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राजस्थान की जनता कह रही है- हुजूर आते-आते बहुत देर कर दी

    • शरत कुमार
    • Updated: 06 दिसम्बर, 2018 01:20 PM
  • 06 दिसम्बर, 2018 01:20 PM
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बीजेपी कोशिश करती दिखी कि राजस्थान चुनाव में वसुंधरा बनाम वसुंधरा के मुद्दे से जनता का ध्यान हटाकर भावनात्मक मुद्दे लाए जाएं. ये देखना दिलचस्प होगा कि मोदी और अमित शाह की कोशिश किस हद तक कामयाब होती है.

पढ़ाई के दौरान छात्र जीवन में जब तैयारी कमजोर होती तो परीक्षा भवन जाने के रास्ते में ऑटो में बैठकर पढ़ते जाते थे, परीक्षा भवन में घुसने तक पढ़ते ही रहते थे कि पता नहीं किस विषय पर नजर चली जाए और उसी से जुड़ा सवाल अगर परीक्षा में आ जाए तो लिख देंगे. लेकिन ऐसा होता नहीं था. बीजेपी ने जिस तरह से राजस्थान चुनाव प्रचार में आखरी समय में जोर लगाया है, उसे देखकर कहा जा सकता है कि कहीं कोई कमी रह गई है जिसे पूरी करने की आखिरी कोशिश हुई. पर अंतिम समय में की गई मेहनत का नतीजा भाग्य के भरोसे ही होती है.

राजस्‍थान में 5 दिसंबर को शाम पांच बजे प्रचार खत्म होना था, और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी 4:30 बजे तक सभा को संबोधित कर रहे थे. बीजेपी ने अगर इतनी मेहनत पहले कर ली होती तो शायद आज उसे यह नहीं कहना पड़ता कि हम मुकाबले में आ गए हैं. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी यह जानते हैं कि राजस्थान में नाराजगी बीजेपी से नहीं वसुंधरा राजे से है, लिहाजा अपनी आखिरी पांच संभाओं में उन्होंने वसुंधरा राजे का नाम नहीं लिया, राजस्थान सरकार के काम नहीं गिनाए, और वसुंधरा के साथ स्टेज तक शेयर नहीं की. उनकी पूरी कोशिश रही कि एक तरफ राहुल गांधी को खड़ा कर दिया जाए और दूसरी तरफ खुद को. और फिर जनता से कहा जाए कि दोनों में से एक चुन लीजिए. कौन बेहतर नेता है, आप उसी को वोट दीजिए. जयपुर की अपनी आखिरी सभा में उन्होंने कहा कि आपकी नाराजगी है तो भी आपके पास दो दिन का समय है. आप एक बार सोच लीजिए किसको वोट देना है. मगर काश ऐसा हो पाता कि मतदाता दो दिन में सोचकर फैसला ले लेता.

नरेंद्र मोदी चुनाव प्रचार के अंतिम दिन 4:30 बजे तक राजस्थान में सभा संबोधित करते रहे

ऐसी बात नहीं है कि बीजेपी को पता नहीं था कि वसुंधरा राजे से राजस्थान में लोगों की नाराजगी है, बल्कि नरेंद्र मोदी की वसुंधरा...

पढ़ाई के दौरान छात्र जीवन में जब तैयारी कमजोर होती तो परीक्षा भवन जाने के रास्ते में ऑटो में बैठकर पढ़ते जाते थे, परीक्षा भवन में घुसने तक पढ़ते ही रहते थे कि पता नहीं किस विषय पर नजर चली जाए और उसी से जुड़ा सवाल अगर परीक्षा में आ जाए तो लिख देंगे. लेकिन ऐसा होता नहीं था. बीजेपी ने जिस तरह से राजस्थान चुनाव प्रचार में आखरी समय में जोर लगाया है, उसे देखकर कहा जा सकता है कि कहीं कोई कमी रह गई है जिसे पूरी करने की आखिरी कोशिश हुई. पर अंतिम समय में की गई मेहनत का नतीजा भाग्य के भरोसे ही होती है.

राजस्‍थान में 5 दिसंबर को शाम पांच बजे प्रचार खत्म होना था, और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी 4:30 बजे तक सभा को संबोधित कर रहे थे. बीजेपी ने अगर इतनी मेहनत पहले कर ली होती तो शायद आज उसे यह नहीं कहना पड़ता कि हम मुकाबले में आ गए हैं. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी यह जानते हैं कि राजस्थान में नाराजगी बीजेपी से नहीं वसुंधरा राजे से है, लिहाजा अपनी आखिरी पांच संभाओं में उन्होंने वसुंधरा राजे का नाम नहीं लिया, राजस्थान सरकार के काम नहीं गिनाए, और वसुंधरा के साथ स्टेज तक शेयर नहीं की. उनकी पूरी कोशिश रही कि एक तरफ राहुल गांधी को खड़ा कर दिया जाए और दूसरी तरफ खुद को. और फिर जनता से कहा जाए कि दोनों में से एक चुन लीजिए. कौन बेहतर नेता है, आप उसी को वोट दीजिए. जयपुर की अपनी आखिरी सभा में उन्होंने कहा कि आपकी नाराजगी है तो भी आपके पास दो दिन का समय है. आप एक बार सोच लीजिए किसको वोट देना है. मगर काश ऐसा हो पाता कि मतदाता दो दिन में सोचकर फैसला ले लेता.

नरेंद्र मोदी चुनाव प्रचार के अंतिम दिन 4:30 बजे तक राजस्थान में सभा संबोधित करते रहे

ऐसी बात नहीं है कि बीजेपी को पता नहीं था कि वसुंधरा राजे से राजस्थान में लोगों की नाराजगी है, बल्कि नरेंद्र मोदी की वसुंधरा राजे से अदावत थी. मोदी ने इसी वजह से राजस्थान की तरफ ध्यान ही नहीं दिया. जब लगा कि राजस्थान अगर हाथ से गया तो लोकसभा का 2019 का भी चुनाव प्रभावित हो सकता है, तब जाकर ये गंभीर दिखाई दिए. जब तक ध्यान दिया तब तक बहुत देर हो चुकी थी. बीजेपी ने चुनाव प्रचार की रणनीति बदलते हुए गोत्र, जाति, धर्म, हिंदू, हिंदुत्व, भारत माता, फतवा, कुंभकरण जैसे मुद्दों पर फोकस किया. इन सारे मुद्दों में खासियत यह थी कि इनकी चर्चा राहुल गांधी की तरफ से की गई थी और बीजेपी ने इसे चुनाव अभियान की तरह लपक लिया था. हर समय बीजेपी ये कोशिश करती दिखा कि इन विषयों के जरिए राजस्थान के वोटरों को यह समझाया जाए कि राहुल गांधी लायक नेता नहीं है.

राजस्थान के मतदाता यह समझकर वोट डालें कि राहुल गांधी जैसे अपरिपक्व और कमजोर नेता को वोट देंगे या फिर नरेंद्र मोदी जैसे मजबूत और समझदार नेता को वोट देंगे. यही कि राहुल गांधी की कुंभाराम आर्य कहते-कहते कुंभकरण कह जाने जैसी बात को लेकर नरेंद्र मोदी ने अपनी सभाओं में हाय तौबा मचा दी. यह दिखाता था कि मोदी के पास राजस्थान के चुनाव के नैरेटिव को बदलने का दबाव था.

बीजेपी कोशिश करती दिखी कि राजस्थान चुनाव में वसुंधरा बनाम वसुंधरा के मुद्दे से जनता का ध्यान हटाकर भावनात्मक मुद्दे लाए जाएं. ये देखना दिलचस्प होगा कि मोदी और अमित शाह की कोशिश किस हद तक कामयाब होती है. मगर यह सच है कि अगर राजस्थान में बीजेपी वापसी करती है तो इसमें वसुंधरा का नहीं, बल्कि अमित शाह की मेहनत और मोदी का करिश्मा काम करेगा. राजस्थान विधानसभा चुनाव प्रचार का एक दिलचस्प पहलू यह भी था कि अमित शाह अपनी हर सांसों में 2019 लोकसभा चुनाव के लिए वोट मांगते थे और कहते थे कि नरेंद्र मोदी को एक बार फिर से प्रधानमंत्री बनाना है. ऐसा लग रहा था मानो राजस्थान की बाजी हार गए हों और अगली तैयारी अभी से कर रहे हों. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी रैलियों में कहते थे कि मैं एक साल से सुन रहा हूं कि राजस्थान बीजेपी के हाथ से गया लेकिन मैं वोटरों से कहूंगा कि वह 7 तारीख के लिए सोच समझकर वोट डालें.

यदि वसुंधरा राजे की बात की जाए तो उन्‍हें यह समझने में बहुत देर लगा दी कि उनका बोरिया-बिस्तर राजस्थान से उखड़ने लगा है. जरा सोचिए कि अजमेर और अलवर लोकसभा उपचुनाव नहीं हुए होते तो वसुंधरा राजे को यह पता भी नहीं चलता कि राजस्थान में उनकी लोकप्रियता किस कदर घटी है. वसुंधरा कहती हैं कि यह दोनों उपचुनाव बड़े वक्त पर आए और यह मेरे लिए वेकअप कॉल था. उसके बाद वसुंधरा राजे मेहनत करती दिखीं जरूर, मगर साढे 4 साल में उनकी मेहनत नहीं करने की आदत इतनी बिगड़ चुकी थी कि वह पूरी तरह से चुनाव के लिए तैयार नहीं हो पाईं. जनता जनार्दन को मनाने के लिए उनके पास भरपूर वक्त भी नहीं था. जीत के लिए लालायित वसुंधरा राजे को आखरी समय में लड़ते हुए देखकर जनता यही कह रही थी कि काश महारानी पहले जाग जातीं.

वसुंधरा राजे ने यह समझने में बहुत देर लगा दी कि उनका बोरिया-बिस्तर राजस्थान से उखड़ने लगा है

कांग्रेस भी इसी समस्या से जूझ रही है. वसुंधरा राजे के प्रति नाराजगी को भुनाने के लिए जितना वह आतुर दिख रही थीं, वह सब कुछ टिकट बंटवारे में हुई देरी में गंवा दिया. जरा सोचिए कांग्रेस का टिकट नॉमिनेशन करने के आखरी दिन आखरी समय तक बंटता रहा. अलवर और अजमेर लोकसभा उपचुनाव में मिली सफलता को विधानसभा चुनाव में अपनी जीत की गारंटी मानकर टिकट वितरण में ऐसे झगड़े कि पार्टी का बंटाधार ही कर दिया. हालांकि बाद में बीजेपी की तरफ से मिली चुनौती पर यह संभले, मगर संभालते-संभालते बहुत देर हो चुकी थी. लोगों में चर्चा है कि जिस तरह का माहौल राजस्थान में बना हुआ था उस तरह के माहौल में अशोक गहलोत-सचिन पायलट अगर साथ-साथ काम करते तो आज हालात यह नहीं होते कि लोग साफ-साफ ये ना बता पाएं कि किस पार्टी की सरकार बन रही है.

बीजेपी की कमजोरी

राजस्थान विधानसभा चुनाव में बीजेपी के लिए बड़ा सिरदर्द वसुंधरा राजे रही हैं. वसुंधरा 4 सालों में कभी भी जनता के बीच नहीं दिखीं. यहां तक कि होली-दिवाली जैसे त्यौहारों पर भी अपने निवास पर नहीं बल्कि धौलपुर में अपने महल में कैद रहीं. धीरे-धीरे परसेप्शन बनता चला गया कि वसुंधरा राजे के राज में कोई काम नहीं हो रहा है और वसुंधरा राजे तक लोगों के लिए पहुंचना आसान नहीं है.

वसुंधरा राजे और नरेंद्र मोदी के बीच छत्तीस के आंकड़े ने वसुंधरा सरकार के कामकाज को भी प्रभावित किया. वसुंधरा राजे कभी भी नरेंद्र मोदी के साथ सहज नहीं दिखीं. यहां तक कि पूर्व मुख्यमंत्री अशोक गहलोत हमेशा से कहते रहे हैं कि वसुंधरा राजे और नरेंद्र मोदी की हंसते हुए एक तस्वीर दिखा दो. अमित शाह के साथ भी वसुंधरा राजे का टकराव जारी रहा. यह टकराव तब खुलकर सामने आ गया जब अजमेर और अलवर लोकसभा उपचुनाव हारने के बाद बीजेपी आलाकमान ने वसुंधरा राजे के करीबी अशोक परनामी को बीजेपी प्रदेश अध्यक्ष के पद से हटाना चाहा. वसुंधरा जिद पर अड़ गईं. 75 दिनों तक उन्होंने मोदी-अमित शाह की पसंद के केंद्रीय कृषि राज्य मंत्री गजेंद्र सिंह शेखावत को राजस्थान बीजेपी का अध्यक्ष नहीं बनने दिया. आखिरकार एक समझौता उम्मीदवार के रूप में नंदलाल सैनी प्रदेश अध्यक्ष बने जिनकी चुनाव में कोई उपयोगिता नहीं है, उन्हें कोई पूछता भी नहीं है.

दोनों के बीच में इतना ही फासला रहा जितना इस तस्वीर में है

जयपुर में 100 से ज्यादा मंदिर मेट्रो निर्माण के लिए तोड़े गए. उस वक्त राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से जुड़े लोगों ने बड़ा आंदोलन चलाया. उसके बाद हिंगोनिया गौशाला में सैकड़ों गायों के मरने की घटना हुई जिससे वसुंधरा राजे और संघ के बीच रिश्ते खराब हुए. वसुंधरा राजे के इस कार्यकाल में उनके सांसद बेटे दुष्यंत सिंह काफी हावी रहे. राजकाज में दुष्यंत सिंह की दखल से सरकार के अंदर दूसरे नेताओं में नाराजगी रही. यूनुस खान नंबर दो मंत्री बने रहे जबकि राजेंद्र राठौड़ और गुलाब चंद कटारिया जैसे नेता हाशिए पर रहे. राजस्थान की वसुंधरा की टीम और मोदी की टीम में हमेशा से 36 का आंकड़ा रहा. केंद्रीय मंत्री राज्यवर्धन सिंह राठौर, गजेंद्र सिंह शेखावत, अर्जुन राम मेघवाल जैसे नेताओं की सरकार में कोई पूछ नहीं रही. वसुंधरा राजे अपनी योजनाओं के काम को गिनाने तक के लिए कभी सामने नहीं आई. यही नहीं, कभी-कभी तो सभा में याद नहीं आने पर पूछ भी बैठती थीं कि मेरी फलां योजना का नाम क्या है. पिछले 5 सालों में कभी भी प्रेस कॉन्फ्रेंस नहीं की और ना ही किसी संवाददाता के सवालों का जवाब दिया.

पहली बार वसुंधरा के कार्यकाल में राजस्थान के हाड़ौती में किसानों की खुदकुशी की खबरें सामने आईं. कहा जाता है कि 100 से ज्यादा किसानों ने राजस्थान में पहली बार आत्महत्या की.

आनंदपाल एनकाउंटर हो या फिर चतुर सिंह एनकाउंटर या फिर पद्मावत फिल्म का मामला, राजपूतों की नाराजगी वसुंधरा सरकार से रही है. जबकि पूर्व उपराष्ट्रपति भैरों सिंह शेखावत के जमाने से राजपूत बीजेपी के कट्टर वोटर हैं.

बीजेपी की ताकत

वसुंधरा राजे के पक्ष में सबसे बड़ी बात है कि वसुंधरा राजे जैसी कद्दावर नेता राजस्थान की राजनीति में फिलहाल नहीं है. इसका एक अपना करिश्मा था जो फीका पड़ा है, मगर कम नहीं हुआ है. ब्यूरोक्रेसी पर वसुंधरा राजे की पकड़ काफी मजबूत मानी जाती है. वसुंधरा टेक्नो फ्रेंडली हैं और जनता से सीधे जुड़ जाती हैं. दूसरी बात है कि राजस्थान में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का करिश्मा बरकरार है. बीजेपी को मोदी के नाम पर अच्छा खासा वोट मिलने जा रहा है. वसुंधरा राजे ने चुनाव से पहले एक-एक सीट पर काफी मेहनत की और रणनीति के तहत टिकट का बंटवारा किया है. अलवर और अजमेर के उपचुनाव में हार बहुत सही समय पर मिली और इस झटके के बाद वसुंधरा ने उबरना शुरू कर दिया. टिकट बंटवारे में वसुंधरा कांग्रेस के अशोक गहलोत और सचिन पायलट पर भारी पड़ी हैं.

वसुंधरा राजे जैसी कद्दावर नेता राजस्थान की राजनीति में फिलहाल नहीं है

बीजेपी के पास प्रचार के लिए भारी फौज है. सबसे ज्यादा मेहनत राजस्थान में बीजेपी के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह ने की है जो पिछले 1 महीने से दिन में 8-8 सभाएं कर रहे हैं और कार्यकर्ताओं में जान फूंकने का काम कर रहे हैं. मोदी ने अपनी पूरी टीम को इस सरकार के चुनाव प्रचार में उतार दिया है.

कांग्रेस की ताकत

राजस्थान में कांग्रेस की सबसे बड़ी ताकत है वसुंधरा राजे के प्रति लोगों में नाराजगी. इसके अलावा कांग्रेस की दूसरी बड़ी ताकत है सचिन पायलट के रूप में युवा जोश वाला नेता, और अशोक गहलोत के रूप में राज्य की राजनीति पर पकड़ रखने वाला अनुभवी नेता.  अशोक गहलोत ने अपने पीछे के कार्यकाल में जन कल्याण की बहुत सारी योजनाएं चलाई थीं. इसमें मुफ्त दवा योजना, वृद्धा पेंशन योजना, गरीबों को इंदिरा आवास योजना के तहत मकान बनाना भी था. इस तरह की योजनाओं को याद दिलाकर कांग्रेस लोगों से वापस वोट मांग रही है. इसके अलावा किसानों की आत्महत्या के मुद्दा हो या फिर राज्य में पत्रकारिता के खिलाफ काला कानून हो, सचिन पायलट ने सड़क पर उतरकर संघर्ष किया है और लाठियां खाई हैं.

सचिन पायलट का जोश और अशोक गहलोत का अनुभव कांग्रेस की ताकत है

बीजेपी का आम कार्यकर्ता उदासीन है और बीजेपी के आम कार्यकर्ताओं ने पिछले 3 साल से कहना शुरू कर दिया था कि हमारी सरकार नहीं आ रही है और यहीं से कांग्रेस मजबूत होती चली गई. कांग्रेस कार्यकर्ताओं में जान फूंकने का काम सचिन पायलट और अशोक गहलोत ने किया है. दलितों के मामले में बीजेपी की उदासीनता भी कांग्रेस के साथ दलितों को ला सकती है. इसके अलावा सचिन पायलट का गुर्जर वोट और अशोक गहलोत का मालिक वोट बैंक भी कांग्रेस के पास है. बीजेपी सरकार में राजपूतों की भारी नाराजगी भी कांग्रेस को फायदा पहुंचाती है. जाट शुरू से ही कांग्रेस के नेचुरल वोटर रहे हैं, ऐसे में कांग्रेस को जातिगत समीकरणों के तहत फायदा होता दिख रहा है.

कांग्रेस की कमजोरी

कांग्रेस कि जो सबसे बड़ी ताकत है वही सबसे बड़ी कमजोरी भी है. मुख्यमंत्री पद को लेकर सचिन पायलट और अशोक गहलोत में जिस तरह से अंदरखाने झगड़ा चलता रहता है उसने कांग्रेस को अंदर तक कमजोर कर दिया है. टिकट बंटवारे को लेकर जिस तरह से दोनों लड़े हैं उससे कांग्रेस को 20 से 30 सीटों का नुकसान माना जा रहा है. कार्यकर्ता धड़ों में बंटे हैं और संगठन लचर स्थिति में है. कांग्रेस के पास बीजेपी जैसा मजबूत संगठन नही है. आरएसएस जैसा जमीन पर काम करने वाले कार्यकर्ता नहीं है. कांग्रेस का सेवादल नेताओं को सैल्यूट करने वाला संगठन बनकर रह गया है.

राजपूतों की नाराजगी बीजेपी से थी लेकिन कांग्रेस उसे पूरी तरह से भुला नहीं पाई और अब राजपूतों का एक बड़ा वर्ग वापस बीजेपी की तरफ जाने की सोच रहा है. कांग्रेस ने चुनाव लड़ने के लिए जितनी भी समितियां बनाई थीं उन सभी समितियों के अध्यक्ष चुनाव मैदान में हैं. लिहाजा कांग्रेस की रणनीति बनाने के लिए दिल्ली से अहमद पटेल, गुलाम नबी आजाद, मुकुल वासनिक, रणदीप सिंह सुरजेवाला, पवन खेड़ा, राजीव शुक्ला जैसे नेता आए हुए हैं. कांग्रेस के स्टार प्रचारकों की भारी कमी है. राहुल गांधी के अलावा स्टार प्रचारक के रूप में इनके पास नवजोत सिंह सिद्धू, राज बब्बर ही हैं. पार्टी के पास पैसे और संसाधनों का भी अभाव दिख रहा है.

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इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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