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राजस्थान के रण में राजपूत बनेंगे जीत की कुंजी

    • अभिनव राजवंश
    • Updated: 02 दिसम्बर, 2018 04:32 PM
  • 02 दिसम्बर, 2018 04:32 PM
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भाजपा के साथ खड़ा रहने वाला राजपूत समाज इन चुनावों में भाजपा से नाराज़ दिख रहा है. पिछले चार सालों की चार पांच घटनाओं ने राजपूतों का भाजपा से कुछ हद तक मोहभंग कर दिया है.

राजस्थान विधानसभा चुनावों में अब बस एक हफ्ते का ही समय शेष है, राजस्थान में 200 सीटों के लिए 7 दिसंबर को वोटिंग होनी है. यहां भी मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ की ही तरह भारतीय जनता पार्टी और कांग्रेस के बीच ही मुख्य मुकाबला है. और यहां भी चुनाव के नतीजों को लेकर हवा कुछ साफ नहीं हुई है, हालांकि चुनावों के कुछ महीने पहले से ही यह चुनाव भाजपा के लिए कठिन बताया जा रहा था. हालांकि पिछले एक दो हफ़्ते में चुनावी हवा ने एक बार फिर करवट ली है और भाजपा के लिए चीजें कुछ आसान होती दिख रही हैं. कह सकते हैं कि एक बार फिर से राजस्थान में भाजपा मजबूती के साथ दिखाई दे रही है जहां चुनावों के पहले ही इसे मुकाबले से बाहर माना जा रहा था.

हालांकि यह जरूर है कि भाजपा के लिए चीजें कुछ आसान जरूर हुईं, मगर अभी भी भाजपा के साथ खड़ा रहने वाला राजपूत समाज इन चुनावों में भाजपा से नाराज़ दिख रहा है. पिछले चार सालों की चार पांच घटनाओं ने राजपूतों का भाजपा से कुछ हद तक मोहभंग कर दिया है. और हाल ही में कद्दावर नेता और भाजपा के बड़े चेहरों में शुमार जसवंत सिंह के बेटे मानवेन्द्र सिंह ने जब से भाजपा को छोड़ कांग्रेस का दामन थामा है तब से राजपूत और भी अगर-मगर की स्थिति में आ गए हैं. मानवेन्द्र अब प्रदेश की मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे के खिलाफ झालरापाटन से मैदान में ताल ठोक रहे हैं.

मानवेंद्र सिंह जसोल जब से भाजपा छोड़ कांग्रेस में आए हैं तब से राजपूत और भी अगर-मगर की स्थिति में आ गए हैं

देखा जाए तो भाजपा के लिए राजपूतों के मन में खुन्नस की शुरुआत साल 2014 के आम चुनावों में ही हो गई थी जब भाजपा ने दिग्गज नेता और प्रदेश में राजपूतों में अच्छी पैठ रखने वाले जसवंत सिंह को उनके गृह जिले बाड़मेर से टिकट नहीं दिया गया जबकि भाजपा ने इस सीट से राजपूतों के मुख्य प्रतिद्वंद्वी माने जाने वाले...

राजस्थान विधानसभा चुनावों में अब बस एक हफ्ते का ही समय शेष है, राजस्थान में 200 सीटों के लिए 7 दिसंबर को वोटिंग होनी है. यहां भी मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ की ही तरह भारतीय जनता पार्टी और कांग्रेस के बीच ही मुख्य मुकाबला है. और यहां भी चुनाव के नतीजों को लेकर हवा कुछ साफ नहीं हुई है, हालांकि चुनावों के कुछ महीने पहले से ही यह चुनाव भाजपा के लिए कठिन बताया जा रहा था. हालांकि पिछले एक दो हफ़्ते में चुनावी हवा ने एक बार फिर करवट ली है और भाजपा के लिए चीजें कुछ आसान होती दिख रही हैं. कह सकते हैं कि एक बार फिर से राजस्थान में भाजपा मजबूती के साथ दिखाई दे रही है जहां चुनावों के पहले ही इसे मुकाबले से बाहर माना जा रहा था.

हालांकि यह जरूर है कि भाजपा के लिए चीजें कुछ आसान जरूर हुईं, मगर अभी भी भाजपा के साथ खड़ा रहने वाला राजपूत समाज इन चुनावों में भाजपा से नाराज़ दिख रहा है. पिछले चार सालों की चार पांच घटनाओं ने राजपूतों का भाजपा से कुछ हद तक मोहभंग कर दिया है. और हाल ही में कद्दावर नेता और भाजपा के बड़े चेहरों में शुमार जसवंत सिंह के बेटे मानवेन्द्र सिंह ने जब से भाजपा को छोड़ कांग्रेस का दामन थामा है तब से राजपूत और भी अगर-मगर की स्थिति में आ गए हैं. मानवेन्द्र अब प्रदेश की मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे के खिलाफ झालरापाटन से मैदान में ताल ठोक रहे हैं.

मानवेंद्र सिंह जसोल जब से भाजपा छोड़ कांग्रेस में आए हैं तब से राजपूत और भी अगर-मगर की स्थिति में आ गए हैं

देखा जाए तो भाजपा के लिए राजपूतों के मन में खुन्नस की शुरुआत साल 2014 के आम चुनावों में ही हो गई थी जब भाजपा ने दिग्गज नेता और प्रदेश में राजपूतों में अच्छी पैठ रखने वाले जसवंत सिंह को उनके गृह जिले बाड़मेर से टिकट नहीं दिया गया जबकि भाजपा ने इस सीट से राजपूतों के मुख्य प्रतिद्वंद्वी माने जाने वाले जाट नेता सोनाराम चौधरी को टिकट थमा दिया था. हालांकि जसवंत सिंह निर्दलीय के रूप में मैदान में उतरे मगर जीत नहीं सके. इसके बाद राजपूतों को एक और चोट तब पहुंची जब जयपुर डेवेलपमेंट अथॉरिटी ने राजपरिवार से संबंध रखने वाली और उस समय की भाजपा विधायक दिया सिंह के राजमहल पैलेस को सील कर दिया था. इसे भी राजपूतों ने अपने अपमान के तौर पर देखा.

हालांकि राजपूतों और राजस्थान की भाजपा के बीच सीधी लड़ाई तब ठन गयी जब जून 2017 में राजस्थान पुलिस ने गैंगस्टर आनन्द पाल सिंह का एनकाउंटर कर दिया. आनंद पाल की छवि क्षेत्र में रॉबिनहुड की थी और उसके एनकाउंटर को लोगों ने साजिश बताया. इस एनकाउंटर के खिलाफ राजपूत संघठनों की अगुआई में राज्य भर में विरोध प्रदर्शन देखने को मिला. इस एनकाउंटर ने बहुत हद तक राजपूतों को भाजपा से दूर कर दिया और रही सही कसर फिल्म ‘पद्मावत’ ने कर दी. फ़िल्म पद्मावत के खिलाफ भी राजपूत संघठनों ने देश भर में प्रदर्शन किया था. हालांकि राजस्थान में जरूर बहुत विरोध के बाद यह फ़िल्म रिलीज़ नहीं हो सकी थी.

राजस्थान में राजपूत राजस्थान की कुल आबादी के 7-8 फीसदी के करीब हैं

इन घटनाओं के बाद वर्तमान चुनावों में राजपूतों के झुकाव को लेकर सवालिया निशान हैं. राजपूत जरूर भाजपा से नाराज हैं मगर राजपूत कांग्रेस से भी खुश हैं ऐसा नहीं कहा जा सकता. वैसे आबादी के हिसाब से राजपूत राजस्थान की कुल आबादी के 7-8 फीसदी के करीब ही हैं मगर राजस्थान में राजपूतों के वर्चस्व को कोई नकार नहीं सकता. ऐसे में अगर राजपूत एक बार फिर से भाजपा के साथ आते हैं तो यह पिछले दो दशक से चले आ रहे ट्रेंड को बदलने में मददगार हो सकती है, लेकिन अगर वह कांग्रेस के साथ जाते हैं तो यह भाजपा के लिए काफी नुकसान का सौदा हो सकता है.

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इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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