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क्या ज्योतिरादित्य कांग्रेस के अजीत पवार बन सकते थे? पायलट की सुनो कांग्रेसियों!

    • शरत कुमार
    • Updated: 12 मार्च, 2020 05:49 PM
  • 12 मार्च, 2020 05:43 PM
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ज्योतिरादित्य (Jyotiraditya Scindia) के कांग्रेस (Congress) छोड़ने के बाद राजस्थान (Rajasthan) के उप मुख्यमंत्री सचिन पायलट (Sachin Pilot) तक ने ट्वीट करते हुए कहा कि इस मामले को बातचीत से सुलझाया जा सकता था. सवाल ये उठता है कि क्या केवल अहंकार के चलते कांग्रेस के शीर्ष नेताओं ने ज्योतिरादित्य की कोई परवाह नहीं की.

बूढ़ा होने और बुजुर्ग होने में फर्क है. बुजुर्गियत में अनुभव का समंदर होता है. अहंकार और शिथिलता आपको बूढ़ा बना देते है. अजीत पवार (Ajit Pawar) जब महाराष्ट्र (Maharashtra) के उप मुख्यमंत्री की शपथ ले चुके थे तब भला कौन सोच सकता था कि शरद पवार की बुजुर्गियत प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी (Narendra Modi) और अमित शाह (Amit Shah) की मांद से अजीत पवार को खींच कर अपने पास ले आएगी. उपमुख्यमंत्री की शपथ लेने के बावजूद पूरी राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी (NCP) अजित पवार के खिलाफ कुछ नहीं बोली बल्कि अजीत पवार की घर वापसी में लगी रही और आख़िर में उन्हें अपने पास लेकर आई. क्या कांग्रेस में भी ज्योतिरादित्य सिंधिया (Jyotiraditya Scindia ) के साथ ऐसा किया जा सकता था? क्या ज्योतिरादित्य सिंधिया जब गृह मंत्री अमित शाह के साथ प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से मिलने गए तब क्या सब कुछ खत्म हो गया था? आखिर कांग्रेस (Congress) ने सब कुछ खत्म क्यों मान लिया? अभी हाल ही की महाराष्ट्र की घटना से काश कांग्रेस ने कोई सीख ली होती और कांग्रेस आलाकमान इस मुसीबत का मुकाबला शरद पवार (Sharad Pawar) की तरह अपने अनुभव को हथियार बनाकर बहादुरी से करती. कांग्रेस के दूसरे युवा नेता और राजस्थान के उप मुख्यमंत्री सचिन पायलट (Sachin Pilot) ने ट्वीट कर कहा कि इसे बेहतर ढंग से आपसी बातचीत से निपटाया जा सकता था. हो सकता है कि कुछ लोगों को ऐसा लगे कि सचिन पायलट चाह रहे हैं कि राजस्थान (Rajasthan) में मिल बैठकर अशोक गहलोत (Ashok Gehlot) के साथ उनके झगड़े को कांग्रेस आलाकमान निपटा दें, इसलिए ऐसी बातें कर रहे हैं. लेकिन यकीन मानिए जमीन पर जितने भी कांग्रेसी मिल रहे हैं सब यही बात कह रहे हैं कि ज्योतिराज सिंधिया को मनाया जा सकता था.

ज्योतिरादित्य के पार्टी छोड़ने पर सचिन पायलट ने भी ये कहा था कि एक...

बूढ़ा होने और बुजुर्ग होने में फर्क है. बुजुर्गियत में अनुभव का समंदर होता है. अहंकार और शिथिलता आपको बूढ़ा बना देते है. अजीत पवार (Ajit Pawar) जब महाराष्ट्र (Maharashtra) के उप मुख्यमंत्री की शपथ ले चुके थे तब भला कौन सोच सकता था कि शरद पवार की बुजुर्गियत प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी (Narendra Modi) और अमित शाह (Amit Shah) की मांद से अजीत पवार को खींच कर अपने पास ले आएगी. उपमुख्यमंत्री की शपथ लेने के बावजूद पूरी राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी (NCP) अजित पवार के खिलाफ कुछ नहीं बोली बल्कि अजीत पवार की घर वापसी में लगी रही और आख़िर में उन्हें अपने पास लेकर आई. क्या कांग्रेस में भी ज्योतिरादित्य सिंधिया (Jyotiraditya Scindia ) के साथ ऐसा किया जा सकता था? क्या ज्योतिरादित्य सिंधिया जब गृह मंत्री अमित शाह के साथ प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से मिलने गए तब क्या सब कुछ खत्म हो गया था? आखिर कांग्रेस (Congress) ने सब कुछ खत्म क्यों मान लिया? अभी हाल ही की महाराष्ट्र की घटना से काश कांग्रेस ने कोई सीख ली होती और कांग्रेस आलाकमान इस मुसीबत का मुकाबला शरद पवार (Sharad Pawar) की तरह अपने अनुभव को हथियार बनाकर बहादुरी से करती. कांग्रेस के दूसरे युवा नेता और राजस्थान के उप मुख्यमंत्री सचिन पायलट (Sachin Pilot) ने ट्वीट कर कहा कि इसे बेहतर ढंग से आपसी बातचीत से निपटाया जा सकता था. हो सकता है कि कुछ लोगों को ऐसा लगे कि सचिन पायलट चाह रहे हैं कि राजस्थान (Rajasthan) में मिल बैठकर अशोक गहलोत (Ashok Gehlot) के साथ उनके झगड़े को कांग्रेस आलाकमान निपटा दें, इसलिए ऐसी बातें कर रहे हैं. लेकिन यकीन मानिए जमीन पर जितने भी कांग्रेसी मिल रहे हैं सब यही बात कह रहे हैं कि ज्योतिराज सिंधिया को मनाया जा सकता था.

ज्योतिरादित्य के पार्टी छोड़ने पर सचिन पायलट ने भी ये कहा था कि एक बार उनसे बात की जानी चाहिए थी

हो सकता है कि वह इस तरह की बातें इसलिए कह रहे हैं कि उन्हें लग रहा है कि हमारी पार्टी से बीजेपी एक बड़े नेता को लेकर चली गई और एक राज्य की सरकार भी जा रही है. बाहरी लोगों को भले ही ऐसा लग रहा हो कि सब कुछ अचानक हुआ है मगर मध्यप्रदेश में कांग्रेस के नेताओं को यह पता था कि पार्टी के अंदर सब कुछ ठीक-ठाक नहीं चल रहा है. पर कांग्रेस आलाकमान ने इसे ठीक करने की कोशिश नहीं की. राजनीति में कभी देरी नहीं होती है.

कांग्रेस आखिरी तक इस बात को नहीं समझ पाई. नहीं समझ पाई या नहीं समझना चाहती थी. इसकी वजह यह है कि कांग्रेस एक बूढ़ी पार्टी हो गई है जिसके नेताओं में अहंकार है और काम करने की प्रक्रिया में भारी शिथिलता है. किसी भी व्यक्ति या संगठन में उम्र के साथ यह व्याधियां आ जाती हैं मगर इन व्याधियों को दूर करने की कला को ही तो बुजुर्गियत कहते हैं. पर कांग्रेस में ऐसा होता नहीं दिख रहा है.

जैसे ही यह खबर आई कि ज्योतिरादित्य सिंधिया ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से मुलाकात की है कांग्रेस के सभी वरिष्ठ नेता सिंधिया के खिलाफ आग उगलने लगे. राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत तो सिंधिया के खिलाफ ऐसे भड़क उठे जैसे सिंधिया ना होकर वे सचिन पायलट हों. कांग्रेस की अंतरिम अध्यक्ष सोनिया गांधी के करीबी अशोक गहलोत का यह कहना कि पार्टी से उन्हें पहले ही निकाल दिया जाना चाहिए था, यह दिखाता है कि कांग्रेस के वरिष्ठ नेता उम्र के साथ कितने अहंकारी हो गए हैं.

ज्योतिरादित्य सिंधिया के इस्तीफे के बाद कांग्रेस के संगठन महासचिव वेणुगोपाल का उनके निष्कासन का ऐलान करना दिखाता है कि कांग्रेस संगठन मे इतनी जड़ता आ गई है कि अगर उसे कोई झिंझोड़े नहीं तो वे करवट भी नहीं लेते. वेणु गोपाल, सिंधिया को निकालने से पहले क्या इंतजार कर रहे थे कि सिंधिया का मन बदलेगा और वह कांग्रेस पार्टी के आलाकमान के पास आकर कहेंगे गलती हो गई मैं वापस आना चाहता हूं.

रूठो को मनाने की परंपरा पार्टी में नहीं परिवार में भी होती है. और फिर बकौल कांग्रेस के पूर्व राष्ट्रीय अध्यक्ष राहुल गांधी ज्योतिरादित्य सिंधिया उनके घर के सदस्य थे. फिर भी गांधी परिवार या उनका कोई दूत सिंधिया से बातचीत करने नहीं गया. बुढ़ापे की एक और खास बात है कि लोग अतीत की यादों में जीना शुरु कर देते हैं. कांग्रेस संगठन के बुढ़ापे की ही यह निशानी है कि राहुल गांधी यादों के झरोखों से खुद के साथ कमलनाथ और ज्योतिरादित्य की तस्वीर तब निकाल कर लाए जब सब कुछ लुट चुका था.

कई बार जब व्यक्ति थक चुका होता है तो यादों के सहारे उसे जीने की कोशिश करता है और कांग्रेस के पूर्व राष्ट्रीय अध्यक्ष राहुल गांधी के ट्वीट में इसकी झलक दिखाई दे रही थी. अब सवाल उठता है कि सिंधिया ने यह कदम क्यों उठाया. इस पर बहुत कुछ लिखा गया है और बहुत कुछ अब तक बोला भी जा चुका है. कांग्रेस की तरफ से तो एलान कर दिया गया कि जितने के वो हकदार थे उससे ज्यादा दिया गया. जो बंधु लेनदेन का लेखा-जोखा रख रहे हैं उन्हें समझना चाहिए कि इंसान महज व्यापारी नहीं होता है.

केवल यह मान लेना कि सिंधिया महज फायदे के लिए ही बीजेपी में गए हैं एक तरह से नाइंसाफी होगी. निश्चित रूप से वह अपने फायदे के लिए गए हैं मगर इसके पीछे केवल यही एक वजह नहीं है. शिवराज सरकार के दौरान मंदसौर में पुलिस फायरिंग हुई थी तब मुझे मध्य प्रदेश की किसान सभा को कवर करने का मौका मिला था. मंदसौर की रैली में मैंने देखा कि राहुल गांधी की तरफ से सिंधिया रैली में सर्वेसर्वा थे. रैली में बैठे दिग्विजय सिंह को तो बोलने तक नहीं दिया गया था और कमलनाथ आखिरी में धन्यवाद देने के लिए बोलने आए तो पूरे 10 मिनट यही बोलते रहे कि देखिए मैं अध्यक्ष बनने के बाद मेने आपके लिए बड़ी रैली की है.

यह रैली एक बानगी भर है कि चुनाव से पहले सिंधिया की हैसियत मध्य प्रदेश की राजनीति में क्या थी. प्रेमचंद ने लिखा है ,हालांकि संदर्भ उसका दूसरा है, लेकिन मैं उसको यहां उद्धृत करना चाहता हूं कि अमीरी की कब्र पर जन्मी हुई गरीबी बहुत जहरीली होती है. इसे मैं अगर स्वाभिमान के साथ जोड़ दूं तो कहा जा सकता है कि चुनाव से पहले अर्श पर रहे सिंधिया के लिए कांग्रेस की राजनीति में अचानक फर्श पर आ जाना उन्हें बर्दाश्त नहीं हो रहा था.

यहीं से परिवार की भूमिका शुरू होती है की घायल व्यक्ति के जख्मों पर मरहम लगाकर उसे फिर से मजबूत करें. मगर मध्यप्रदेश में ऐसा हो नहीं रहा था. कांग्रेस आलाकमान को राजस्थान के उप मुख्यमंत्री सचिन पायलट के ट्वीट की दूसरी लाइन को  गंभीरता को समझना चाहिए. जब चुनाव सामूहिक जिम्मेदारी के साथ लड़ा गया था. तो जीतने के बाद सत्ता भी सामूहिक जिम्मेदारी के साथ ही चलनी चाहिए थी.

खैर, ज्योतिरादित्य सिंधिया अब भगवा रंग मे रंग गए हैं. कांग्रेस को ज्योतिरादित्य सिंधिया ने एक मौका दिया है कि वह आत्म चिंतन करें कि लकीर पीटने का कोई मतलब नहीं है. कांग्रेस के लिए अब जरूरी हो गया है कि जली हुई रस्सी की ऐंठन को मसलकर खत्म कर उसे राख बना दिया जाए. क्या पता राख से कोई नई शुरुआत हो.

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इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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