भारत में तिरंगा-यात्रा भी बर्दाश्त नहीं हो रही !

    • पीयूष द्विवेदी
    • Updated: 28 जनवरी, 2018 05:57 PM
  • 28 जनवरी, 2018 05:57 PM
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मौजूदा तिरंगा-यात्रा प्रकरण में भी हुई हिंसा इनकी उपर्युक्त प्रवृत्तियों का ही एक और प्रकटीकरण भर है. राष्ट्रगान और राष्ट्रगीत के बाद अब इन्होंने राष्ट्रध्वज के प्रति भी अपने विरोध का ये उग्र और हिंसक प्रदर्शन किया है.

गणतंत्र दिवस पर जब देश में एकता-अखंडता और बंधुत्व की बातें हो रही थीं, यूपी के एटा जिले के कासगंज इलाके में बाइक से तिरंगा-यात्रा लेकर निकल रहे एबीवीपी और विश्व हिन्दू परिषद् के कार्यकर्ताओं पर कुछ लोगों द्वारा हमला कर दिया गया. इसमें एक व्यक्ति की मौत हो गयी. हालांकि थोड़ी देर में पुलिस ने स्थिति को नियंत्रण में कर लिया, जिससे यह घटना किसी बड़े और व्यापक दंगे का रूप नहीं ले सकी. छिटपुट घटनाओं के बावजूद अब स्थिति काफी हद तक नियंत्रित है. मगर इस घटना ने कुछ सवाल जरूर खड़े कर दिए हैं.

सबसे बड़ा सवाल यह है कि वे कौन लोग हैं, जिन्हें भारत में भारत के झंडे की शोभा-यात्रा बर्दाश्त नहीं हो रही? जिस झंडे को लहराता देख हर भारतीय का सीना गर्व से चौड़ा हो जाता है, उस झंडे से सुसज्जित यात्रा पर हमला करने वाले ये लोग क्या भारत के वासी नहीं हैं? अगर ये भारतीय नहीं, तो फिर हमारी जमीन पर क्या कर रहे? आखिर कौन हैं ये लोग?

तिरंगे के फहराने से जिसे दिक्कत हो उसे भारतीय कैसे माना जाए?

दरअसल ये वो लोग हैं, जो भारत की जमीन पर रहते हैं, इसी जमीन से उपजा अन्न-जल खाते-पीते हैं और यहीं की प्राणवायु से जीवित रहते हैं; लेकिन इस देश से पहले अपने मज़हब को मानते हैं. मज़हब की खातिर ये देश के मान-सम्मान और प्रतिष्ठा को अक्सर अनदेखा करते रहते हैं. कभी हमारे राष्ट्रगान पर आपत्ति जता कर, कभी भारत-भूमि की उर्वरता, विविधता और प्राकृतिक सौन्दर्य को सुचित्रित करने वाले राष्ट्रगीत का विरोध करके, तो कभी अपने मजहबी कायदों को भारतीय संविधान से बड़ा बताकर. ये लोग जब-तब इस बात का प्रमाण देते रहते हैं कि इनके लिए मजहब, मुल्क से कहीं अधिक बड़ा है.

गणतंत्र दिवस पर जब देश में एकता-अखंडता और बंधुत्व की बातें हो रही थीं, यूपी के एटा जिले के कासगंज इलाके में बाइक से तिरंगा-यात्रा लेकर निकल रहे एबीवीपी और विश्व हिन्दू परिषद् के कार्यकर्ताओं पर कुछ लोगों द्वारा हमला कर दिया गया. इसमें एक व्यक्ति की मौत हो गयी. हालांकि थोड़ी देर में पुलिस ने स्थिति को नियंत्रण में कर लिया, जिससे यह घटना किसी बड़े और व्यापक दंगे का रूप नहीं ले सकी. छिटपुट घटनाओं के बावजूद अब स्थिति काफी हद तक नियंत्रित है. मगर इस घटना ने कुछ सवाल जरूर खड़े कर दिए हैं.

सबसे बड़ा सवाल यह है कि वे कौन लोग हैं, जिन्हें भारत में भारत के झंडे की शोभा-यात्रा बर्दाश्त नहीं हो रही? जिस झंडे को लहराता देख हर भारतीय का सीना गर्व से चौड़ा हो जाता है, उस झंडे से सुसज्जित यात्रा पर हमला करने वाले ये लोग क्या भारत के वासी नहीं हैं? अगर ये भारतीय नहीं, तो फिर हमारी जमीन पर क्या कर रहे? आखिर कौन हैं ये लोग?

तिरंगे के फहराने से जिसे दिक्कत हो उसे भारतीय कैसे माना जाए?

दरअसल ये वो लोग हैं, जो भारत की जमीन पर रहते हैं, इसी जमीन से उपजा अन्न-जल खाते-पीते हैं और यहीं की प्राणवायु से जीवित रहते हैं; लेकिन इस देश से पहले अपने मज़हब को मानते हैं. मज़हब की खातिर ये देश के मान-सम्मान और प्रतिष्ठा को अक्सर अनदेखा करते रहते हैं. कभी हमारे राष्ट्रगान पर आपत्ति जता कर, कभी भारत-भूमि की उर्वरता, विविधता और प्राकृतिक सौन्दर्य को सुचित्रित करने वाले राष्ट्रगीत का विरोध करके, तो कभी अपने मजहबी कायदों को भारतीय संविधान से बड़ा बताकर. ये लोग जब-तब इस बात का प्रमाण देते रहते हैं कि इनके लिए मजहब, मुल्क से कहीं अधिक बड़ा है.

इनके साथ एक और समस्या है कि ये भावनाओं को हथेली पर लेकर चलते हैं, जो आए दिन जिस-तिस बात से आहत होती रहती हैं. इनकी भावनाएं आहत होने के बाद सबसे बड़ा डर भयानक उत्पात और हिंसा का तांडव मच जाने का पैदा हो जाता है, क्योंकि सहिष्णुता से अपने सम्बन्ध का परिचय ये लोग कम ही देते हैं. एक कमलेश तिवारी की कथित अमर्यादित टिप्पणी के बाद बीस लाख की संख्या में इनके समुदाय के लोग पश्चिम बंगाल के मालदा में कोहराम मचा देते हैं.

पश्चिम बंगाल में तो सरकार भी ऐसी है जो अपने वोटबैंक की राजनीति के चलते इनके उत्पातों पर कान धरने को तैयार नहीं दिखती. लेकिन, अन्य जगहों पर अगर सरकार ने इनकी हरकतों पर जरा-सी सख्ती दिखाई या इनकी क्रिया पर दूसरी तरफ से कोई प्रतिक्रिया हो गयी तो इनके समर्थक वामपंथी एवं तथाकथित सेक्युलर बुद्धिजीवी, देश में असहिष्णुता बढ़ने का राग लेकर उठ जाते हैं. मीडिया का भी एक तथाकथित सेक्युलर धड़ा ‘अल्पसंख्यकों पर अत्याचार’ जैसी आसमानी कहानी लेकर उतर पड़ता है.

मजहब के नाम पर राजनीति ने लोगों की सोच को कुंद कर दिया है

इन्हें अपना और अपने मजहब का वर्चस्व सर्वथा प्रिय है. इसीलिए जो दल इनके मजहब के आगे माथा झुकाता है, ये आंख बंद करके उधर वोट दे डालते हैं. इसी कारण अबतक ये सिर्फ कांग्रेस सहित विभिन्न तथाकथित सेक्युलर राजनीतिक दलों के वोट बैंक बने हुए हैं. ये दल चुनाव में इनका मजहबी तुष्टिकरण कर वोट तो झटक लेते हैं, मगर इनके समुदाय के विकास के लिए कभी कुछ ठोस नहीं करते. शिक्षा और विकास के मामले इनकी कौम आज भी पिछड़ी हुई है.

बहरहाल, मौजूदा तिरंगा-यात्रा प्रकरण में भी हुई हिंसा इनकी उपर्युक्त प्रवृत्तियों का ही एक और प्रकटीकरण भर है. राष्ट्रगान और राष्ट्रगीत के बाद अब इन्होंने राष्ट्रध्वज के प्रति भी अपने विरोध का ये उग्र और हिंसक प्रदर्शन किया है. हालांकि इनका पूरा समुदाय ऐसा नहीं है, मगर ऐसे लोगों के एक तबके के कारण इनकी पूरी कौम सवालों के घेरे में आ जाती है. खैर, क़ानून तो इन उपद्रवियों को सजा देगा ही, साथ ही उचित होगा कि इनकी कौम के राष्ट्रवादी लोग भी जहां ऐसे कट्टरपंथियों का पूर्ण बहिष्कार करें.

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इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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