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बीजेपी को चैलेंज करने की कौन कहे, विपक्षी एकता तो अब सरवाइवल के लिए भी जरूरी है

    • मृगांक शेखर
    • Updated: 25 मार्च, 2022 06:34 PM
  • 25 मार्च, 2022 06:33 PM
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मोदी-शाह (Modi Shah and BJP) को 2024 में चैलेंज करने की तैयारी काफी पहले से चल रही है. बीजेपी नेतृत्व विपक्ष (Opposition Parties) के बिखरे होने का फायदा भी पूरा उठा रहा है - लेकिन मुकाबला तो दूर बीजेपी विरोधी पार्टियों के लिए अब अस्तित्व का संकट (Survival Challenge) खड़ा हो गया है.

बिहार में मुकेश सहनी बीजेपी के ताजा ताजा शिकार हुए हैं. ये खेल तो तभी शुरू हो चुका था जब बीजेपी (Modi Shah and BJP) ने केंद्र की सत्ता पर कब्जा जमा लिया. छोटे मोटे उदाहरण तो कई हैं, लेकिन 2016 में अरुणाचल प्रदेश में कांग्रेस के 44 में से 43 विधायकों का बीजेपी के पाले में चले जाना कोई भूल सकता है क्या?

मुकेश सहनी से पहले बीजेपी ने चिराग पासवान के साथ यूज-एंड-थ्रो पॉलिसी अपना कर नीतीश कुमार को हर संभव तरीके से डैमेज किया - फिर भी मन नहीं भरा तो अरुणाचल प्रदेश में जेडीयू के 6 विधायकों को भी झपट ही लिया. 2019 के महाराष्ट्र विधानसभा चुनावों से पहले शरद पवार ने बीजेपी पर एनसीपी विधायकों के ऐसे ही शिकार करने का आरोप लगाया था.

एनसीपी कोटे के महाराष्ट्र सरकार के मंत्रियों अनिल देशमुख और नवाब मलिक कुछ तो अपनी वजहों से लेकिन ज्यादा तो राजनीतिक कारणों से भी केंद्रीय जांच एजेंसियों के शिकार बने हैं - अगला नंबर कब और किसका आ सकता है शायद ही किसी को अंदाजा भी हो!

महाराष्ट्र की गठबंधन सरकार तो शुरू से ही बीजेपी नेतृत्व की आंखों में खटक रही है, कांग्रेस की राज्य सरकारों के लिए तो अभी तारीख तय करने की फुरसत ही नहीं मिल सकी है. पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी ने 'खेला' नहीं किया होता तो अब तक देश की राजनीति में कई बदलाव हो चुके होते. बंगाल के बाद यूपी चुनाव तक मामला होल्ड रहा, लेकिन अब तो बल्ले बल्ले ही है. पंजाब के लिए भी अरविंद केजरीवाल के खिलाफ रणनीति पर काम शुरू ही हो गया है - हो सकता है 2024 से पहले ऑपरेशन लोटस के नये नये रंग देखने को मिल जायें.

यूपी चुनाव में कई बार लगा कि कांग्रेस भी थोड़ी बहुत पंख फड़फड़ाने लायक हो सकती है - और मायावती के ऐसे बुरे हाल की तो किसी ने कल्पना भी नहीं की थी. मायावती ने तो बीएसपी को प्रासंगिक बताने...

बिहार में मुकेश सहनी बीजेपी के ताजा ताजा शिकार हुए हैं. ये खेल तो तभी शुरू हो चुका था जब बीजेपी (Modi Shah and BJP) ने केंद्र की सत्ता पर कब्जा जमा लिया. छोटे मोटे उदाहरण तो कई हैं, लेकिन 2016 में अरुणाचल प्रदेश में कांग्रेस के 44 में से 43 विधायकों का बीजेपी के पाले में चले जाना कोई भूल सकता है क्या?

मुकेश सहनी से पहले बीजेपी ने चिराग पासवान के साथ यूज-एंड-थ्रो पॉलिसी अपना कर नीतीश कुमार को हर संभव तरीके से डैमेज किया - फिर भी मन नहीं भरा तो अरुणाचल प्रदेश में जेडीयू के 6 विधायकों को भी झपट ही लिया. 2019 के महाराष्ट्र विधानसभा चुनावों से पहले शरद पवार ने बीजेपी पर एनसीपी विधायकों के ऐसे ही शिकार करने का आरोप लगाया था.

एनसीपी कोटे के महाराष्ट्र सरकार के मंत्रियों अनिल देशमुख और नवाब मलिक कुछ तो अपनी वजहों से लेकिन ज्यादा तो राजनीतिक कारणों से भी केंद्रीय जांच एजेंसियों के शिकार बने हैं - अगला नंबर कब और किसका आ सकता है शायद ही किसी को अंदाजा भी हो!

महाराष्ट्र की गठबंधन सरकार तो शुरू से ही बीजेपी नेतृत्व की आंखों में खटक रही है, कांग्रेस की राज्य सरकारों के लिए तो अभी तारीख तय करने की फुरसत ही नहीं मिल सकी है. पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी ने 'खेला' नहीं किया होता तो अब तक देश की राजनीति में कई बदलाव हो चुके होते. बंगाल के बाद यूपी चुनाव तक मामला होल्ड रहा, लेकिन अब तो बल्ले बल्ले ही है. पंजाब के लिए भी अरविंद केजरीवाल के खिलाफ रणनीति पर काम शुरू ही हो गया है - हो सकता है 2024 से पहले ऑपरेशन लोटस के नये नये रंग देखने को मिल जायें.

यूपी चुनाव में कई बार लगा कि कांग्रेस भी थोड़ी बहुत पंख फड़फड़ाने लायक हो सकती है - और मायावती के ऐसे बुरे हाल की तो किसी ने कल्पना भी नहीं की थी. मायावती ने तो बीएसपी को प्रासंगिक बताने वाले बयान को अमित शाह का बड़प्पन और लोहा मानने वाला करार देने की कोशिश की, लेकिन सत्ता में वापसी का दावा करने वाली बीएसपी आईने के सामने खड़ी हुई तो पीछे सिर्फ एक विधायक खड़ा मिला. कांग्रेस के भी आधा.

राष्ट्रवाद के नाम पर जिस तरह बीजेपी ने विपक्ष (Opposition Parties) को तहस नहस किया है, क्या बड़ा और क्या छोटा बीजेपी विरोधी सभी राजनीतिक दलों के सामने सरवाइवल का संकट खड़ा हो गया है - 2024 के आम चुनाव में चैलेंज करने से पहले सभी के लिए अपना अस्तित्व (Survival Challenge) बचाये रखना भारी पड़ने वाला है.

चल क्या रहा है, जरा गौर किया जाये

एनडीटीवी ने सूत्रों के हवाले से खबर दी है कि प्रशांत किशोर ने नये सिरे से राहुल गांधी से संपर्क साधा है - और सिर्फ गुजरात चुनाव कैंपेन को लेकर बतायी जा रही है. अरविंद केजरीवाल की राष्ट्रीय राजनीति में नयी धमक और ममता बनर्जी के साथ बिजनेस की डोर ढीली पड़ने के बाद पीके और केसीआर के रूप में नया कॉम्बो सामने आ रहा है - और पीके अब केसीआर की तीसरी पारी वाली मुहिम के सारथी बने हुए हैं.

केसीआर की तीसरी पारी: तेलंगाना के मुख्यमंत्री के. चंद्रशेखर राव हाल फिलहाल मीडिया से बातचीत में अपनी तीसरी पारी की तरफ इशारा करते हैं. सीधे सीधे तो केसीआर की तीसरी पारी तेलंगाना के मुख्यमंत्री की लगती है क्योंकि दो बार वो चुनाव जीत कर सीएम बन चुके हैं - लेकिन तीसरी पारी का मतलब कुछ और भी निकाला जा रहा है.

राष्ट्रीय राजनीति पर असर तो पंजाब चुनाव के नतीजों का भी है, लेकिन यूपी चुनाव ने तो विपक्षी खेमे में बवंडर मचा रखा है

ये वो मतलब है जो केसीआर के मन में चल रहा है. समझा जाता है कि केसीआर धीरे धीरे तेलंगाना में टीआरएस कामकाज केटीआर के नाम से जाने जाने वाले अपने बेटे केटी रामाराव को सौंपते जा रहे हैं.

राजनीति की पहली पारी केसीआर ने एनटी रामाराव के जमाने में टीडीपी के साथ शुरू किया था - बेटे केटी रामाराव नाम भी केसीआर ने एनटीआर के नाम पर ही रखा है. दूसरी पारी केसीआर ने तेलंगाना राष्ट्र समिति नाम से पार्टी बनाकर की और चुनाव जीतने के बाद मुख्यमंत्री बने. दोबारा मुख्यमंत्री बनना भी केसीआर के हिसाब से दूसरी पारी का ही हिस्सा है.

तीसरी पारी को लेकर वो कहा करते हैं, 'राजनीति में कुछ भी संभव है' - और लगे हाथ याद दिलाते हैं कि जब वो पैदा हुए तो पिता ने सोचा भी नहीं होगा कि एक दिन वो उनके गृह राज्य से कट कर बने सूबे के सीएम बनेंगे.

अगर केसीआर का इशारा समझें तो तीसरी पारी राष्ट्रीय स्तर पर उनकी भूमिका को लेकर लगती है - यानी 2024 में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को चैलेंज करने की तैयारी चल रही है. मुंबई पहुंच कर उद्धव ठाकरे और शरद पवार से केसीआर की मुलाकात के बाद ये संकेत और भी मजबूत हुआ है.

लगता है केसीआर के मन की बात प्रशांत किशोर को भा गयी है और वो उनकी तीसरी पारी का काम भी संभाल चुके हैं. सोशल मीडिया पर कुछ लोगों ने तेलंगाना के पोस्टर शेयर किये थे जिसमें प्रशांत किशोर को जन्म दिन की बधाई दी गयी थी - ये पोस्टर नेताओं की तस्वीरों से भरा पड़ा था. सबसे ऊपर केसीआर की तस्वीर थी और साथ ही, ममता बनर्जी, अखिलेश यादव, अरविंद केजरीवाल, एमके स्टालिन के साथ साथ शरद पवार और पूर्व प्रधानमंत्री एचडी देवगौड़ा भी देखे जा सकते हैं. आखिर में प्रशांत किशोर की बड़ी सी तस्वीर की बगल में नीतीश कुमार का भी फोटो नजर आ रहा है.

जिन दिनों केसीआर ने उद्धव और पवार से मुंबई में मुलाकात की थी, पीके भी दिल्ली में बिहार के मुख्यमंत्री से मिले थे - और फिर खबर आयी कि नीतीश कमार को विपक्षी नये बन रहे गुट की तरफ से राष्ट्रपति पद की पेशकश की गयी है.

खुश होने का ख्याल तो सबको अच्छा लगता ही है, हक भी है. समझना मुश्किल है कि जब ममता बनर्जी के लिए बंगाल के बाहर खड़ा होना मुश्किल हो रहा है तो केसीआर का क्या हाल होगा. और अब तो अरविंद केजरीवाल भी मैदान में अकेले ही तलवार भांजने लगे हैं - वैसे देवगौड़ा और आईके गुजराल का प्रधानमंत्री बनना बताता है कि उम्मीदें नहीं छोड़नी चाहिये.

कांग्रेस का मिशन गुजरात: प्रशांत किशोर खुद भी बता चुके हैं कि कांग्रेस के साथ उनकी बात गंभीरतापूर्वक चली थी, लेकिन फिर दोनों पक्षों को लगा कि ये उतना फलदायी नहीं होगा जितनी की दोनों को जरूरत है. एक इंटरव्यू में कांग्रेस महासचिव प्रियंका गांधी वाड्रा ने भी ऐसी ही बातें बतायी थी - लेकिन अब नये सिरे से पीके के राहुल गांधी से संपर्क किये जाने की खबर आयी है.

बताते हैं कि प्रशांत किशोर ने राहुल गांधी के सामने सिर्फ गुजरात चुनाव के कैंपेन का प्रस्ताव रखा है. खबर ये भी है कि कांग्रेस नेतृत्व ने पीके के प्रस्ताव पर अभी तक कोई फैसला नहीं लिया है. गुजरात कांग्रेस के नेताओं की राहुल गांधी के साथ बैठक के बाद ये चीज सामने आयी है.

यूपी चुनाव के नतीजे आने से पहले ही गुजरात में कांग्रेस के चिंतन शिविर में राहुल गांधी ने कार्यकर्ताओं को जीत के टिप्स दिये थे - और ये नुस्खा था कि वे मान लें कि गुजरात जीत गये हैं. ये बात अलग है कि गुजरात के कांग्रेस नेताओं और कार्यकर्ता अभी तक ये बात मान पाये हैं या नहीं.

मन ही मन कुछ भी मान लेने की बात और है, लेकिन जमीन पर तो यही नजर आया है कि यूपी सहित विधानसभा चुनाव के नतीजे आने के अगले ही दिन नरेंद्र मोदी अहमदाबाद में रोड शो कर रहे थे और अमित शाह, जेपी नड्डा संघ के साथ चुनाव की तैयारियां कर रहे थे.

सरवाइवल संकट से तो चुनाव रणनीतिकार प्रशांत किशोर भी गुजरने लगे हैं - प्रशांत किशोर यानी पीके की मुश्किल ये है कि उनकी दुकान तो विपक्षी दलों की राजनीति से ही चलती है. अगर विपक्षी दलों की राजनीति ही दम तोड़ देगी तो भला पीके की जरूरत ही किसे रहेगी.

मोदी-शाह की अगुवाई वाली बीजेपी ने तो केंद्र में सरकार बनाने के बाद ही पीके की जरूरत खत्म कर डाली थी. बगैर पीके की मदद के ही पंजाब जीत कर अरविंद केजरीवाल ने भी ऐसा ही संदेश देने की कोशिश की है. अपनी अलग टीम भी तैयार कर ही ली है. दिल्ली चुनाव के कैंपेन का ठेका देकर पीके के हुनर से कुछ कुछ केजरीवाल ने सीख तो लिया ही होगा.

अब तो सब कुछ 2024 के हिसाब से होने वाला है

अगर 2024 का आम चुनाव बीजेपी के विरोधी कुछ नेताओं के लिए अस्तित्व का संकट लेकर आ रहा है, तो कुछ नेताओं के लिए यही कवच-कुंडल साबित होने वाला है - ये सब उन इलाकों में दिखेगा जहां बीजेपी बगैर किसी व्यवधान के सुरक्षित निकलना चाहेगी.

दिल्ली फाइल्स आने वाली है: विनोद अग्निहोत्री की फिल्म 'द कश्मीर फाइल्स' को लेकर अरविंद केजरीवाल का रिएक्शन बता रहा है कि उसकी राजनीतिक अहमियत कितनी है.

अरविंद केजरीवाल के भाषण पर भी जबरदस्त प्रतिक्रिया हुई है और बीजेपी को तो हमलावर होना ही था. वैसे अरविंद केजरीवाल भी भला कब तक चुप रहते. देख रहे थे कि ये फिल्म तो परसेप्शन मैनेजमेंट के मामले में आईटी सेल को भी पछाड़ने लगी है.

विवेक अग्निहोत्री ये भी बता चुके हैं कि ‘द ताशकंद फाइल्‍स’ और ‘द कश्‍मीर फाइल्‍स’ की ही तरह ‘द दिल्‍ली फाइल्‍स’ भी आने वाली है - और फिल्मकार के मुताबिक वो फिल्‍म भी डेमोक्रेसी पर कॉमेंट्री होगी.

विवेक अग्निहोत्री ने ज्यादा कुछ तो नहीं बताया है, लेकिन इतना जरूर कहा है कि वो दिल्ली दंगों पर आधारित नहीं होगी. ठीक ही तो कह रहे हैं दिल्ली दंगों पर फिल्म बनी, फिर उस पक्ष को तो राजनीतिक फायदा मिलने से रहा जिसे कश्मीर फाइल्स से मिल सकता है.

फिल्म का प्लॉट रहस्यमय बनाने की कोशिश के बावजूद, लगता है कि विवेक अग्निहोत्री की अगली फिल्म 84 के दिल्ली दंगों पर हो सकती है - क्योंकि वो एक फायर में ही डबल टारगेट साध लेने में कारगर हो सकती है.

दिल्ली के सिख दंगे हमेशा ही कांग्रेस की कमजोर कड़ी रहे हैं. जब कभी भी उसके बारे में राहुल गांधी से सवाल पूछा जाता है, वो परेशान हो जाते हैं. दंगों के बाद राजीव गांधी के बड़े पेड़ और छोटे पेड़ वाला बयान भी पीछा नहीं छोड़ता - जाहिर है दिल्ली फाइल्स आने से पहले ही गांधी परिवार के साथ साथ अरविंद केजरीवाल को भी अपना जवाब तैयार कर लेना होगा.

दिल्ली के सिख दंगों को लेकर एक आयोजन के दौरान अरविंद केजरीवाल ने कहा था कि 2003 के गुजरात और 1984 के दिल्ली दंगों के पीड़ितों को समय से इंसाफ मिल गया होता तो देश में कहीं और कोई दंगा होता ही नहीं.

हिंसा न रोक पाना ममता का ब्लंडर: पश्चिम बंगाल में विधानसभा चुनावों के नतीजे आने के बाद हुई हिंसा को लेकर ममता बनर्जी पहले से ही निशाने पर रही हैं - बीरभूम के रामपुरहाट की घटना थोड़ा गंभीर मामला हो जाता है.

करीब 11 साल के शासन में ऐसा पहली बार हो रहा है कि ममता बनर्जी और टीएमसी सरकार को बैकफुट पर आना पड़ा है. असल में बीरभूम हिंसा ने पूरे विपक्ष को ममता बनर्जी के खिलाफ नया और मजबूत हथियार दे दिया है.

ममता बनर्जी के लिए मुश्किल स्थिति ये है कि बीजेपी ही नहीं, कांग्रेस नेता अधीर रंजन चौधरी भी पश्चिम बंगाल में राष्ट्रपति शासन लागू किये जाने की मांग करने लगे हैं. बीजेपी नेता रूपा गांगुली तो संसद में फूट फूट कर रोने ही लगीं.

ये तो कोई भी नहीं कह सकता कि कैसी भी कानून व्यवस्था होने पर ऐसी घटनाओं को रोका जा सकता है. ऐसी राजनीतिक हिंसा ममता बनर्जी के मुख्यमंत्री बनने से पहले भी होती रही है. ये भी वैसी ही राजनीतिक हिंसा है जैसी केरल में होती है और बीजेपी अपने कार्यकर्ताओं की हत्या का इल्जाम लगाती है.

राज्य सरकार का काम होता है जल्द से जल्द कानून व्यवस्था को कंट्रोल करना. आम जनमानस में ये संदेश पहुंचाना कि कानून ठीक से काम कर रहा है. सरकार को लोगों को भरोसा दिलाना होता है कि पीड़ितों को इंसाफ मिल कर रहेगा - अगर लोगों को ये यकीन हो गया तो राजनीति कितनी भी हो, उसका असर उतना ज्यादा नहीं हो सकता.

हो सकता है ममता बनर्जी येन केन प्रकारेण चीजों को हैंडल भी कर लेती हैं, लेकिन बंगाल से बाहर की राजनीति में ऐसी घटनाएं बड़ी बाधा बन सकती हैं. वैसे भी जब से अरविंद केजरीवाल की पार्टी ने पंजाब जीता है, ममता बनर्जी को थोड़ा पिछड़ा हुआ समझा जा रहा है. राष्ट्रीय राजनीति में आगे भी रेस में बने रहने ममता बनर्जी को ऐसी बड़ी गलतियों से बचना होगा.

2021 में बीजेपी भले ही नाकाम रही हो, लेकिन 2019 के आम चुनाव में ममता बनर्जी को काफी डैमेज किया था, मान कर चलना होगा 2024 के हिसाब से और भी खतरनाक तैयारी चल रही होगी - और तब ममता बनर्जी नहीं संभल पायीं तो उनके लिए भी अस्तित्व का खतरा पैदा हो सकता है. ममता जैसी ही मुश्किल सबके सामने है:

सिर्फ ममत बनर्जी ही नहीं, ऐसे सभी नेता बीजेपी के निशाने पर आ चुके हैं जो पार्टी के लिए कहीं न कहीं किसी न किसी रूप में खतरा पैदा कर सकते हैं - गौर फरमाने वाली बात ये है कि बीजेपी अब सिर्फ कांग्रेस मुक्त ही नहीं विपक्ष मुक्त भारत के हिसाब से अपनी रणनीति तैयार कर रही है.

यूपी चुनाव सबसे बड़ा उदाहरण है. बीजेपी का इरादा अब विपक्ष को शिकस्त भर देना नहीं रह गया है, बल्कि जैसे भी संभव हो नेस्तनाबूद करने देने का है. राष्ट्रवाद के नाम पर संघ और बीजेपी ने यूपी में ऐसी मुहिम चलायी है कि जातिवाद की राजनीति धरी की धरी रह गयी है.

अमेठी के बाद बीजेपी रायबरेली को भी गांधी परिवार मुक्त बनाने में जुट गयी है. दिल्ली में अरविंद केजरीवाल की जड़ें खोदी जानी शुरू हो चुकी है. उद्धव ठाकरे, शरद पवार, हेमंत सोरेन, अशोक गहलोत, भूपेश बघेल पहले से ही बीजेपी की निगाह में चढ़े हुए हैं - मौका मिलते ही सबका हाल मुकेश सहनी या चिराग पासवान जैसा करने की पूरी तैयारी है.

तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एमके स्टालिन के लिए ज्यादा दिक्कत इसलिए नहीं लगती है क्योंकि बीजेपी अभी तक वहां ठीक से पांव जमा नहीं सकी है - और संदेह के लाभार्थियों में एक नाम नीतीश कुमार का भी हो सकता है. मुश्किल ये है कि बीजेपी से ज्यादा तेजी से नीतीश कुमार की राजनीति खत्म करने की कवायद तो विपक्षी खेमे में ही महसूस की जाने लगी है.

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इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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