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मोहन भागवत ने तो जातिवाद से लड़ाई में हथियार ही डाल दिये

    • मृगांक शेखर
    • Updated: 26 जनवरी, 2018 10:00 PM
  • 26 जनवरी, 2018 10:00 PM
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तीन साल पहले RSS ने जातिगत भेदभाव खत्म करने के मकसद से एक फुल-प्रूफ प्लान तैयार किया था - लेकिन अब तो उनकी बातों से लगता है कि वो हताश हो चुके हैं. वरना, जातिगत राजनीति को मजबूरी क्यों बताते?

जातिवाद को लेकर मोहन भागवत अक्सर अपनी फिक्र जाहिर करते रहते हैं - कभी आरक्षण खत्म करने के नाम पर तो कभी किसी और बहाने से. दरअसल, जातिवाद की संघ की ये चिंता मुख्य तौर पर हिंदुत्व को लेकर ही होती है. संघ को लगता है कि हिंदुत्व के नाम पर एकजुटता में सबसे बड़ी बाधा जातिवाद ही है, वरना - न तो 'लव जिहाद' जैसी चुनौतियों से उसे जूझना पड़ता, न ही कभी 'घर वापसी' की नौबत आती.

मोहन भागवत का ये कहना कि 'जातिगत राजनीति' उनकी मजबूरी हो चली है, एक तरीके से हताशा का इजहार ही है - क्या तीन साल पहले संघ ने जातिवाद से निजात पाने के लिए जो टूल्स तैयार किये थे वे सारे के सारे फेल हो चुके हैं?

मतलब यूं ही बीत गये तीन साल

'एक कुआं, एक मंदिर और एक श्मशान' - तीन साल पहले राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने जातिवाद को खत्म करने के लिए इस मूल मंत्र के रूप में अपनाने का फैसला किया था. 13 से 15 मार्च, 2015 के बीच तीन दिन की अखिल भारतीय प्रतिनिधि सभा में ये मुद्दा चर्चा में सबसे ऊपर था. नागपुर में आयोजित इस सभा में 1400 प्रतिनिधियों ने हिस्सा लिया था - और इस दौरान कई राज्यों में कराये गये जातिगत सर्वे भी संघ ने सभी के सामने रखे. इसके पीछे संघ का मकसद हिंदुओं के बीच जातिगत भेदभाव खत्म करना रहा - और इसी हिसाब से अगले तीन साल के लिए रणनीति तैयार की गयी.

झंडा फहराते संघ प्रमुख मोहन भागवत

इस मीटिंग से महीने भर पहले संतों और मठों के प्रमुखों की भी एक बैठक बुलायी थी और उनसे छुआछूत और जातिगत भेदभाव खत्म करने को कहा. खुद संघ प्रमुख मोहन भागवत ने कार्यकर्ताओं को हिदायत दी गयी कि वे सभी राज्यों में जनजागरण समितियों के जरिये अभियान तेज करें. भागवत ने जातिगत भेदभाव को रोकने के उपायों पर प्रजेंटेशन बनाने को भी कहा था.

इस रणनीति पर...

जातिवाद को लेकर मोहन भागवत अक्सर अपनी फिक्र जाहिर करते रहते हैं - कभी आरक्षण खत्म करने के नाम पर तो कभी किसी और बहाने से. दरअसल, जातिवाद की संघ की ये चिंता मुख्य तौर पर हिंदुत्व को लेकर ही होती है. संघ को लगता है कि हिंदुत्व के नाम पर एकजुटता में सबसे बड़ी बाधा जातिवाद ही है, वरना - न तो 'लव जिहाद' जैसी चुनौतियों से उसे जूझना पड़ता, न ही कभी 'घर वापसी' की नौबत आती.

मोहन भागवत का ये कहना कि 'जातिगत राजनीति' उनकी मजबूरी हो चली है, एक तरीके से हताशा का इजहार ही है - क्या तीन साल पहले संघ ने जातिवाद से निजात पाने के लिए जो टूल्स तैयार किये थे वे सारे के सारे फेल हो चुके हैं?

मतलब यूं ही बीत गये तीन साल

'एक कुआं, एक मंदिर और एक श्मशान' - तीन साल पहले राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने जातिवाद को खत्म करने के लिए इस मूल मंत्र के रूप में अपनाने का फैसला किया था. 13 से 15 मार्च, 2015 के बीच तीन दिन की अखिल भारतीय प्रतिनिधि सभा में ये मुद्दा चर्चा में सबसे ऊपर था. नागपुर में आयोजित इस सभा में 1400 प्रतिनिधियों ने हिस्सा लिया था - और इस दौरान कई राज्यों में कराये गये जातिगत सर्वे भी संघ ने सभी के सामने रखे. इसके पीछे संघ का मकसद हिंदुओं के बीच जातिगत भेदभाव खत्म करना रहा - और इसी हिसाब से अगले तीन साल के लिए रणनीति तैयार की गयी.

झंडा फहराते संघ प्रमुख मोहन भागवत

इस मीटिंग से महीने भर पहले संतों और मठों के प्रमुखों की भी एक बैठक बुलायी थी और उनसे छुआछूत और जातिगत भेदभाव खत्म करने को कहा. खुद संघ प्रमुख मोहन भागवत ने कार्यकर्ताओं को हिदायत दी गयी कि वे सभी राज्यों में जनजागरण समितियों के जरिये अभियान तेज करें. भागवत ने जातिगत भेदभाव को रोकने के उपायों पर प्रजेंटेशन बनाने को भी कहा था.

इस रणनीति पर जमीनी स्तर पर चाहे जितना भी काम हुआ हो, लेकिन कुछ दिन तक अमित शाह और राजनाथ सिंह सहित कई बीजेपी नेताओं को दलितों के घर लंच करने के फोटो जरूर प्रचारित किये गये. दलित महिलाओं से राखी बंधवाने के कार्यक्रम भी आयोजित किये गये. ये बात अलग है कि इस दौरान ऊना में दलितों की पिटाई की घटना भी हुई और बीजेपी नेता डैमेज कंट्रोल में जुटे रहे. एक बार तो अमित शाह को आगरा में अपना कार्यक्रम भी रद्द करना पड़ा और मामला तभी संभला जब खुद भागवत बचाव में उतर कर मैदान में कूदे.

लोहे से लोहा कटता तो है, लेकिन हमेशा नहीं!

एक तरफ तो संघ समाज से जातिवाद खत्म करने की बात करता रहा, दूसरी तरफ राष्ट्रपति चुनाव तक को दलित बनाम दलित की लड़ाई में तब्दील कर दिया गया. क्या बीजेपी चाहती तो कम से कम राष्ट्रपति चुनाव को इस जातिवादी राजनीतिक दलदल में जाने से रोक नहीं सकती थी?

आखिर मोहन भागवत को क्यों समझाना पड़ रहा है कि जातिवाद भारतीय राजनीति की मजबूरी है. बाकी राजनीतिक दांवपेंचों को अलग रख दें तो भला राष्ट्रपति चुनाव को दलित राजनीति में उलझाने की ऐसी कौन सी मजबूरी थी. तकरीबन ये तय बात थी कि जिस किसी के नाम पर बीजेपी और संघ में सहमति बनेगी चुनाव में जीत उसी को मिलेगी. ऐसी स्थिति में उम्मीदवार कोई भी होता उसे दलित कह कर प्रचारित करने की क्या जरूरत थी?

अब मोहन भागवत कह रहे हैं - 'समाज में एथिकल प्रैक्टिसेज की जितनी आदत है, उतनी पॉलिटिक्स में रिफ्लेक्ट होती है.'

संघ और बीजेपी को ही इस बात का जबाव खोजना होगा कि एक दलित को राष्ट्रपति भवन भेजने का क्रेडिट लेने के बाद भी उन्हें दलितों के दमन जैसे इल्जामात से निजात क्यों नहीं मिल पा रही. भला क्यों जिग्नेश मेवाणी दिल्ली आकर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को मनुस्मृति और संविधान में से किसी एक को चुनने की बात कर रहे हैं? बीजेपी आखिर ये बात क्यों नहीं समझा पा रही है कि रामनाथ कोविंद को राष्ट्रपति बनाकर तो वो इस सवाल का जवाब पहले ही दे चुकी है.

मोहन भागवत अब स्वीकार कर रहे हैं कि वो चाहकर भी गैर-जातिवादी राजनीति नहीं कर सकते क्योंकि समाज जातीय आधार पर पूरी तरह बंटा हुआ है. वो समझा रहे हैं कि जातिवी राजनीति उनकी मजबूरी है फितरत नहीं. भागवत का ये कहना कि वो पहले समाज में परिवर्तन लाएंगे और उसी से राजनीतिक व्यवस्था में परिवर्तन आएगा - क्योंकि इसका उल्टा नहीं होता. यानी, सामाजिक बदलाव से ही राजनीति में परिवर्तन संभव है, राजनीति से समाज नहीं बदल सकता.

तो क्या मोहन भागवत समझाना चाहते हैं कि राजनीति ने समाज को नहीं बांटा है, बल्कि - सामाजिक परिवेश ने राजनीति को ऐसा बना दिया है? 'एक कुआं, एक मंदिर और एक श्मशान' का रणनीतिक फॉर्मला फेल होने की वजह भी यही कन्फ्यूजन लगता है. अगर एक बार इस बात को समझ लिया जाये तो फिर कोई मनुस्मृति और संविधान में से कोई एक चुनने की चुनौती नहीं पेश कर सकेगा.

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इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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