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नीतीश ने पासवान को टिकने नहीं दिया, लेकिन दलित राजनीति पर अंदर से हिल गये

    • मृगांक शेखर
    • Updated: 02 सितम्बर, 2020 10:49 PM
  • 02 सितम्बर, 2020 10:49 PM
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नीतीश कुमार (Nitish Kumar) के खिलाफ मुहिम चला कर भी चिराग पासवान (Chirag Paswan) को बहुत कुछ हासिल नहीं हो पाया है, लेकिन जिस तरीके से दलित राजनीति को लेकर जेडीयू नेता एक्टिव नजर आ रहे हैं - ये तो साफ है कि वो अंदर तक हिल चुके हैं.

नीतीश कुमार (Nitish Kumar) बिहार में NDA के मुख्यमंत्री पद का चेहरा हैं, लेकिन अमित शाह और जेपी नड्डा ऐसे लगे हुए हैं जैसे वो जेडीयू नहीं बल्कि बीजेपी के ही नेता हों. फिर भी नीतीश कुमार को भविष्य की चिंता खाये जा रही है. उपेंद्र कुशवाहा को एनडीए से बेदखल करने के बाद अब उनकी नजर राम विलास पासवान की पार्टी एलजेपी पर फोकस हो गयी है.

बीजेपी अध्यक्ष जेपी नड्डा बार बार बता रहे हैं कि एनडीए के सभी सहयोगी मिल कर बिहार चुनाव लड़ रहे हैं और ये सब नीतीश कुमार की अगुवाई में चल रहा है. दरअसल, ये सीधे सीधे चिराग पासवान (Chirag Paswan) के लिए संदेश भी है. चिराग पासवान काफी दिनों से नीतीश कुमार के खिलाफ आक्रामक मुहिम चलाते आ रहे हैं.

पासवान की पार्टी एलजेपी भी यूपी में बीएसपी की तरह दलित राजनीति ही करती है. लोक सभा चुनाव जीतने के मामले में भले ही राम विलास पासवान रिकॉर्ड बना चुके हों, लेकिन मायावती की तरह बिहार में कभी मुख्यमंत्री पद को लेकर सीधी टक्कर में खड़े नहीं हो पाये. अब तो कह रहे हैं कि चिराग पासवान में बिहार का मुख्यमंत्री बनने की पूरी काबिलियत है.

समझने वाली बात ये है कि पासवान की दलित राजनीति (Dalit Politics) पर अब नीतीश कुमार की नजर लग चुकी है - तभी तो नीतीश कुमार जेडीयू को दलित चेहरों से सजाने में जुट गये हैं.

मांझी बने नीतीश के हथियार

2019 के आम चुनाव से पहले ही एनडीए से उपेंद्र कुशवाहा का पत्ता साफ करा चुके नीतीश कुमार को अब राम विलास पासवान, विशेष रूप से उनके बेटे चिराग पासवान खटकने लगे हैं. वैसे ये भी सच है कि कुछ दिनों से जब कोविड 19 और बाढ़ ने बिहार की हालत चिंताजनक बना रखी है, चिराग पासवान अलग से मुश्किलें खड़ी करते रहे हैं.

सवाल ये है कि क्या नीतीश कुमार सिर्फ चिराग पासवान के आक्रामक रूख से ही परेशान हैं या और भी कोई वजह है?

बिहार में एनडीए की राजनीति कुछ ऐसे चल रही है जैसे बीजेपी चाहती है कि नीतीश कुमार के मुकाबले उसकी ज्यादा सीटें आयें ताकि चुनाव बाद ज्यादा दबाव कायम किया...

नीतीश कुमार (Nitish Kumar) बिहार में NDA के मुख्यमंत्री पद का चेहरा हैं, लेकिन अमित शाह और जेपी नड्डा ऐसे लगे हुए हैं जैसे वो जेडीयू नहीं बल्कि बीजेपी के ही नेता हों. फिर भी नीतीश कुमार को भविष्य की चिंता खाये जा रही है. उपेंद्र कुशवाहा को एनडीए से बेदखल करने के बाद अब उनकी नजर राम विलास पासवान की पार्टी एलजेपी पर फोकस हो गयी है.

बीजेपी अध्यक्ष जेपी नड्डा बार बार बता रहे हैं कि एनडीए के सभी सहयोगी मिल कर बिहार चुनाव लड़ रहे हैं और ये सब नीतीश कुमार की अगुवाई में चल रहा है. दरअसल, ये सीधे सीधे चिराग पासवान (Chirag Paswan) के लिए संदेश भी है. चिराग पासवान काफी दिनों से नीतीश कुमार के खिलाफ आक्रामक मुहिम चलाते आ रहे हैं.

पासवान की पार्टी एलजेपी भी यूपी में बीएसपी की तरह दलित राजनीति ही करती है. लोक सभा चुनाव जीतने के मामले में भले ही राम विलास पासवान रिकॉर्ड बना चुके हों, लेकिन मायावती की तरह बिहार में कभी मुख्यमंत्री पद को लेकर सीधी टक्कर में खड़े नहीं हो पाये. अब तो कह रहे हैं कि चिराग पासवान में बिहार का मुख्यमंत्री बनने की पूरी काबिलियत है.

समझने वाली बात ये है कि पासवान की दलित राजनीति (Dalit Politics) पर अब नीतीश कुमार की नजर लग चुकी है - तभी तो नीतीश कुमार जेडीयू को दलित चेहरों से सजाने में जुट गये हैं.

मांझी बने नीतीश के हथियार

2019 के आम चुनाव से पहले ही एनडीए से उपेंद्र कुशवाहा का पत्ता साफ करा चुके नीतीश कुमार को अब राम विलास पासवान, विशेष रूप से उनके बेटे चिराग पासवान खटकने लगे हैं. वैसे ये भी सच है कि कुछ दिनों से जब कोविड 19 और बाढ़ ने बिहार की हालत चिंताजनक बना रखी है, चिराग पासवान अलग से मुश्किलें खड़ी करते रहे हैं.

सवाल ये है कि क्या नीतीश कुमार सिर्फ चिराग पासवान के आक्रामक रूख से ही परेशान हैं या और भी कोई वजह है?

बिहार में एनडीए की राजनीति कुछ ऐसे चल रही है जैसे बीजेपी चाहती है कि नीतीश कुमार के मुकाबले उसकी ज्यादा सीटें आयें ताकि चुनाव बाद ज्यादा दबाव कायम किया जा सके. ठीक वैसे ही नीतीश कुमार चाहते हैं कि पासवान की पार्टी एलजेपी के हिस्से में इतनी कम सीटें आयें कि पार्टी इतनी दब जाये कि उठ कर खड़ा होना मुश्किल हो. अगर विधान सभा में पासवान की पार्टी ने अच्छा प्रदर्शन नहीं किया तो आने वाले चुनावों में बीजेपी और नीतीश दोनों ही एलजेपी पर कम सीटों के लिए दबाव बना सकते हैं - दलील होगी कि एलजेपी को तो जो भी सीटें मिल रही हैं वो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और एनडीए में रहने की वजह से मिल रही हैं.

बिहार में महादलित प्रयोग के बाद अब नीतीश कुमार दलित राजनीति को साधने में जुटे हैं

जीतनराम मांझी को भी नीतीश कुमार इसीलिए खड़ा करने की कोशिश कर रहे हैं. मांझी न सिर्फ श्याम रजक की भरपाई कर रहे हैं, बल्कि उनका इस्तेमाल एलजेपी और उसके चलते बीजेपी के खिलाफ भी किया जा सकता है. देखा जाये तो जीतनराम मांझी का एक बार फिर से वैसे ही इस्तेमाल होने जा रहा है जैसे 2015 में हुआ था. तब बीजेपी ने नीतीश कुमार के जीतनराम मांझी का इस्तेमाल किया, अब नीतीश कुमार भी वही कर रहे हैं. नीतीश एक तरीके से बीजेपी पर दबाव बढ़ाने में मांझी का इस्तेमाल कर रहे हैं. नीतीश की कोशिश होगी कि कैसे पासवान को बिहार में एक दायरे में सीमित करके रख दें. लोक सभा में जो भी हो, विधान सभा में पासवान की पार्टी कमजोर पड़ रही है. विधानसभा में पासवान की पार्टी के विधायक भी दलित समुदाय से नहीं हैं. चिराग पासवान की सीटों पर दबाव बनाने के साथ साथ कोशिश बिहार में पार्टी को चर्चा में बनाये रखना भी रहा है जिसमें वो कामयाब जरूर रहे हैं, लेकिन नीतीश की टेढ़ी नजर से नुकसान को कितना कम कर पाएंगे, देखना होगा.

जीतनराम मांझी और नीतीश कुमार की अब तक तीन मुलाकातें टल चुकी हैं. कहने को तो ये पेंच विधानसभा की सीटों को लेकर फंसा हुआ है, लेकिन असल बात कुछ और है. दरअसल, मांझी विधानसभा चुनाव नहीं लड़ना चाहते - और नीतीश चाहते हैं कि मांझी चुनाव लड़ें ही. नीतीश कुमार जीत की गारंटी तक लेने को तैयार हैं. ताजा जानकारी ये आ रही है कि जीतनराम मांझी विधानसभी की नौ सीटों के साथ साथ अपने लिए एक सीट विधान परिषद में भी चाह रहे हैं - और अगर ऐसा नहीं हो सके तो फिर मांझी को विधानसभा की 12 सीटें चाहिये.

नीतीश की दलित राजनीति

नीतीश कुमार के विरोधी तो यही आरोप लगाते हैं कि वो दलित राजनीति के लिए सिर्फ यूज-एंड-थ्रो की नीति अपनाते हैं. जीतनराम मांझी को पहले मुख्यमंत्री बनाया और फिर वही कुर्सी जबरन छीन लिये. दशरथ मांझी को भी मुख्यमंत्री आवास में कुर्सी पर बिठाकर सम्मानित किये जाने को उसी नजरिये से देखा जाता है. दशरथ मांझी पर फिल्म भी बन चुकी है जिसमें नवाजुद्दीन सिद्दीकी लीड रोल में रहे.

2005 में जब नीतीश कुमार सत्ता में आये तो दलित राजनीति को धीरे धीरे महादलित कलेवर देने लगे. दलित समुदाय की करीब दो दर्जन जातियों को मिलाकर महादलित बना दिया गया, लेकिन पासवान को उससे बाहर रखा गया था. जब जीतनराम मांझी कुछ दिन के लिए मुख्यमंत्री बने थे तो मार्च, 2015 में पासवान जाति को भी महादलित का दर्जा दे दिया गया, लेकिन बाद में नीतीश कुमार ने कुर्सी पर बैठते ही पलट दिया. नीतीश कुमार की दलील रही कि पासवान लोगों की सामाजिक, आर्थिक और शैक्षिक स्थिति बाकी दलों से बेहतर है. 2018 में अंबेडकर जयंती के मौके पर नीतीश कुमार ने फिर से पासवान को दलितों में शामिल किये जाने की घोषणा जरूर कर दी.

महागठबंधन से सिर्फ जीतननाम मांझी ही नहीं, नीतीश कुमार ने आरजेडी विधायक प्रेमा चौधरी को भी जेडीयू में शामिल करा लिया है. नीतीश कुमार एक नया चेहरा लेकर भी आ रहे हैं - ये हैं बिहार के डीजी स्पोर्ट्स रह चुके सुनील कुमार. 1987 बैच के आईपीएस अफसर सुनील कुमार बिहार के जाने माने दलित परिवार से आते हैं.

सुनील कुमार के पिता चंद्रिका राम संविधान सभा के सदस्य रह चुके हैं. बाद में कांग्रेस सरकार में मंत्री भी बने थे - मान कर चलिये कि चुनावों में बाबा साहेब अंबेडकर के साथी के बेटे को तौर पर प्रोजेक्ट किये जाएंगे.

बिहार में दलित राजनीति का आलम ये है कि पप्पू यादव अब दलित मुख्यमंत्री की मांग करने लगे हैं. बिहार में पप्पू यादव के भी बयान भी वैसे ही होते हैं जैसे महाराष्ट्र के रामदास अठावले से सुनने को मिलते रहे हैं. जैसे उद्धव सरकार के गिर जाने की भविष्यवाणी करते करते रामदास अठावले कपिल सिब्बल और गुलाम नबी आजाद को एनडीए ज्वाइन करने की सलाह देने लगे हैं, पप्पू यादव का भी वही हाल है - उनके विचार विकास दुबे से लेकर चीन के साथ संबंधों तक सुनने को मिल जाते हैं. दोनों में फर्क बस ये है कि अठावले एनडीए के साथ हैं और पप्पू यादव किसी भी गठबंधन में एंट्री पाने के लिए लालायित हैं

पप्पू यादव का कहना है, 'मैं कांग्रेस से आग्रह करूंगा कि वो मीरा कुमार को आगे लाये - और जनता के सामने एक नया विकल्प प्रस्तुत करे. मैं अब भी अपनी बात पर अडिग हूं कि बिहार का नेतृत्व कोई दलित या महादलित समुदाय का नेता करे.'

नीतीश कुमार राष्ट्रपति चुनाव में मीरा कुमार के खिलाफ वोट कर चुके हैं. तब नीतीश कुमार महागठबंधन में थे और जेडीयू ने एनडीए के उम्मीदवार रामनाथ कोविंद को वोट दिया था. जैसे राहुल गांधी प्रधानमंत्री पद पर पेंच फंसाये रखते हैं, वैसे ही तेजस्वी यादव का बिहार के मुख्यमंत्री पद पर दावा बना हुआ है. तेजस्वी यादव मानने को तैयार नहीं होंगे, वरना कांग्रेस मीरा कुमार को लेकर एक्सपेरिमेंट कर भी लेती.

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इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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