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धारा 377 पर फैसला 'मौलिक अधिकार' और 'मानवीय पहलू' पर ही होगा

    • मृगांक शेखर
    • Updated: 05 सितम्बर, 2018 11:39 PM
  • 05 सितम्बर, 2018 11:39 PM
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चीफ जस्टिस दीपक मिश्रा को अपने कार्यकाल के आखिरी दिनों में जो फैसले सुनाने हैं, उन्हीं में से एक है - IPC की धारा 377 में समलैंगिकता का स्थान. देश की सबसे बड़ी अदालत को तय करना है कि समलैंगिकता को अपराध के दायरे में रखा जाये या नहीं?

धारा 377 को लेकर सरकार बचने की पूरी कोशिश कर रही है. देखा जाय तो पूरी तरह पल्ला झाड़ चुकी है. कुछ कुछ वैसे ही जैसे अयोध्या मामले को लेकर - जो भी सुप्रीम कोर्ट फैसला सुनाएगा, मंजूर होगा.

फर्क सिर्फ ये है कि अयोध्या मामले में बीजेपी के नेता गाहे-ब-गाहे अपने अपने हिसाब से दावा ठोकते रहते हैं, धारा 377 को लेकर कभी कभार ही कोई बयान सुनने को मिलता हो. वो भी बेहद नपे तुले शब्दों में. शायद उनके ज्यादातर शोध उस दिशा में है कि किसे कितने बच्चे पैदा करना चाहिये? समलैंगिकता उस दायरे से बहुत दूर की चीज है. बीजेपी के करीबियों में सिर्फ स्वामी रामदेव ही ऐसे हैं जो समलैंगिकता को खुलेआम बीमारी बताते हैं और उसे भी कैंसर की तरह क्योर करने का दावा करते हैं.

दरअसल, समलैंगिकता पुरानी मान्यताओं से काफी आगे की सोच है और सर्वोच्च अदालत भी अपने फैसले का आधार इसके मानवीय पहलू के साथ साथ मौलिक अधिकारों के पैमाने पर करने का संकेत दे चुकी है.

समलैंगिकता अधिकार है या अपराध?

सवाल एक ही है - समलैंगिकता अधिकार है या अपराध? फैसला सुप्रीम कोर्ट की संवैधानिक पीठ को करना है जिसकी अगुवाई चीफ जस्टिस मिश्रा कर रहे हैं. खास बात ये भी है कि जस्टिस दीपक मिश्रा महीने भर में रिटायर होने जा रहे हैं और उससे पहले जो महत्वपूर्ण फैसले उन्हें सुनाने में धारा 377 के तहत समलैंगिकता को किस कैटेगरी में रखा जाये, ये मामला भी है. संवैधानिक पीठ में चीफ जस्टिस दीपक मिश्रा के अलावा चार और जज हैं - आरएफ नरीमन, एएम खानविलकर, डीवाई चंद्रचूड़ और इंदु मल्होत्रा.

"हम इंतजार नहीं करेंगे..."

धारा 377 के मसले पर केंद्र सरकार का रवैया टालमटोल वाला रहा, लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने बेहद गंभीरता दिखायी है. संविधान पीठ की ओर से कड़ी टिप्पणी तब आयी जब कुछ गिरिजाघरों और उत्कल क्रिश्चयन एसोसिएशन की ओर से सीनियर वकील श्याम दीवान ने कहा कि धारा 377 में संशोधन करने या इसे बरकरार रखने के बारे में फैसला करना विधायिका का काम है.

धारा 377 को लेकर सरकार बचने की पूरी कोशिश कर रही है. देखा जाय तो पूरी तरह पल्ला झाड़ चुकी है. कुछ कुछ वैसे ही जैसे अयोध्या मामले को लेकर - जो भी सुप्रीम कोर्ट फैसला सुनाएगा, मंजूर होगा.

फर्क सिर्फ ये है कि अयोध्या मामले में बीजेपी के नेता गाहे-ब-गाहे अपने अपने हिसाब से दावा ठोकते रहते हैं, धारा 377 को लेकर कभी कभार ही कोई बयान सुनने को मिलता हो. वो भी बेहद नपे तुले शब्दों में. शायद उनके ज्यादातर शोध उस दिशा में है कि किसे कितने बच्चे पैदा करना चाहिये? समलैंगिकता उस दायरे से बहुत दूर की चीज है. बीजेपी के करीबियों में सिर्फ स्वामी रामदेव ही ऐसे हैं जो समलैंगिकता को खुलेआम बीमारी बताते हैं और उसे भी कैंसर की तरह क्योर करने का दावा करते हैं.

दरअसल, समलैंगिकता पुरानी मान्यताओं से काफी आगे की सोच है और सर्वोच्च अदालत भी अपने फैसले का आधार इसके मानवीय पहलू के साथ साथ मौलिक अधिकारों के पैमाने पर करने का संकेत दे चुकी है.

समलैंगिकता अधिकार है या अपराध?

सवाल एक ही है - समलैंगिकता अधिकार है या अपराध? फैसला सुप्रीम कोर्ट की संवैधानिक पीठ को करना है जिसकी अगुवाई चीफ जस्टिस मिश्रा कर रहे हैं. खास बात ये भी है कि जस्टिस दीपक मिश्रा महीने भर में रिटायर होने जा रहे हैं और उससे पहले जो महत्वपूर्ण फैसले उन्हें सुनाने में धारा 377 के तहत समलैंगिकता को किस कैटेगरी में रखा जाये, ये मामला भी है. संवैधानिक पीठ में चीफ जस्टिस दीपक मिश्रा के अलावा चार और जज हैं - आरएफ नरीमन, एएम खानविलकर, डीवाई चंद्रचूड़ और इंदु मल्होत्रा.

"हम इंतजार नहीं करेंगे..."

धारा 377 के मसले पर केंद्र सरकार का रवैया टालमटोल वाला रहा, लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने बेहद गंभीरता दिखायी है. संविधान पीठ की ओर से कड़ी टिप्पणी तब आयी जब कुछ गिरिजाघरों और उत्कल क्रिश्चयन एसोसिएशन की ओर से सीनियर वकील श्याम दीवान ने कहा कि धारा 377 में संशोधन करने या इसे बरकरार रखने के बारे में फैसला करना विधायिका का काम है.

फैसले की घड़ी आ गयी...

मुख्य न्यायाधीश दीपक मिश्रा ने बड़े ही साफ शब्दों में कहा कि भले ही केंद्र सरकार ने ने इस मुद्दे को हम पर छोड़ दिया लेकिन हम 377 की संवैधानिकता पर विस्तृत विश्लेषण करेंगे. सुनवाई के दौरान एक बार चीफ जस्टिस का कहना था, 'केंद्र के किसी मुद्दे को खुला छोड़ देने का मतलब ये नहीं है कि उसे न्यायिक पैमाने पर देखा नहीं जाएगा.'

1. ये यू टर्न नहीं है: केंद्र सरकार के रुख को लेकर जब यू टर्न की दलील दी गयी तो जस्टिस खानविलकर ने खारिज करते हुए कहा, 'ये यू टर्न नहीं है. निजता के अधिकार के बाद अब इस मामले को भी कोर्ट के विवेक पर छोड़ा गया है.'

जस्टिस चंद्रचूड़ को भी दलील में दम नजर नहीं आया, 'आप इसे कैसे यू टर्न कह सकते हैं. केंद्र ने 2013 के फैसले के खिलाफ अपील नहीं की थी.'

2. संविधान की नैतिकता जरूरी: केस की सुनवाई के दौरान एक याचिकाकर्ता की ओर से कहा गया कि केंद्र को इस पर आम राय लेनी चाहिए थी, लेकिन उसने मामले को कोर्ट पर छोड़ दिया. इस बारे में चीफ जस्टिस ने कहा - 'हम बहुमत की नैतिकता पर नहीं बल्कि संवैधानिक नैतिकता पर चलते हैं.'

3. हाथ पर हाथ धरे नहीं बैठ सकते: संविधान पीठ का ये भी कहना रहा - 'अगर कोई कानून मौलिक अधिकारों का हनन करता है तो अदालतें कानून बनाने, संशोधन करने या उसे निरस्त करने के लिए बहुमत की सरकार का इंतजार नहीं कर सकतीं.'

तस्वीर को थोड़ा और साफ करते हुए संविधान पीठ ने कहा, "हम मौलिक अधिकारों के उल्लंघन की समस्या से निबटने के लिए कानून बनाने, संशोधन करने अथवा कोई कानून नहीं बनाने के लिए बहुमत वाली सरकार का इंतजार नहीं करेंगे."

21वीं सदी में अंग्रेजों के जमाने का कानून!

IPC की धारा 377 भी जमाने के हिसाब से अप्रासंगिक लगने वाले कई कानूनों की तरह डेढ़ सौ साल पुराना हो चुका है. 1861 में जब लार्ड मैकाले ने आईपीसी का प्रारूप तैयार किया, तो समलैंगिकता को अपराध मानते हुए धारा 377 में जोड़ दिया. अब इसे खत्म करने की मांग हो रही है, लेकिन जो लोग इसके खिलाफ हैं वे अपनी दलीलों के साथ मैदान में गुजरे जमाने वाली मानसिकता के साथ ही डटे हुए हैं.

ये भी जान लीजिए कि धारा 377 में क्या है? धारा 377 के अनुसार, 'जो भी प्रकृति की व्यवस्था के विपरीत किसी पुरुष, महिला या पशु के साथ यौन संबंध बनाता है, उसे उम्र कैद या दस साल तक की कैद और जुर्माने की सजा हो सकती है.'

11 दिसंबर, 2013 को दिल्ली हाईकोर्ट ने दो बालिगों द्वारा आपसी सहमति से समलैंगिक संबंध बनाने को अपराध के दायरे से बाहर कर दिया. मामला जब सुप्रीम कोर्ट पहुंचा तो खारिज हो गया. दो साल पहले सुप्रीम कोर्ट ने धारा 377 के खिलाफ आठ सुधार याचिकाओं की सुनवाई करते हुए इसे संवैधानिक पीठ के हवाले कर दिया. अब फैसले की घड़ी आ चुकी है - काउंटडाउन शुरू हो चुका है.

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इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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