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Bihar election: विजयी गठबंधन की केंद्रीय भूमिका में बैठे नीतीश कुमार अब जनाधार से ऊपर हैं

    • प्रभाष कुमार दत्ता
    • Updated: 27 अगस्त, 2020 05:40 PM
  • 27 अगस्त, 2020 05:40 PM
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जल्द ही बिहार में चुनाव (Bihar Elections) होने हैं ऐसे में हमें ये समझना होगा कि बिहार की राजनीति में नीतीश कुमार 2005 से ही राजनीति के केंद्र हैं, चूंकि वह दो बार राज्य के मुख्यमंत्री बन चुके हैं इसलिए तेजस्वी यादव (Tejasvi Yadav) को उन्हें हराना एक टेढ़ी खीर साबित होने वाला है.

2005 में जब दूसरी बार बिहार के मुख्यमंत्री (Chief Minister of Bihar) की शपथ ली तब ही लग गया बिहार की राजनीति में नीतीश कुमार (Nitish Kumar) केंद्रीय भूमिका में रहेंगे. 2000 में उनका पहला कार्यकाल अल्पकालिक था, केवल आठ दिनों का. जीतन मांझी (Jitan Manjhi) के नौ महीने को छोड़कर, उन्होंने 15 साल तक बिना किसी रुकावट के बिहार पर शासन किया. दिलचस्प बात यह है कि बिहार में लंबे समय तक राज करने के बावजूद नीतीश कुमार के पास अपने दम पर विधानसभा चुनाव (Assembly Elections) जीतने के लिए राजनीतिक बाहुबल या संगठनात्मक आधार नहीं है.

नीतीश कुमार का जनता दल यूनाइटेड केवल एक बार विधानसभा चुनाव में सबसे बड़ा वोट एग्रीगेटर रहा है. 2010 नीतीश कुमार के लिए भाग्यशाली रहा और केवल उसी दौरान ही इनका और इनके दल का सबसे अच्छा प्रदर्शन देखने को मिला जिसकी जमकर सराहना भी हुई. उनकी पार्टी ने 2019 के बिहार विधानसभा चुनाव में 22.5 फीसदी वोट हासिल किए. अक्टूबर 2005 के चुनावों में, JD को लगभग 20.5 प्रतिशत वोट मिले.

कुछ का मानना है कि भाजपा के साथ गठबंधन के कारण नीतीश कुमार की जेडीयू को 'अतिरिक्त' 3-4 प्रतिशत वोट मिलते हैं, जिसके पास अपना एक निश्चित वोट बैंक है. भाजपा-आरएसएस के कैडर जेडीयू को कुछ सीटों पर अतिरिक्त वोट हासिल करने में मदद करते हैं. वे कहते हैं कि यह उपाय दूसरे पक्ष के मामले में कारगर साबित होता है. 

बिहार चुनाव के मद्देनजर नीतीश कुमार प्रभावशाली भूमिका में नजर आ रहे हैं

2015 के बिहार विधानसभा चुनाव ने इस चुनावी व्यवस्था की झलक भी दिखाई है. 2015 में, नीतीश कुमार ने भाजपा नीत राजग से अलग होकर राजद और कांग्रेस के साथ बिहार विधानसभा चुनाव लड़ा.  नीतीश कुमार ने 2014 के लोकसभा चुनावों के...

2005 में जब दूसरी बार बिहार के मुख्यमंत्री (Chief Minister of Bihar) की शपथ ली तब ही लग गया बिहार की राजनीति में नीतीश कुमार (Nitish Kumar) केंद्रीय भूमिका में रहेंगे. 2000 में उनका पहला कार्यकाल अल्पकालिक था, केवल आठ दिनों का. जीतन मांझी (Jitan Manjhi) के नौ महीने को छोड़कर, उन्होंने 15 साल तक बिना किसी रुकावट के बिहार पर शासन किया. दिलचस्प बात यह है कि बिहार में लंबे समय तक राज करने के बावजूद नीतीश कुमार के पास अपने दम पर विधानसभा चुनाव (Assembly Elections) जीतने के लिए राजनीतिक बाहुबल या संगठनात्मक आधार नहीं है.

नीतीश कुमार का जनता दल यूनाइटेड केवल एक बार विधानसभा चुनाव में सबसे बड़ा वोट एग्रीगेटर रहा है. 2010 नीतीश कुमार के लिए भाग्यशाली रहा और केवल उसी दौरान ही इनका और इनके दल का सबसे अच्छा प्रदर्शन देखने को मिला जिसकी जमकर सराहना भी हुई. उनकी पार्टी ने 2019 के बिहार विधानसभा चुनाव में 22.5 फीसदी वोट हासिल किए. अक्टूबर 2005 के चुनावों में, JD को लगभग 20.5 प्रतिशत वोट मिले.

कुछ का मानना है कि भाजपा के साथ गठबंधन के कारण नीतीश कुमार की जेडीयू को 'अतिरिक्त' 3-4 प्रतिशत वोट मिलते हैं, जिसके पास अपना एक निश्चित वोट बैंक है. भाजपा-आरएसएस के कैडर जेडीयू को कुछ सीटों पर अतिरिक्त वोट हासिल करने में मदद करते हैं. वे कहते हैं कि यह उपाय दूसरे पक्ष के मामले में कारगर साबित होता है. 

बिहार चुनाव के मद्देनजर नीतीश कुमार प्रभावशाली भूमिका में नजर आ रहे हैं

2015 के बिहार विधानसभा चुनाव ने इस चुनावी व्यवस्था की झलक भी दिखाई है. 2015 में, नीतीश कुमार ने भाजपा नीत राजग से अलग होकर राजद और कांग्रेस के साथ बिहार विधानसभा चुनाव लड़ा.  नीतीश कुमार ने 2014 के लोकसभा चुनावों के दौरान नीतीश ने अपने को इसलिए भी भाजपा से अलग किया क्योंकि वह नरेंद्र मोदी को बतौर प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार के रूप में पेश करने वाली भाजपा के फैसले को स्वीकार नहीं कर पा रहे थे.

VOTE BANK: जहां नीतीश कुमार कमज़ोर दिखाई दे रहे हैं.

जबकि नीतीश कुमार की जेडीयू ने अपने वोट शेयर में लगभग छह प्रतिशत अंकों की गिरावट देखी जो 2010 में 22.5 प्रतिशत थी तो वहीं ये 2015 में 16.8 थी वहीं बात अगर भाजपा की हो तो इस मामले में भाजपा का फायदा होता दिखाई देता है. 2015 में भाजपा का शेयर लगभग 16.5 प्रतिशत से बढ़कर 2015 में लगभग 24.5 प्रतिशत हुआ. 

दूसरी ओर, राजद का वोट शेयर लगभग बराबर ही रहा.  2010 में ये 18.8 प्रतिशत था जबकि 2015 में ये 18.4 हुआ जो कि 2005 के पूर्व के मुकाबले काफी कम था. 2005 में, राजद ने लगभग 23.5 प्रतिशत वोट हासिल किये थे.

बिहार विधानसभा चुनाव में मतदान के इस खंडित स्वरूप ने नीतीश कुमार को ताकतवर बना दिया.  2005 में, उन्होंने गठबंधन के दौरान 35 प्रतिशत से अधिक वोट शेयर हासिल किया जिससे उन्हें बहुमत मिला और इसका एक बड़ा फायदा भाजपा को भी हुआ.

कैसे नीतीश ने सत्ता का संतुलन बनाया

2010 में, बिहार में नीतीश कुमार के नेतृत्व वाले राजग को सत्ता बनाए रखने के लिए 40 प्रतिशत के करीब वोट मिले. पांच साल बाद, जबकि भाजपा ने सबसे अधिक वोट शेयर हासिल किया, लेकिन क्योंकि नीतीश कुमार ने राजद और कांग्रेस को सत्तारूढ़ गठबंधन को एक को एक साथ किया था इसलिए इसका भी सीधा फायदा उन्हें ही हुआ.

 

24.5 प्रतिशत मतों के साथ, भाजपा 53 सीटों पर जीत दर्ज की और तीसरे स्थान पर रही. राजद ने 18.4 फीसदी मतों के साथ 80 सीटें जीतीं. नीतीश कुमार की जेडीयू को 16.8 फीसदी वोटों के साथ 71 सीटें मिलीं.

2010 में, जब राजद और जदयू चुनावी बाड़ के विपरीत पक्ष में थे, तो पूर्व मुख्यमंत्री लालू प्रसाद की पार्टी को 18.8 प्रतिशत मतों के साथ केवल 22 सीटें मिलीं. 2015 में, इसके वोट शेयर में मामूली 18.4 प्रतिशत की गिरावट आई, लेकिन इसने गठबंधन सहयोगी के रूप में नीतीश कुमार की जेडीयू के साथ 58 और सीटें जीतीं.

इसी तरह, भाजपा ने 2010 में 16.5 प्रतिशत मतों के साथ 91 सीटें जीतीं, जब नीतीश कुमार एनडीए के पाले में थे. लेकिन 2015 के बिहार विधानसभा चुनाव में इसने 38 कम सीटें जीतीं, जब नीतीश कुमार ने अपना पक्ष छोड़ दिया था, हालांकि भाजपा ने लगभग आठ प्रतिशत अतिरिक्त वोट हासिल किये.

यह बताता है कि भाजपा ने अपने ही मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवार को नीतीश कुमार को सत्ता से दूर करने में क्यों हिचक दिखाई, जो बिहार में सत्ता में रहने की गारंटी की तरह है. बिहार में मुख्यमंत्री पद के उनके निकटतम प्रतिद्वंद्वी राजद के तेजस्वी यादव हैं.

राजद प्रमुख और तेजस्वी के पिता लालू प्रसाद 1990 के चारा घोटाला मामले में जेल की सजा काट रहे हैं. तेजस्वी यादव अपने पिता की दागी छवि से तो जूझ ही रहे हैं साथ ही उनपर अनुभवहीन होने का टैग भी लगा है. वह बिहार में 'स्वच्छ' नीतीश कुमार के खिलाफ धारणा की लड़ाई हारते दिख रहे हैं, जहां अगले दो महीनों में अगली सरकार के लिए मतदान शुरू करने की संभावना है.

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इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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