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कश्मीर तो निमित्त मात्र है, मोदी सरकार के फोकस पर Pakistan है

    • आईचौक
    • Updated: 03 अगस्त, 2019 05:14 PM
  • 03 अगस्त, 2019 05:14 PM
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समझना थोड़ा मुश्किल हो रहा है कि जम्मू-कश्मीर के लोग ज्यादा परेशान हैं या क्षेत्रीय नेता? सूबे में सुरक्षा बलों की गतिविधियां और सरहद पार से आतंकी मंसूबों के इनपुट तो यही बता रहे हैं कि सरकार पाकिस्तान को ही घेरने में लगी है.

जम्मू-कश्मीर में फिलहाल जो कुछ हो रहा है, उससे आम लोगों का परेशान होना तो स्वाभाविक है - लेकिन क्षेत्रीय नेता कुछ ज्यादा ही डरे हुए हैं. जम्मू-कश्मीर के लोग तो परेशान तब से हैं जब तीन साल पहले 8 जुलाई, 2019 को हिज्बुल मुजाहिद्दीन कमांडर बुरहानी वानी सुरक्षा बलों के साथ मुठभेड़ में मारा गया. पुलवामा हमला और बालाकोट एयर सट्राइक के बाद भी कश्मीर की तकरीबन यही हालत रही, हां - अचानक एडवाइजरी जारी होने के चलते अफरातफरी ऐसी मची कि बाहर से आये सैलानियों के लिए भी मुसीबत खड़ी हो गयी.

फिलहाल हालत तो ये है कि हर किसी को लगता है कि कुछ होने वाला है, लेकिन क्या? सरकारी अमले के अलावा कोई नहीं जानता है. सभी अपने अपने तरीके से सिर्फ आकलन कर रहे हैं. आकलन करने वालों में सूबे के पूर्व मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला और महबूबा मुफ्ती भी हैं. ये दोनों ही इस सिलसिले में राज्यपाल से मुलाकात भी कर चुके हैं - और उमर अब्दुल्ला कह रहे हैं कि उनकी पार्टी संसद में सफाई मांगेगी.

पाकिस्तान पर फोकस क्यों है?

पाकिस्तान लगातार दखल नहीं देता तो जम्मू कश्मीर में भी समस्या नक्सल प्रभावित इलाकों से ज्यादा नहीं होती. ये पाकिस्तान ही है जिसके बल पर कश्मीर के अलगाववादी नेता उछलते रहते हैं. मुख्यधारा की राजनीति करने वाली महबूबा मुफ्ती भी तो पाकिस्तान और इमरान खान की कायल रही हैं. ऐसे में जबकि अमेरिकी राष्ट्रपति डोनॉल्ड ट्रंप कश्मीर पर मध्यस्थता की बात बार बार कर रहे हैं, चीन भी नजर टिकाये हुए और पाकिस्तान कुलभूषण जाधव केस में कांसुलर एक्सेस को लेकर खेल खेल रहा है - भारत के लिए सख्त तेवर दिखाना भी बेहद जरूरी हो चला है.

मोदी सरकार के लिए जम्मू-कश्मीर में विधानसभा चुनाव कराना पहली प्राथमिकता है, लेकिन किसी और कीमत पर तो कतई नहीं होगी न होनी भी चाहिये. अमरनाथ यात्रा के रास्ते में बिछायी गयी बारूदी सुरंगों के पीछे पाकिस्तान के हाथ होने के सबूत मिल जाने के बाद सरकार की गंभीरता आसानी से समझी जा सकती है, ऐसे में कश्मीर की जमीन से ही पाकिस्तान को सख्त संदेश...

जम्मू-कश्मीर में फिलहाल जो कुछ हो रहा है, उससे आम लोगों का परेशान होना तो स्वाभाविक है - लेकिन क्षेत्रीय नेता कुछ ज्यादा ही डरे हुए हैं. जम्मू-कश्मीर के लोग तो परेशान तब से हैं जब तीन साल पहले 8 जुलाई, 2019 को हिज्बुल मुजाहिद्दीन कमांडर बुरहानी वानी सुरक्षा बलों के साथ मुठभेड़ में मारा गया. पुलवामा हमला और बालाकोट एयर सट्राइक के बाद भी कश्मीर की तकरीबन यही हालत रही, हां - अचानक एडवाइजरी जारी होने के चलते अफरातफरी ऐसी मची कि बाहर से आये सैलानियों के लिए भी मुसीबत खड़ी हो गयी.

फिलहाल हालत तो ये है कि हर किसी को लगता है कि कुछ होने वाला है, लेकिन क्या? सरकारी अमले के अलावा कोई नहीं जानता है. सभी अपने अपने तरीके से सिर्फ आकलन कर रहे हैं. आकलन करने वालों में सूबे के पूर्व मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला और महबूबा मुफ्ती भी हैं. ये दोनों ही इस सिलसिले में राज्यपाल से मुलाकात भी कर चुके हैं - और उमर अब्दुल्ला कह रहे हैं कि उनकी पार्टी संसद में सफाई मांगेगी.

पाकिस्तान पर फोकस क्यों है?

पाकिस्तान लगातार दखल नहीं देता तो जम्मू कश्मीर में भी समस्या नक्सल प्रभावित इलाकों से ज्यादा नहीं होती. ये पाकिस्तान ही है जिसके बल पर कश्मीर के अलगाववादी नेता उछलते रहते हैं. मुख्यधारा की राजनीति करने वाली महबूबा मुफ्ती भी तो पाकिस्तान और इमरान खान की कायल रही हैं. ऐसे में जबकि अमेरिकी राष्ट्रपति डोनॉल्ड ट्रंप कश्मीर पर मध्यस्थता की बात बार बार कर रहे हैं, चीन भी नजर टिकाये हुए और पाकिस्तान कुलभूषण जाधव केस में कांसुलर एक्सेस को लेकर खेल खेल रहा है - भारत के लिए सख्त तेवर दिखाना भी बेहद जरूरी हो चला है.

मोदी सरकार के लिए जम्मू-कश्मीर में विधानसभा चुनाव कराना पहली प्राथमिकता है, लेकिन किसी और कीमत पर तो कतई नहीं होगी न होनी भी चाहिये. अमरनाथ यात्रा के रास्ते में बिछायी गयी बारूदी सुरंगों के पीछे पाकिस्तान के हाथ होने के सबूत मिल जाने के बाद सरकार की गंभीरता आसानी से समझी जा सकती है, ऐसे में कश्मीर की जमीन से ही पाकिस्तान को सख्त संदेश जरूरी हो चला है - ताजा गतिविधियां कुछ ऐसे ही इशारे कर रही हैं. मामला सिर्फ इतना ही होता तो बहुत गंभीर होने की जरूरत भी शायद ही पड़ती - अगर जैश सरगना के भाई इब्राहिम अजहर को मुजफ्फराबाद में घूमते देखे जाने की खुफिया जानकारी नहीं मिली होती. इब्राहिम अजहर जैश सरगना मसूत अजहर का भाई है और मालूम हुआ है कि वो घाटी में आत्मघाती हमलों की फिराक में था.

अमरनाथ यात्रा के रास्ते में मिली माइंस और हथियार इस बात के सबूत हैं. अमरनाथ यात्रा के रास्ते में पाकिस्तान ऑर्डिनेंस फैक्ट्री में बनी माइंस, IED और अमेरिकन स्नाइपर राइफल की बरामदगी के बाद तो पाकिस्तान को फिर से घेरना जरूरी हो ही जाता है.

खुद अमेरिका के झुठलाने के बावजूद राष्ट्रपति डोनॉल्ड ट्रंप का कश्मीर पर मध्यस्थता की बात दोहराना और चीन की दिलचस्पी भारत के लिए चैलेंज भी तो है. वैसे भी बैंकॉक में विदेश मंत्री एस. जयशंकर ने अमेरिकी स्टेट सेक्रेट्री माइक पॉम्पियो को साफ तो कर ही दिया है कि फिलहाल तो बातचीत जैसी कोई बात नहीं है, लेकिन अगर कभी ऐसा हुआ भी तो वो सिर्फ पाकिस्तान से होगी. अमेरिका और चीन तो दूर ही रहें और अपने काम से काम रखें.

कुलभूषण जाधव पर ICJ के फैसले के बावजूत पाकिस्तान की पैंतरेबाजी थम नहीं रही है. भारत चाहता है कांसुलर एक्सेस, विएना संधि और ICJ के फैसले के मुताबिक हो - पाकिस्तान स्थानीय कानून के हिसाब से चाहता है. पाकिस्तान का प्रस्ताव रहा कि भारतीय राजनयिक और कुलभूषण जाधव से मुलाकात में पाकिस्तानी अफसर भी मौजूद रहेगा और वीडियो रिकॉर्डिंग भी होगी. भारत ने सीधे सीधे ये ऑफर ठुकरा दिया है. अगर पाकिस्तानी अधिकारी मौजूद होगा और वीडियो रिकॉर्डिंग होगी तो जाधव वही बोलने को मजबूर होंगे जो सिखाया पढ़ाया गया होगा. ऐसी कोई मुलाकात भी वैसे ही ढाक के तीन पात साबित होगी जैसे जाधव के परिवारवालों से पाकिस्तान ने मुलाकात करायी थी. फिर कांसुलर एक्सेस का मतलब ही क्या रह जाता है?

सरहद पार से दहशतगर्दी को बढ़ावा देने के सबूत तो फिर से मिले ही हैं, कुलभूषण यादव केस में मुंहकी खाने के बाद पाकिस्तान फिर कोई कारस्तानी न दिखाये इसलिए पक्की मोर्चेबंदी तो वक्त की जरूरत है और सरकार की कोशिश भी यही लगती है.

अब तो आर या पार, जान ले सरहद पार

ये जरूर है कि लोगों में कंफ्यूजन बढ़ रहा है. कंफ्यूजन बढ़ने से अगर लोगों की राय केंद्र के खिलाफ जाती है तो कश्मीरियों का विश्वास जीतना मुश्किल होगा. सेना की संयुक्त प्रेस कांफ्रेंस में कश्मीरी मां-बाप से की गयी अपील का भी कोई मतलब नहीं रह जाएगा. नौकरशाही से राजनीति में पूरी तरह शिफ्ट हो चुके शाह फैसल ने एक बार कहा था कि आतंकवाद को सामाजिक संरक्षण मिलने लगा है. वाकई ये ज्यादा खतरनाक है. अगर इससे मुकाबला करना है तो लोगों को अफरातफरी की जिंदगी से बचाने की कोशिश भी होनी चाहिये.

ऐसे में सबसे बड़ी मुश्किल ये होती है कि क्षेत्रीय नेता अपनी राजनीतिक जमीन बचाने के लिए अपने हिसाब से तौर तरीके अख्तियार कर लेते हैं - जम्मू और कश्मीर के गवर्नर सत्यपाल मलिक से बारी बारी मुलाकात कर उमर अब्दुल्ला और महबूबा मुफ्ती मोदी सरकार को अफरातफरी फैलाने के लिए जिम्मेदार बता रहे हैं और लोगों के कंफ्यूजन को बढ़ाने की भी कोशिश कर रहे हैं.

इसी बीच श्रीनगर के एक फीचर लेखक ने अपने ट्वीट में ब्रेकिंग दावा किया है - ऐसा लगता है जैसे पाकिस्तान के खिलाफ एक और सर्जिकल स्ट्राइक हुई हो.

अभी तक इस ट्वीट की न तो मीडिया में कहीं कोई चर्चा दिखी है और न ही आधिकारिक तौर पर कोई ऐसा बयान ही आया है. जब तक सरकार की तरफ से ऐसा कोई बयान नहीं दिया जाता तब तक कुछ कहना या समझना मुश्किल है. फीचर लेखक ने अपने ट्विटर प्रोफाइल में खुद को मीडिया के लिए फ्रीलांस फीचर लेखक बताया है, जो एकबारगी बातों को अफवाहों के हिस्से से दूर रखता है. वैसे भी मसूद अजहर के भाई की मुजफ्फराबाद में मौजूदगी और अमरनाथ यात्रा के रास्ते से हथियारों का जखीरा मिलना - ये सब ऐसी कड़ियां हैं जो आपस में जुड़ तो रही हैं. फिर भी किसी नतीजे पर पहुंचने से पहले आधिकारिक बयान का इंतजार ही बेहतर होगा.

आम लोगों से ज्यादा परेशान तो कश्मीरी नेता हैं

जम्मू-कश्मीर के पूर्व मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला ने गवर्नर सत्यपाल मलिक से मुलाकात कर घाटी के मौजूदा हालात पर अपनी फिक्र शेयर किया है. उमर अब्दुल्ला ट्विटर पर भी इसे लेकर लगातार सवाल उठा रहे हैं. नेशनल कांफ्रेंस नेता का कहना है कि अब उनकी पार्टी लोक सभा में भी इस मसले को उठाएगी - स्थिति पर सरकार से सफाई चाहेगी.

उमर अब्दुल्ला से पहले पीडीपी नेता और पूर्व मुख्यमंत्री महबूबा मुफ्ती ने भी राज्य के गवर्नर से मुलाकात की और मौजूदा हालात पर चर्चा की. ये मुलाकात भी देर रात हुई जिसके बाद महबूबा मुफ्ती ने मीडिया से भी बात की और अपनी चिंता जाहिर की. महबूबा मुफ्ती ने राज्यपाल से पहले नेशनल कांफ्रेंस नेता फारूक अब्दुल्ला से भी मुलाकात की थी. राज्यपाल से मिलने वो घाटी के कुछ नेताओं के साथ पहुंची थीं.

सवाल ये है कि आखिर कश्मीरी नेता इतने परेशान क्यों हैं? ऐसा लगता है जैसे कश्मीरी नेताओं की नींद आम अवाम के मुकाबले ज्यादा हराम हो रही है.

दरअसल, ये सभी नेता धारा 35 ए और 370 पर बीजेपी के चुनावी वादे से ज्यादा परेशान लगते हैं. बीजेपी ने चुनावों में वादा किया था कि सत्ता में वापसी होने पर वो इन्हें खत्म कर देगी. एक और वजह घाटी में परिसीमन को लेकर भी है. जिस तरह की चर्चा है अगर राज्य में परिसीमन हुआ तो बीजेपी फायदे में रह सकती है, ऐसे कयास लगाये जा रहे हैं.

दरअसल, 35A को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी गयी है और अदालत ने सरकार से पक्ष जानना चाहा था. तब मोदी सरकार ने इसे संवेदनशील मामला बताते हुए कोई खास दिलचस्पी नहीं दिखायी थी. माना जा रहा है कि इस मामले की सुनवाई कुछ दिन में हो सकती है.

कश्मीरी नेता मानकर चल रहे हैं कि सरकार सीधे सीधे राजनीतिक फैसले नहीं लेगी, लेकिन ऐसा कानूनी रास्ते का वो फायदा जरूर उठाना चाहेगी. अगर सुप्रीम कोर्ट में मोदी सरकार की ओर से कह दिया जाये कि इसे हटाये जाने में उसे कोई आपत्ति नहीं है तो ये खत्म भी हो सकता है.

एक बात और अब तक जम्मू-कश्मीर के लाल चौक पर तिरंगा फहराना ही बड़ी उपलब्धि मानी जाती रही है, बीजेपी नेता इस बार पूरे सूबे में 15 अगस्त को तिरंगा फहराने की तैयारी कर रहे हैं - जिसका मकसद चौतरफा संदेश देना है.

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इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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