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प्रेमचंद की बूढ़ी काकी जैसी है यूपी कांग्रेस

    • नवेद शिकोह
    • Updated: 31 जुलाई, 2021 02:50 PM
  • 31 जुलाई, 2021 02:50 PM
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उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव 2022 में दिन ही कितने बचे हैं. ऐसे में सबसे बुरी स्थिति कांग्रेस पार्टी की है. वो कांग्रेस जिसे राजनीति के लिए जमीन उत्तर प्रदेश ने दी वहां आज कोई कांग्रेस को पूछने वाला नहीं है. साफ़ है कि कांग्रेस, यूपी विधानसभा चुनाव में अकेले भाजपा को हराने की स्थिति में नहीं है.

यूपी की जमीन में जिस कांग्रेस की जड़ें पेवस्त हैं, उसी प्रदेश में कांग्रेस की बंजर भूमि में हरियाली दूर-दूर तक नहीं दिख रही. तीन दशक से सत्ता से बेदखल इसका वनवास खत्म होने का नाम नहीं ले रहा. अभी भी आशा की कोई किरण नहीं दिख रही. वजह ये है कि बिहार और पश्चिम बंगाल के दो चुनावों ने भाजपा विरोधी मतदाताओं को दो सबक दिए हैं. और ये सबक यूपी में वोट बिखराव को रोकने की रणनीति तय करवा रहे हैं. इस रणनीति के तहत भाजपा विरोधियों को एकजुट होकर सबसे बड़े दल में ताकत झोंकनी है. मुसलमानों और अन्य भाजपा विरोधियों का इस तरह का माइंड सेट कांगेस के पक्ष मे नहीं जाता. क्योंकि कांग्रेस यूपी विधानसभा चुनाव में अकेले भाजपा को हराने की स्थिति में नहीं है. बिहार के सबक ने बताया है कि यदि असदुद्दीन ओवेसी के दल एआईएमआईएम को चंद सीटों का लाभ देने के बजाय पूरी शक्ति भाजपा से लड़ रहे राष्ट्रीय जनता दल (तेजस्वी यादव) की तरफ केंद्रित हो जाती तो बिहार में भाजपा गठबंधन को हराया जा सकता था. और यदि पश्चिम बंगाल में भाजपा से सीधे मुकाबले में टीएमसी को एकजुट होकर वोट नहीं दिया जाता और कांग्रेस में वोट बंट जाता तो ममता बेनर्जी को शानदार तरीके से नहीं जिताया जा सकता था.

विधानसभा चुनावों से पहले कमजोर जनाधार कांग्रेस को बड़ी मुसीबत में डाल सकता है

भाजपा विरोधी वोटर्स का ऐसा माइंड सेट कांग्रेस के लिए घातक है. जबकि आगामी विधानसभा चुनाव कांग्रेस के लिए करो या मरो जैसा भी है. जिसकी तैयारी में प्रियंका गांधी वाड्रा ने रोड मैप तैयार कर लिया है. पहले तो पार्टी ने एकला चलो की तर्ज पर बिना किसी गठबंधन या मोर्चे के चुनाव लड़ने का फैसला किया है. फिर प्रियंका ने ज़मीनी हकीकत देखने के बाद इशारा किया कि कांग्रेस अभी भी सभी दरवाजे खा ले रखी है.

ब्रह्मास्त्र और त्रुप का पत्ता...

यूपी की जमीन में जिस कांग्रेस की जड़ें पेवस्त हैं, उसी प्रदेश में कांग्रेस की बंजर भूमि में हरियाली दूर-दूर तक नहीं दिख रही. तीन दशक से सत्ता से बेदखल इसका वनवास खत्म होने का नाम नहीं ले रहा. अभी भी आशा की कोई किरण नहीं दिख रही. वजह ये है कि बिहार और पश्चिम बंगाल के दो चुनावों ने भाजपा विरोधी मतदाताओं को दो सबक दिए हैं. और ये सबक यूपी में वोट बिखराव को रोकने की रणनीति तय करवा रहे हैं. इस रणनीति के तहत भाजपा विरोधियों को एकजुट होकर सबसे बड़े दल में ताकत झोंकनी है. मुसलमानों और अन्य भाजपा विरोधियों का इस तरह का माइंड सेट कांगेस के पक्ष मे नहीं जाता. क्योंकि कांग्रेस यूपी विधानसभा चुनाव में अकेले भाजपा को हराने की स्थिति में नहीं है. बिहार के सबक ने बताया है कि यदि असदुद्दीन ओवेसी के दल एआईएमआईएम को चंद सीटों का लाभ देने के बजाय पूरी शक्ति भाजपा से लड़ रहे राष्ट्रीय जनता दल (तेजस्वी यादव) की तरफ केंद्रित हो जाती तो बिहार में भाजपा गठबंधन को हराया जा सकता था. और यदि पश्चिम बंगाल में भाजपा से सीधे मुकाबले में टीएमसी को एकजुट होकर वोट नहीं दिया जाता और कांग्रेस में वोट बंट जाता तो ममता बेनर्जी को शानदार तरीके से नहीं जिताया जा सकता था.

विधानसभा चुनावों से पहले कमजोर जनाधार कांग्रेस को बड़ी मुसीबत में डाल सकता है

भाजपा विरोधी वोटर्स का ऐसा माइंड सेट कांग्रेस के लिए घातक है. जबकि आगामी विधानसभा चुनाव कांग्रेस के लिए करो या मरो जैसा भी है. जिसकी तैयारी में प्रियंका गांधी वाड्रा ने रोड मैप तैयार कर लिया है. पहले तो पार्टी ने एकला चलो की तर्ज पर बिना किसी गठबंधन या मोर्चे के चुनाव लड़ने का फैसला किया है. फिर प्रियंका ने ज़मीनी हकीकत देखने के बाद इशारा किया कि कांग्रेस अभी भी सभी दरवाजे खा ले रखी है.

ब्रह्मास्त्र और त्रुप का पत्ता कहे जाने वाली प्रियंका गांधी वाड्रा करीब दो वर्ष से अधिक समय से यूपी की कमान संभाले हैं. प्रदेश अध्यक्ष अजय कुमार लल्लू भी जमीनी संघर्ष जारी रखे हैं. सरकार के खिलाफ प्रदर्शनों में उन्होंने जेल जाने का रिकार्ड कायम किया. लेकिन उल्टी हो गईं सब तदबीरें कुछ न दवा ने काम किया. और इस तरह मर्ज बढ़ता गया जो-जो दवा की.

पिछले लोकसभा चुनाव से पहले राजनीति में सक्रिय हो चुकीं प्रियंका वाड्रा ने यूपी कांग्रेस की कमान संभाल ली थी. लेकिन उनका कोई जादू नहीं चला था. जिसे लोग ब्रह्मास्त्र समझते थे वो सीला पटाखा निकला. पिछले विधानसभा चुनाव में यूपी के दो लड़कों (राहुल गांधी-अखिलेश यादव) का गठबंधन फेल हो ही चुका था. लोकसभा चुनाव में तो कांग्रेस का लगभग सफाया ही हो गया.

प्रियंका अपने भाई राहुल गांधी की रायबरेली सीट तक नहीं बचा सकीं. अमेठी में सोनिया गांधी की सीट के सिवा प्रियंका के नेतृत्व वाले लोकसभा चुनाव में यूपी में कांग्रेस साफ हो गई थी. पंडित नेहरू के इस सूबे में बंजर पड़ी कांग्रेस की जमीन को इंदिरा गांधी का अक्स कहे जाने वाली प्रियंका गांधी वाड्रा अपने जमीनी संघर्ष के पसीने से सींचने की कोशिश कर रही हैं. लेकिन स्थिति जस की तस है.

देश की सबसे पुरानी पार्टी कांग्रेस भले ही कई राज्यों में अपना वजूद बरकरार रखे है लेकिन उत्तर प्रदेश में इस पार्टी का बुढ़ापा जाहिर होना लगा है. बुढ़ापे की वो स्थिति जब दवा और खुराक़ जितनी अच्छी दे दीजिए पर शरीर को लगती ही नहीं. यहां कांग्रेस के लम्बे संघर्ष को देखकर कथाकार प्रेमचंद की कहानी बूढ़ी काकी की याद आ जाती है.

महान कथाकार की कालजयी रचना का ये वो चरित्र है जो मजबूर है, कमजोर है पर हार नही मानता, और अपनी इच्छाओं,जरुरतों और पुराने रसूक के लिए लड़ता है. इसरार भी करता है और संघर्ष भी जारी रखता है. अपनी ही ज़मीन पर बेगानी बूढ़ी काकी के बुढ़ापे से जैसे सबको चिढ़ हो गई थी. उनका शरीर जरूर कमज़ोर हो गया था लेकिन खुराक कमजोर नहीं हुई थी.

भोजन के लिए वो लालायित होती रहती थी. उनकी ही जमीन पर उनके सामने पैदा हुए बड़े और बच्चे काकी को चिढ़ाते. ये बूढ़ी काकी चार दशक तक सत्ता के रसूक से हाशिए पर आने वाले यूपी कांगेस जैसी हो गई थी. आजादी के बाद यूपी की सत्ता पर एकक्षत्र राज्य करने वाली कांग्रेस के सामने भाजपा अस्तित्व में आई.

यूपी मे कांग्रेस के सामने इधर तीन दशकों के दौरान सपा-बसपा ने जन्म लिया. आज यहां विधानसभा चुनाव की तैयारियों में कांग्रेस को कोई अपना प्रतिद्वंद्वी भी मानने को तैयार नहीं. पुराने तजुर्बों को देखते हुए कोई इसके साथ गठबंधन करने को तैयार नहीं. भाजपा और समाजवादी पार्टी छोटे दलों के साथ गठबंधन बना रही है पर कांग्रेस के साथ आने के लिए कोई भी दल तैयार नहीं.

कांग्रेस ने खुद ही कहा था कि वो आगामी विधानसभा चुनाव में किसी भी दल के साथ गठबंधन नहीं करेगी. इस फैसले के कुछ सप्ताह बाद यूपी में कुछ दौरे करने और जमीनी हालात देखने के बाद प्रियंका के स्वर बदल गए. उन्होंने कहा कि हांलाकि किसी भी ठबंधन से कांग्रेस का नुकसान ही हुआ है फिर भी उनकी पार्टी हर दरवाजा खुले रखे है.

यूपी प्रभारी प्रियंका गांधी के इस तरह के बयान यूपी कांगेस की हकीकत बयां कर रहे है. अकेले लड़ें तो कैसे लड़ें ! गठबंधन करें तो किसके साथ करे, कोई साथ आने को तैयार नहीं. ऐसे हालात उस राष्ट्रीय पार्टी के हो गए हैं जिसने आजादी के बाद करीब साठ साल देश पर राज किया. जिस उत्तर प्रदेश में कांग्रेस की जड़े हैं और और जहां करीब चालीस वर्ष लगातार हुकुमत की उस कांग्रेस के समझ मे नहीं आ रहा कि यूपी में वो विधानसभा चुनाव कैसे लड़े?

हांलाकि कोई ज़रूरी नहीं कि यही हालात रहें. देश की सियासत की समझ रखने वाले कहते हैं कि कांग्रेस वो जमीन है जिसपर की हरियाली मसल दी जाए, सूखी घास में आग लगा दी जाएं, पर फिर भी इस उजड़ी धरती में हरियाली वापस आ ही जाती है.

कभी भी घटाएं छा जाती हैं, अंबर से धरती पर कुछ बूंदे गिरते ही बंजर भूमि में हरियाली छाने लगती हैं. इसलिए सियासत में वक्त बदलता है तो सारे अनुमान, रायशुमारी, सर्वे, कयास और विश्लेशण फेल हो जाते हैं. क्योंकि वक्त का जनाज़ा चार कांधों पर क़ब्रिस्तान नहीं जाता, कांधा देने वाले लोग बदलते रहते है.

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इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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