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रामचरित मानस विवाद RSS के लिए मंडल बनाम कमंडल जैसी ही चुनौती है

    • मृगांक शेखर
    • Updated: 05 फरवरी, 2023 07:48 PM
  • 05 फरवरी, 2023 07:48 PM
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रामचरितमानस विवाद (Ramcharitmanas Controversy) पर शुरू हुई राजनीति अभी तो नहीं थमने वाली है. ये विवाद यूपी-बिहार की जातीय राजनीति (Caste Politics) को भरपूर ईंधन मुहैया करा रहा है - बाकी सब तो फायदे में हैं, लेकिन नुकसान राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (RSS) को हो रहा है.

बिहार में रामचरितमानस विवाद (Ramcharitmanas Controversy) ऐसे वक्त पैदा हुआ है जब वहां जातीय सर्वेक्षण का काम चल रहा है. ये जातीय जनगणना का ही मुद्दा है जिसकी वजह से नीतीश कुमार और लालू यादव फिर से करीब आये.

अव्वल तो मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के चलते ही बिहार में जातीय जनगणना का मामला इतना आगे बढ़ सका है, लेकिन डिप्टी सीएम तेजस्वी यादव की कोशिश पूरा श्रेय बटोर लेने की होती है. जब भी जिक्र आया है तेजस्वी यादव का दावा यही रहा है कि आरजेडी नेता लालू यादव की कोशिशों की बदौलत ही बिहार में जातीय जनगणना का काम आगे बढ़ सका है.

भले ही केंद्र की नरेंद्र मोदी सरकार ने देश में जातीय जनगणना से साफ इनकार कर दिया हो, लेकिन बिहार में बीजेपी इस मुद्दे से पल्ला झाड़ने की हिम्मत नहीं जुटा सकी - और रामचरितमानस विवाद भी उसी की अगली कड़ी लगता है.

रामचरितमानस विवाद की शुरुआत तो बिहार से हुई लेकिन ये मुद्दा उत्तर प्रदेश में कुछ ज्यादा ही बवाल करा रहा है. बिहार के शिक्षा मंत्री चंद्रशेखर प्रसाद के बयान को यूपी में समाजवादी पार्टी के नेता स्वामी प्रसाद मौर्य ने हवा दी - और अखिलेश यादव को खुश कर समाजवादी पार्टी में हैसियत भी बढ़ा ली है.

स्वामी प्रसाद मौर्य को अब समाजवादी पार्टी में राष्ट्रीय महासचिव बना दिया गया है. लंबे समय तक मायावती की बहुजन समाज पार्टी के साथ राजनीति करने के बाद स्वामी प्रसाद मौर्य बीजेपी में गये थे. सरकार में मंत्री भी रहे, लेकिन 2022 के यूपी विधानसभा चुनाव से पहले अखिलेश यादव के साथ चले गये. फैसला गलत भी साबित हुआ और हर तरह से घाटे का सौदा भी.

लेकिन रामचरितमानस विवाद में स्वामी प्रसाद मौर्य कूदे तो बहती गंगा में हाथ धोने के लिए ही थे, लेकिन ऐसी डूबकी लगायी कि अखिलेश यादव को भी मुद्दा चुनावी वैतरणी पार कराने जैसा मजबूत नजर...

बिहार में रामचरितमानस विवाद (Ramcharitmanas Controversy) ऐसे वक्त पैदा हुआ है जब वहां जातीय सर्वेक्षण का काम चल रहा है. ये जातीय जनगणना का ही मुद्दा है जिसकी वजह से नीतीश कुमार और लालू यादव फिर से करीब आये.

अव्वल तो मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के चलते ही बिहार में जातीय जनगणना का मामला इतना आगे बढ़ सका है, लेकिन डिप्टी सीएम तेजस्वी यादव की कोशिश पूरा श्रेय बटोर लेने की होती है. जब भी जिक्र आया है तेजस्वी यादव का दावा यही रहा है कि आरजेडी नेता लालू यादव की कोशिशों की बदौलत ही बिहार में जातीय जनगणना का काम आगे बढ़ सका है.

भले ही केंद्र की नरेंद्र मोदी सरकार ने देश में जातीय जनगणना से साफ इनकार कर दिया हो, लेकिन बिहार में बीजेपी इस मुद्दे से पल्ला झाड़ने की हिम्मत नहीं जुटा सकी - और रामचरितमानस विवाद भी उसी की अगली कड़ी लगता है.

रामचरितमानस विवाद की शुरुआत तो बिहार से हुई लेकिन ये मुद्दा उत्तर प्रदेश में कुछ ज्यादा ही बवाल करा रहा है. बिहार के शिक्षा मंत्री चंद्रशेखर प्रसाद के बयान को यूपी में समाजवादी पार्टी के नेता स्वामी प्रसाद मौर्य ने हवा दी - और अखिलेश यादव को खुश कर समाजवादी पार्टी में हैसियत भी बढ़ा ली है.

स्वामी प्रसाद मौर्य को अब समाजवादी पार्टी में राष्ट्रीय महासचिव बना दिया गया है. लंबे समय तक मायावती की बहुजन समाज पार्टी के साथ राजनीति करने के बाद स्वामी प्रसाद मौर्य बीजेपी में गये थे. सरकार में मंत्री भी रहे, लेकिन 2022 के यूपी विधानसभा चुनाव से पहले अखिलेश यादव के साथ चले गये. फैसला गलत भी साबित हुआ और हर तरह से घाटे का सौदा भी.

लेकिन रामचरितमानस विवाद में स्वामी प्रसाद मौर्य कूदे तो बहती गंगा में हाथ धोने के लिए ही थे, लेकिन ऐसी डूबकी लगायी कि अखिलेश यादव को भी मुद्दा चुनावी वैतरणी पार कराने जैसा मजबूत नजर आने लगा - और फिर बीजेपी के खिलाफ नये सिरे से उनकी राजनीति जोर पकड़ ली है.

रामचरितमानस विवाद की शुरुआत: बिहार के शिक्षा मंत्री चंद्रशेखर नालंदा ओपन यूनिवर्सिटी के 15वें दीक्षांत समारोह में छात्रों को संबोधित कर रहे थे और मनुस्मृति की चर्चा करते करते आगे बढ़े तो रामचरितमानस तक पहुंच गये. शुरू से आखिर तक तेवर एक जैसा ही रहा, लेकिन जो रिस्पॉन्स मिला वो कल्पना से ही परे था.

मनुस्मृति को लेकर शिक्षा मंत्री चंद्रशेखर का कहना रहा कि 85 फीसदी आबादी वाले बड़े तबके को सिर्फ गालियां दी गयी हैं. और फिर बोले, 'रामचरितमानस के उत्तर कांड में लिखा है... नीच जाति के लोग शिक्षा ग्रहण करने के बाद सांप की तरह जहरीले हो जाते हैं... ये नफरत को बोने वाले ग्रंथ हैं... एक युग में मनुस्मृति, दूसरे युग में रामचरितमानस... तीसरे युग में गुरु गोलवलकर का बंच ऑफ थॉट... ये सभी देश और समाज को नफरत में बांटते हैं.'

रामचरितमानस और मनुस्मृति की चर्चा करते करते ऐसा लगा जैसे चंद्रशेखर भारत जोड़ो यात्रा में पहुंच गये हों, 'नफरत देश को कभी महान नहीं बनाएगी... देश को महान केवल मोहब्बत बनाएगी.' ध्यान रहे कांग्रेस नेता राहुल गांधी भारत जोड़ो यात्रा के बाद देश भर में मोहब्बत की दुकान खोलने की घोषणा कर चुके हैं - और राहुल गांधी के निशाने पर भी संघ और बीजेपी ही हैं.

बिहार के रास्ते उत्तर प्रदेश में घुसा रामचरितमानस विवाद के पीछे जो राजनीति हो रही है, वो बीजेपी के खिलाफ ही है - और यही राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (RSS) के लिए सबसे बड़ी चिंता की बात है. बिलकुल वैसे ही जैसे मंडल बनाम कमंडल विवाद से संघ बड़ी मुश्किल से उबर पाया था.

2022 के यूपी चुनाव के नतीजों ने बीजेपी की सत्ता में वापसी तो करायी ही थी, संघ के भीतर खुशी इस बात की रही कि मोदी-शाह के नेतृत्व में योगी आदित्यनाथ ने उत्तर प्रदेश में जातीय राजनीति (Caste Politics) को खात्मे की कगार पर पहुंचा दिया, लेकिन वो एक बार फिर उभरने लगा है.

बिहार की राजनीति के साइड इफेक्ट

बिहार में बीजेपी पहले ही सत्ता से हाथ धो बैठी है. बिहार विधानसभा चुनाव तो बाद में होंगे, पहली चुनौती 2024 में ज्यादा से ज्यादा लोक सभा की सीटें जीतना है - अगर जातीय राजनीति हावी हुई तो अगले आम चुनाव में बीजेपी को नुकसान भी उठाना पड़ सकता है.

रामचरितमानस विवाद ने संघ की मुश्किल और बीजेपी की चुनौतियां बढ़ा दी है

यूपी चुनाव 2022 में मायावती की बीएसपी को पूरी तरह खत्म और समाजवादी पार्टी के नेता अखिलेश यादव को बहुमत से काफी दूर रोक चुकी बीजेपी के लिए 2024 में मुश्किल हो सकती है. 2019 के आम चुनाव में अखिलेश यादव और मायावती ने सपा-बसपा गठबंधन बनाया था, जिसका नुकसान बीजेपी को उठाना पड़ा.

अखिलेश यादव को तो 2019 में भी 5 ही लोक सभा सीटें हासिल हुई थीं, लेकिन 2014 में जीरो बैलेंस पर पहुंच चुकीं मायावती ने गठबंधन का फायदा उठा कर 10 संसदीय सीटें जीत लेने में कामयाब रहीं, जबकि 2022 के यूपी विधानसभा चुनाव में उनका एक ही उम्मीदवार विधायक बन सका था.

ताजा विवाद में भी मायावती यूपी चुनाव की ही तरह बीजेपी के पक्ष में ही खड़ी नजर आ रही हैं. मनुस्मृति का जिक्र तो पहले सबसे ज्यादा मायावती के मुंह से ही सुनने को मिलता रहा, लेकिन रामचरितमानस विवाद शुरू होने के बाद से वो संविधान की दुहाई देने लगी हैं - और ये सब वो अखिलेश यादव को नसीहत देने के लिए कर रही हैं.

असल में यूपी के पूर्व मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने विवाद के बीच खुद को शुद्र बता डाला था, ये सुन कर मायावती हद से ज्यादा बिफर पड़ीं. अखिलेश यादव ने तो बीजेपी को आड़े हाथों लेते हुए अपनी बात कही थी, लेकिन मायावती ने बीच में ही लपक लिया.

असल में, समाजवादी पार्टी के नेता स्वामी प्रसाद मौर्य का दावा है कि कई करोड़ लोग रामचरितमानस को नहीं पढ़ते, सब बकवास है. मौर्य का कहना रहा कि तुलसीदास ने रामचरितमानस अपनी खुशी के लिए लिखा है.

और फिर स्वामी प्रसाद मौर्य ने मांग कर डाली कि सरकार को संज्ञान लेते हुए रामचरितमानस से आपत्तिजनक अंश को हटा देना चाहिये या फिर रामचरितमानस पर पाबंदी ही लगा देनी चाहिये.

स्वामी प्रसाद मौर्य ने ये भी बताया कि रामचरितमानस में कुछ अंश ऐसे हैं, जिन पर हमें आपत्ति है - 'क्योंकि किसी भी धर्म में किसी को भी गाली देने का कोई अधिकार नहीं है... वो शुद्रों को अधम जाति का होने का सर्टिफिकेट दे रहे हैं.'

मौर्य की बात को ही आगे बढ़ाते हुए अखिलेश यादव कहने लगे कि बीजेपी के लोग हम सबको शूद्र मानते हैं. बोले, 'हम उनकी नजर में शूद्र से ज्यादा कुछ भी नहीं है... भाजपा को ये तकलीफ है कि हम संत-महात्माओं से आशीर्वाद लेने क्यों जा रहे हैं.'

अखिलेश यादव रुके नहीं और यहां तक कह डाला, 'मैं सदन में सीएम योगी से पूछूंगा कि क्या मैं शूद्र हूं या नहीं?'

और इसी बीच समाजवादी पार्टी के एक नेता ने एक पोस्टर भी लगा दिया - "गर्व से कहो हम शूद्र हैं!"

अखिलेश यादव का बयान आते ही मायावती वैसे ही भड़क गयीं जैसे वो राहुल गांधी या प्रियंका गांधी की तरफ से यूपी से जुड़े किसी राजनीतिक कदम से परेशान हो उठती हैं. ताबड़तोड़ ट्विटर पर मायावती के बयान जारी होने लगे.

मायावती ने ट्विटर के जरिये कहा, 'देश में कमजोर और उपेक्षित वर्गों का रामचरितमानस और मनुस्मृति ग्रंथ नहीं, बल्कि भारतीय संविधान है... बाबा साहेब डॉक्टर भीमराव अंबेडकर ने इनको शूद्र की नहीं बल्कि एससी, एसटी और ओबीसी की संज्ञा दी है - शूद्र कह कर समाजवादी पार्टी अपमान न करे, न ही संविधान की अवहेलना करे.'

मौके की नजाकत देख मायावती ने अखिलेश यादव को गेस्ट हाउस कांड की भी याद दिला डाली, 'सपा प्रमुख द्वारा इनकी वकालत करने से पहले उन्हें लखनऊ स्टेट गेस्ट हाउस के दिनांक 2 जून सन् 1995 की घटना को भी याद कर अपने गिरेबान में जरूर झाककर देखना चाहिये, जब सीएम बनने जा रही एक दलित की बेटी पर सपा सरकार में जानलेवा हमला कराया गया था.'

विवाद ने संघ की टेंशन बढ़ा दी है

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ शुरू से ही हिंदू धर्म मानने वाली सभी जातियों को एकजुट रखने की कोशिश करता रहा है. अगर ये एकजुटता बनी रहे तो घरवापसी जैसे कार्यक्रमों की जरूरत ही न पड़े - संघ का मानना है कि जातीय भेदभाव का फायदा उठाकर कर ही हिंदुओं को धर्म परिवर्तन के बाद बेहतर जिंदगी के सपने दिखाये जाते हैं, और कुछ लोग झांसे में आ भी जाते हैं.

अगस्त, 1090 में तब की विश्वनाथ प्रताप सिंह सरकार की तरफ से मंडल कमीशन की सिफारिशे लागू किये जाने के बाद संघ की चिंता गंभीर रूप ले ली थी. दिसंबर, 1992 में बाबरी मस्जिद गिरा दिये जाने के बाद लड़ाई मंडल बनाम कमंडल कही जाने लगी - और ये संघ के लिए बड़ी राहत वाली चीज थी.

लेकिन फिर मुलायम सिंह यादव और मायावती जैसे नेताओं के बढ़े दबदबे के कारण जातीय राजनीति हावी होने लगी - और संघ के लिए हिंदुओं के एकजुट रखना सबसे बड़ी चुनौती साबित हो रही थी. जिस तरीके से मोदी-योगी ने यूपी विधानसभा में बीजेपी को जीत दिलायी थी, RSS का काम काफी आसान हो गया था. रामचरितमानस विवाद के बाद ये फिर से सिर पर सवार होने लगा है.

यूपी चुनाव के नतीजों से मालूम होता है कि समाजवादी पार्टी का तो वोट शेयर बढ़ा है, लेकिन बीएसपी के हिस्से में भारी कमी दर्ज की गयी है. समाजवादी पार्टी के वोट शेयर बढ़ने में वैसे तो जातीय वोटों के मुकाबले मुस्लिम वोटों की भूमिका ज्यादा समझी गयी, लेकिन असर ये जरूर हुआ है कि सारे हिंदू वोट एकजुट होकर बीजेपी की झोली में आ गये.

आरएसएस शुरू से ही कोशिश करता रहा है कि सारे हिंदू 'एक कुआं, एक मंदिर और एक श्मशान' के सिद्धांत को अपनाते हुए जातिवाद को पीछे छोड़ हिंदुत्व की राह पर चलने की कोशिश करे, रामचरितमानस विवाद ऐसी कोशिशों के लिए रास्ते का बहुत बड़ा रोड़ा है.

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इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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