• होम
  • सियासत
  • समाज
  • स्पोर्ट्स
  • सिनेमा
  • सोशल मीडिया
  • इकोनॉमी
  • ह्यूमर
  • टेक्नोलॉजी
  • वीडियो
होम
सियासत

चुनावों में कोविड प्रोटोकॉल के पालन पर वैष्णो देवी हादसा सवालिया निशान है

    • मृगांक शेखर
    • Updated: 02 जनवरी, 2022 10:19 PM
  • 02 जनवरी, 2022 10:18 PM
offline
वैष्णो देवी हादसा (Vaishno Devi Stampede) ओमिक्रॉन के खतरनाक रूप लेने की आशंका के बीच हुआ है. ऐसे में संदेह हो रहा है कि विधानसभा चुनाव (Assembly Elections 2022) में कोविड 19 प्रोटोकॉल (Covid 19 Protocol) सही तरीके से लागू भी हो पाएगा.

केंद्रीय मंत्री जितेंद्र सिंह के मुताबिक, वैष्णो देवी मंदिर के गेट नंबर 3 पर 'स्थिति आउट ऑफ कंट्रोल हो गयी...' - और भगदड़ (Vaishno Devi Stampede) मचने से 12 लोगों की मौत हो गयी. घायलों की तादाद उनसे ज्यादा है.

हादसे होते हैं. भीड़ भाड़ वाली जगहों पर हादसों की आशंका भी काफी होती है, लेकिन क्या वैष्णो देवी मंदिर पर हुई ये भगदड़ वाकई रोकी नहीं जा सकती थी? अगर भगदड़ मची भी तो क्या लोगों को मरने से नहीं बचाया जा सकता था?

पहला सवाल तो यही है कि ऐसी नौबत आयी ही क्यों? जो मंदिर पहुंचे थे वे कोई आंदोलनकारी तो थे नहीं. सभी श्रद्धालु थे. एक निर्धारित प्रक्रिया पूरी करने के बाद ही वहां तक पहुंचे थे - और ऐसा कोई पहली बार नहीं हो रहा था. ये तो रूटीन की बात थी.

महत्वपूर्ण बात ये है कि वहां अचानक भीड़ कैसे जुट गयी? वो भी तब जब ओमिक्रॉन के खतरनाक रूप लेने की आशंका जतायी जा रही है. दिल्ली से लेकर पूरे देश का सरकारी तंत्र कोविड प्रोटोकॉल को लेकर अलर्ट पर हो गया है. केंद्र की तरफ से राज्यों को गाइडलाइंस भेजी जा रही हैं. अभी अभी एक पत्र भी भेजा गया है जिसमें इंतजामों को दुरूस्त करने की हिदायत है.

अब क्या एहतियाती उपायों में से सोशल डिस्टैंसिंग को हटा दिया गया है? क्या प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का वो स्लोगन कोई मायने नहीं रखता - दो गज की दूरी और मास्क है जरूरी?

चाहे वो वैष्णो देवी हादसा हो या फिर चुनावी रैलियों का नजारा. लगता तो ऐसा ही है कि न तो किसी को दो गज की दूरी की...

केंद्रीय मंत्री जितेंद्र सिंह के मुताबिक, वैष्णो देवी मंदिर के गेट नंबर 3 पर 'स्थिति आउट ऑफ कंट्रोल हो गयी...' - और भगदड़ (Vaishno Devi Stampede) मचने से 12 लोगों की मौत हो गयी. घायलों की तादाद उनसे ज्यादा है.

हादसे होते हैं. भीड़ भाड़ वाली जगहों पर हादसों की आशंका भी काफी होती है, लेकिन क्या वैष्णो देवी मंदिर पर हुई ये भगदड़ वाकई रोकी नहीं जा सकती थी? अगर भगदड़ मची भी तो क्या लोगों को मरने से नहीं बचाया जा सकता था?

पहला सवाल तो यही है कि ऐसी नौबत आयी ही क्यों? जो मंदिर पहुंचे थे वे कोई आंदोलनकारी तो थे नहीं. सभी श्रद्धालु थे. एक निर्धारित प्रक्रिया पूरी करने के बाद ही वहां तक पहुंचे थे - और ऐसा कोई पहली बार नहीं हो रहा था. ये तो रूटीन की बात थी.

महत्वपूर्ण बात ये है कि वहां अचानक भीड़ कैसे जुट गयी? वो भी तब जब ओमिक्रॉन के खतरनाक रूप लेने की आशंका जतायी जा रही है. दिल्ली से लेकर पूरे देश का सरकारी तंत्र कोविड प्रोटोकॉल को लेकर अलर्ट पर हो गया है. केंद्र की तरफ से राज्यों को गाइडलाइंस भेजी जा रही हैं. अभी अभी एक पत्र भी भेजा गया है जिसमें इंतजामों को दुरूस्त करने की हिदायत है.

अब क्या एहतियाती उपायों में से सोशल डिस्टैंसिंग को हटा दिया गया है? क्या प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का वो स्लोगन कोई मायने नहीं रखता - दो गज की दूरी और मास्क है जरूरी?

चाहे वो वैष्णो देवी हादसा हो या फिर चुनावी रैलियों का नजारा. लगता तो ऐसा ही है कि न तो किसी को दो गज की दूरी की परवाह है - और न ही कोई मास्क की जरूरत ही महसूस कर रहा है?

अगर अभी ये हाल है तो कैसे यकीन हो कि चुनावों (Assembly Elections 2022) की घोषणा होने के बाद कोविड प्रोटोकॉल (Covid 19 Protocol) सख्ती से लागू होंगे ही - यूपी के पंचायत और पश्चिम बंगाल विधानसभा चुनाव का ट्रैक रिकॉर्ड तो ऐसी शंकाओं को मजबूत ही करता है.

अगर सोशल डिस्टैंसिंग लागू होता?

नये साल 2022 के पहले दिन ही वैष्णो देवी मंदिर में मची भगदड़ में मौत की खबर आती है. जनता तो अपने मन की ही करती है. भीड़ तो बेकाबू होती ही है. अगर ऐसा नहीं होता तो मॉब लिंचिंग जैसे अपराध होते ही क्यों? वो तो इसीलिये होता है क्योंकि कोई किसी को रोकने वाला नहीं होता.

पर्ची चेक करने वाले कहां थे: सुरक्षा इंतजामों के तहत चेक पोस्ट पर हर श्रद्धालु को मिली पर्ची चेक की जाती है और तभी एंट्री मिलती है. बताते हैं कि मंदिर के गेट पर पर्ची चेक न होने की वजह से ऐसी स्थिति पैदा हो गयी. मतलब, मंदिर के गेट पर भी न तो कोई पर्ची देखने वाला था, न कोई रोकने वाला ही, इसलिए भीड़ जुटती गयी. फिर इतनी भीड़ हो गयी कि स्थिति आउट ऑफ कंट्रोल हो गयी.

दो गज की दूरी, मास्क है जरूरी

साल के बाकी दिनों की बात और है, लेकिन अभी तो ऐसे हादसे की हालत ही पैदा नहीं होती - अगर सोशल डिस्टैंसिंग पर जरा भी फोकस होता. न तो बड़ी संख्या में पर्ची बनती और न ही कोई चेक पोस्ट से आगे बढ़ता और गेट नंबर 3 तक तो पहुंच भी नहीं पाता.

खबरों से ही मालूम होता है कि गेट के अंदर के सुरक्षा इंतजाम सही थे. भगदड़ के शिकार गोरखपुर के डॉक्टर अरुण के दोस्तों से मिली जानकारी से तो यही मालूम होता है. दर्शन के लिए डॉक्टर अरुण गर्भगृह के पास पहुंचे तो सुरक्षाकर्मियों ने उनको रोक दिया. क्योंकि वो स्मार्ट वॉच पहने हुए थे. सुरक्षाकर्मियों की सलाह पर वो स्मार्ट वॉच जमा करने क्लॉक रूप पहुंचे तभी भगदड़ मच गयी और वो चपेट में आ गये. जब दर्शन करने के बाद डॉक्टर अरुण के दोस्त बाहर आये तो वो नहीं मिले. काफी खोजने के बाद अस्पताल पहुंचे तो मौत की जानकारी मिली और फिर उनको शव सौंप दिया गया.

खुफिया जानकारी की यहां भी जरूरत थी क्या: रिपोर्ट बताती हैं कि बीते कई साल से एक ट्रेंड देखा जा रहा है कि 31 दिसंबर को पहुंचने वाले श्रद्धालुओं की संख्या 50 हजार तक होती है, लेकिन इस बार ये कई गुना बढ़ गई.

हादसे के बाद केंद्रीय मंत्री जितेंद्र सिंह कह रहे थे, 'पहले त्योहारों पर भीड़ हुआ करती थी... नयी पीढ़ी का दौर है और वो न्यू ईयर पर पहुंच रहे हैं...'

अव्वल तो इससे कोई दिक्कत होनी नहीं चाहिये, लेकिन अगर ऐसा है तो पाबंदी लगा दी जाये. आखिर संपूर्ण लॉकडाउन लागू होने पर लोग घरों में दुबके रहे कि नहीं? जब तक कोरोना गाइडलाइंस के तहत लागू पाबंदियां हटायी नहीं गयीं, बहुत जरूरी होने पर ही तो लोग निकल रहे थे.

शराब की दुकानों से लेकर सब्जी वाले बाजारों में भी लोग खींचे गये गोले में खड़ा हुआ करते थे कि नहीं?

और जब मालूम है कि लोग बड़ी संख्या में पहुंचने लगे हैं तो उसके हिसाब से एहतियाती उपाय तो किये ही जा सकते हैं - ये कोई ऐसी बात तो है नहीं जिसके लिए खुफिया इनपुट की जरूरत हो.

खुद जितेंद्र सिंह ही बताते हैं, 'दर्शन के लिए नंबर निर्धारित हैं...' फिर तो कभी समस्या ही नहीं होनी चाहिये थी. क्या नोटबंदी के दौरान दो-दो हजार रुपये के लिए लोग घंटों लाइन में लगे नहीं रहते थे? ये बात अलग है कि लोगों को जान तो वहां भी गंवानी पड़ी. अगर देश के एक आम नागरिक के जान की कोई कीमत नहीं है तो बात ही खत्म हो जाती है.

वैष्णो देवी मंदिर में भगदड़ क्यों मची और कैसे हालात बेकाबू हो गये - केंद्रीय मंत्री जितेंद्र सिंह ने पूरी जानकारी दी है. बताते हैं, गेट नंबर 3 पर कुछ युवाओं में धक्की मुक्की हो गयी थी जिसके बाद हालात बिगड़े. जितेंद्र सिंह का कहना है, 'कई बार श्रद्धालु मानते भी नहीं... स्थिति आउट ऑफ कंट्रोल हो गयी...'

लोग मानते नहीं ये कौन सी वजह हुई. अगर लोग इतने ही अनुशासित होते तो चेक पोस्ट पर पर्ची चेक करने के इंतजाम क्यों करने पड़ते? लोग मानते नहीं, इसीलिए तो प्रशासनिक तौर पर एहतियाती इंतजाम किये जाते हैं - आखिर धारा 144 कहीं लागू करने की जरूरत क्यों होती?

जवाब तो मनोज सिन्हा को भी देना होगा: लखनऊ सहित यूपी के कई शहरों में कमिश्नरेट सिस्टम लागू किये जाने में धारा 144 लागू करने में प्रशासनिक पेंच की भी भूमिका बतायी गयी थी. यूपी के ही अफसरों के हवाले से आयी मीडिया रिपोर्ट मे बताया गया था कि CAA यानी नागरिकता संशोधन कानून के खिलाफ विरोध प्रदर्शनों के दौरान कई जगह हालात इसलिए बेकाबू हो गये क्योंकि एहतियाती कदम वक्त रहते नहीं उठाये जा सके. ऐसा पुलिस और प्रशासनिक अफसरों के बीच आपसी तालमेल की कमी के चलते हुआ है. अफसरों का कहना रहा कि कई जगह तो एसपी और जिलाधिकारी के बीच ईगो-क्लैश के चलते भी समय रहते धारा 144 नहीं लागू किया जा सका था.

कम से कम वैष्णो देवी मंदिर के पास ऐसी कोई मुश्किल तो थी नहीं. वो भी आधी रात के बाद करीब पौने तीन बजे. अगर रुटीन में 25 हजार लोगों को ही जाने की अनुमति है तो इतने ज्यादा लोग कैसे पहुंच गये कि हालात बेकाबू हो गये?

जम्मू-कश्मीर के राज्यपाल मनोज सिन्हा ने घटना की जांच के आदेश दे दिये हैं. मुआवजे की भी घोषणा की जा चुकी है - लेकिन क्या कभी ये भी मालूम हो सकेगा कि वास्तव में ये चूक किस स्तर पर हुई और असली जिम्मेदारी किसकी बनती है?

जम्मू-कश्मीर में चुनाव से पहले चल रही डीलिमिटेशन के खिलाफ विरोध प्रदर्शन को देखते हुए महबूबा मुफ्ती और उमर अब्दुल्ला को फिर से नजरबंद कर लिया गया है. ये तो बताया जाता है कि घाटी में आतंकवादियों की शेल्फ लाइफ बहुत कम हो गयी है, लेकिन कोई ऐसा हफ्ता तो नहीं बीतता जब सुरक्षा बलों के साथ एनकाउंटर की बड़ी खबर न आती हो.

क्या वैष्णो देवी दर्शन करने जाने वाले श्रद्धालुओं को कंट्रोल करना भी उतना ही मुश्किल हो गया है जितना मुफ्ती और अब्दुल्ला का विरोध प्रदर्शन और आतंकवादी घटनाओं को रोक पाना?

अगस्त, 2020 में मनोज सिन्हा के उप राज्यपाल बनने के बाद ऐसी पहली घटना है जिस पर सहज तौर पर सवाल उठ रहे हैं - क्या सोशल डिस्टैंसिंग लागू होता तो ये हादसा हो पाता?

मास्क लगाने पर जोर क्यों नहीं?

वैष्णो देवी मंदिर परिसर में जो हुआ वो महज हादसा नहीं है. तरीके से न्योता दिये जाने के बाद हादसा हुआ है - और चुनावी रैलियों पर नजर डालें तो देखते ही समझ आ जाता है कि ओमिक्रॉन को भी शिद्दत से बुलावा भेजा जा रहा है.

2021 का हरिद्वार कुंभ, यूपी का पंचायत चुनाव और पश्चिम बंगाल में हुए विधानसभा चुनाव के दौरान पैदा हुए हालात गवाह हैं - लापरवाही के आगे क्या होता है? जम्मू-कश्मीर में साल के पहले ही दिन जो हुआ उसे जोड़ दें तो - हादसे, बीमारी और मौत कह सकते हैं.

इलाहाबाद हाई कोर्ट के जस्टिस शेखर कुमार यादव ने विधानसभा चुनाव टाल देने की प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से अपील की थी और उसके बाद चुनाव आयोग भी हरकत में आ गया - चुनाव न टलने थे, न ही टाले गये.

लखनऊ में राजनीतिक दलों के साथ राय मशविरे के बाद चुनाव आयोग ने प्रेस कॉन्फ्रेंस बुला कर बताया कि सभी पार्टियों ने समय पर ही चुनाव कराने की मांग की है. हां, उनकी तरफ से कोविड प्रोटोकॉल के साथ ही चुनाव कराये जाने की सलाह दी गयी है.

मुख्य निर्वाचन आयुक्त सुशील चंद्रा ने कई और भी महत्वपूर्ण बातें बतायीं. मसलन, 'अधिकारियों ने हमें बताया है कि 50 प्रतिशत आबादी का पूरी तरह से टीकाकरण हो गया है... - हमने आदेश दिया है कि सभी को कम से कम टीके की एक खुराक दी जाये... हर पात्र व्यक्ति को जल्द से जल्द दूसरी खुराक मिल जाये...'

चुनाव आयोग की तरफ से ये भी बताया गया कि कुछ राजनीतिक दल ज्यादा रैलियों के खिलाफ हैं. ठीक है. अगर किसी राजनीतिक दल को लोगों की इतनी फिक्र है तो वे साधुवाद के पात्र हैं - वैसे भी हाल फिलहाल हो रही रैलियों को देख कर तो जैसे रूह ही कांप उठती है.

भीड़ तो अपने नेता को फॉलो करती है. ज्यादातर रैलियों में जब नेता ही मास्क लगाये नजर न आते हों, तो भला लोगों से क्यों अपेक्षा हो. खास बात तो ये है कि इस मामले में पार्टीलाइन भी आड़े नहीं आ रही - हर रैली में एक जैसा ही नजरा है. कहीं कहीं मंच पर कुछ देर के लिए, वो भी कुछ ही नेता मास्क लगाये नजर आते हैं.

1. सोशल डिस्टैंसिंग पर समझौता न हो: चुनावी रैलियां हों. चाहे जहां कहीं भी हों, कोई दिक्कत नहीं है - बस, लोगों के बैठने के लिए बाजारों की तरह गोले बना दिये जायें तो कोई समस्या खड़ी ही नहीं हो सकती.

2. मास्क निश्चित तौर पर अनिवार्य हो: जैसे महाराष्ट्र में स्लोगन दिया गया है - मास्क नहीं तो भाजी नहीं, अगर ऐसा करना मुमकिन न हो तो भी उपाय तो किये ही जा सकते हैं. वैसे भी रैलियों के लिए भीड़ जुटाना कितना मुश्किल काम होता है, न तो कहने की जरूरत है और न समझने में कोई मुश्किल है.

अगर रैली की अवधि के लिए भी पार्टी के चुनाव निशान वाले मास्क लगाने के लिए लोगों को राजी कर लिया जाये तो छोटी कोशिश से भी काफी बड़ा काम हो जाएगा.

3. वर्चुअल रैलियों को तरजीह दी जाये: आखिर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी बंगाल चुनाव के आखिरी दौर में रैलियां रद्द कर दी तो वर्चुअल ही लोगों को संबोधित किये थे. सुनने वाले तो डटे ही रहे. बीजेपी नेताओं के अलावा लेफ्ट और टीएमसी की तरफ से तो ऐसा पहले से ही होने लगा था. 2020 के बिहार चुनाव से पहल जून में अमित शाह की जन संवाद रैली भी तो वर्चुअल ही हुई थी - और पूरे बिहार में लोग डटे हुए देखे गये थे.

ओमिक्रॉन कितना भी खतरनाक क्यों न हो. कितनी भी तेजी से क्यों न फैल रहा हो. वैक्सीनेशन को भी मुंह क्यों न चिढ़ा रहा हो, लेकिन मेडिकल साइंस की बुनियादी थ्योरी को मात देने की स्थिति में तो नहीं ही लगता है - रोगों की रोकथाम इलाज से बेहतर होता है.

अगर थोड़ी सी सावधानी बरती जाये तो ओमिक्रॉन कर ही क्या सकता है? किसी नये स्लोगन की भी जरूरत नहीं है. दो गज की दूरी और मास्क काफी है. बस इतने भर से ही कोई भी बाहुबली बने रह सकता है.

हाल ही में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का कहना रहा, '2021 को कोविड-19 महामारी के खिलाफ भारत की मजबूत लड़ाई के साथ-साथ पूरे साल किये गये सुधारों के लिए भी याद किया जाएगा.'

जस्टिस शेखर कुमार यादव की सलाह या अपील का तो वैसे भी कोई मतलब नहीं था, लेकिन वक्त पर हो रहे चुनावों के दौरान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी 'दो गज...' वाले स्लोगन पर ही सख्ती से अमल करा लें तो साल के आखिर में 2022 के लिए भी ऐसा कह सकते हैं.

इन्हें भी पढ़ें :

तिलिस्मी यूपी की सियासत में सर्वे और भीड़ छलावा, ईवीएम पर ही पत्ते खोलती है जनता

धर्म-व्यापार की राजनीति में गायब हुए जनहित के मुद्दे?

भगवान करें हर साल चुनाव आए और इसी बहाने महिलाओं का कल्याण हो जाए!


इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

ये भी पढ़ें

Read more!

संबंधि‍त ख़बरें

  • offline
    अब चीन से मिलने वाली मदद से भी महरूम न हो जाए पाकिस्तान?
  • offline
    भारत की आर्थिक छलांग के लिए उत्तर प्रदेश महत्वपूर्ण क्यों है?
  • offline
    अखिलेश यादव के PDA में क्षत्रियों का क्या काम है?
  • offline
    मिशन 2023 में भाजपा का गढ़ ग्वालियर - चम्बल ही भाजपा के लिए बना मुसीबत!
Copyright © 2025 Living Media India Limited. For reprint rights: Syndications Today.

Read :

  • Facebook
  • Twitter

what is Ichowk :

  • About
  • Team
  • Contact
Copyright © 2025 Living Media India Limited. For reprint rights: Syndications Today.
▲