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Justice Gogoi के CJI बनने से अगर लोकतंत्र बच गया था तो सांसद बनने से खतरे में कैसे?

    • आईचौक
    • Updated: 19 मार्च, 2020 11:39 AM
  • 18 मार्च, 2020 04:20 PM
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जस्टिस रंजन गोगोई (Justice Ranjan Gogoi) कोई पहले न्यायाधीश नहीं हैं जो राज्य सभा (Rajya Sabha) जा रहे हैं - और जिस वजह से लोकतंत्र बच गया (Threats to Democracy) हो उससे भला फिर से खतरा कैसे हो सकता है? जस्टिस गोगोई को देश की 'स्वतंत्र आवाज' बनने देना चाहिये.

जस्टिस रंजन गोगोई (Justice Ranjan Gogoi) को राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद ने राज्य सभा (Rajya Sabha) के लिए मनोनीत किया है - और इसे लेकर विवाद खड़ा हो गया है. वैसे जस्टिस गोगोई के लिए विवाद कोई नयी बात नहीं है - और यही वजह है कि नयी पारी में भी बिलकुल जरा भी परेशान नहीं लगते. विपक्षी दलों ही नहीं, बल्कि उनके साथ काम कर चुके सुप्रीम कोर्ट के जजों को भी पूर्व मुख्य न्यायाधीश जस्टिस गोगोई का राज्य सभा जाना रास नहीं आ रहा है. कुछ लोगों ने तो यहां तक सुझाव दे डाला है कि जस्टिस गोगोई को मोदी सरकार का ये ऑफर ठुकरा ही देना चाहिये, लेकिन वो कहां परवाह करने वाले. नयी मंजिल की तरफ आगे बढ़ने से पहले ही जस्टिस गोगोई ने अपने इरादे स्पष्ट कर दिये - 'भगवान संसद में मुझे स्वतंत्र आवाज की शक्ति दे. मेरे पास कहने को काफी कुछ है, लेकिन मुझे संसद में शपथ लेने दीजिए और तब मैं बोलूंगा.'

जनवरी, 2018 वाली जजों की ऐतिहासिक प्रेस कांफ्रेंस में लोकतंत्र को लेकर खतरे की आशंका जतायी गयी थी - और बाद में तो बस इस बात पर भी होती रही कि सबसे सीनियर होने के बावजूद अगर जस्टिस रंजन गोगोई को चीफ जस्टिस नहीं बनाया जाता तो मान लेना होगा कि सचमुच लोकतंत्र खतरे में है. बहरहाल, मोदी सरकार के जस्टिस गोगोई को समय आने पर चीफ जस्टिस बना दिये जाने के बाद मान लिया गया कि लोकतंत्र बच गया.

अब सवाल है कि जस्टिस गोगोई के CJI बनने से अगर लोकतंत्र बच गया (Threats to Democracy) था - तो वही मोदी सरकार अगर जस्टिस गोगोई को सांसद बना कर राज्य सभा भेजना चाहती है तो इसमें गलत क्या है?

आशंका जो गलत साबित हुई

जस्टिस रंजन गोगोई ने देश के मुख्य न्यायाधीश का कार्यभार तो 3 अक्टूबर, 2018 को ग्रहण किया था, लेकिन लोकतंत्र के खतरे में होने की आशंका जताने वाले सभी पक्षों को जवाब तो इसकी खबर आने के साथ ही मिल गया था. बाकायदा ऐलान होने के काफी पहले सुप्रीम कोर्ट की सीनियर एडवोकेट इंदिरा जयसिंह ने ये खबर ट्विटर पर ब्रेक की थी.

सुप्रीम कोर्ट को लेकर सबसे बड़ा विवाद तब हुआ जब...

जस्टिस रंजन गोगोई (Justice Ranjan Gogoi) को राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद ने राज्य सभा (Rajya Sabha) के लिए मनोनीत किया है - और इसे लेकर विवाद खड़ा हो गया है. वैसे जस्टिस गोगोई के लिए विवाद कोई नयी बात नहीं है - और यही वजह है कि नयी पारी में भी बिलकुल जरा भी परेशान नहीं लगते. विपक्षी दलों ही नहीं, बल्कि उनके साथ काम कर चुके सुप्रीम कोर्ट के जजों को भी पूर्व मुख्य न्यायाधीश जस्टिस गोगोई का राज्य सभा जाना रास नहीं आ रहा है. कुछ लोगों ने तो यहां तक सुझाव दे डाला है कि जस्टिस गोगोई को मोदी सरकार का ये ऑफर ठुकरा ही देना चाहिये, लेकिन वो कहां परवाह करने वाले. नयी मंजिल की तरफ आगे बढ़ने से पहले ही जस्टिस गोगोई ने अपने इरादे स्पष्ट कर दिये - 'भगवान संसद में मुझे स्वतंत्र आवाज की शक्ति दे. मेरे पास कहने को काफी कुछ है, लेकिन मुझे संसद में शपथ लेने दीजिए और तब मैं बोलूंगा.'

जनवरी, 2018 वाली जजों की ऐतिहासिक प्रेस कांफ्रेंस में लोकतंत्र को लेकर खतरे की आशंका जतायी गयी थी - और बाद में तो बस इस बात पर भी होती रही कि सबसे सीनियर होने के बावजूद अगर जस्टिस रंजन गोगोई को चीफ जस्टिस नहीं बनाया जाता तो मान लेना होगा कि सचमुच लोकतंत्र खतरे में है. बहरहाल, मोदी सरकार के जस्टिस गोगोई को समय आने पर चीफ जस्टिस बना दिये जाने के बाद मान लिया गया कि लोकतंत्र बच गया.

अब सवाल है कि जस्टिस गोगोई के CJI बनने से अगर लोकतंत्र बच गया (Threats to Democracy) था - तो वही मोदी सरकार अगर जस्टिस गोगोई को सांसद बना कर राज्य सभा भेजना चाहती है तो इसमें गलत क्या है?

आशंका जो गलत साबित हुई

जस्टिस रंजन गोगोई ने देश के मुख्य न्यायाधीश का कार्यभार तो 3 अक्टूबर, 2018 को ग्रहण किया था, लेकिन लोकतंत्र के खतरे में होने की आशंका जताने वाले सभी पक्षों को जवाब तो इसकी खबर आने के साथ ही मिल गया था. बाकायदा ऐलान होने के काफी पहले सुप्रीम कोर्ट की सीनियर एडवोकेट इंदिरा जयसिंह ने ये खबर ट्विटर पर ब्रेक की थी.

सुप्रीम कोर्ट को लेकर सबसे बड़ा विवाद तब हुआ जब जस्टिस दीपक मिश्रा देश के चीफ जस्टिस थे. 12 जनवरी, 2018 को पहली बार सुप्रीम कोर्ट में चीफ जस्टिस के बाद आने वाले चार सीनियर जजों ने प्रेस कॉन्फ्रेंस कर हलचल मचा दी थी. प्रेस कांफ्रेंस में शामिल तो जस्टिस रंजन गोगोई भी थे लेकिन अगुवाई जस्टिस जे चेलमेश्वर कर रहे थे. साथ में जस्टिस मदन बी लोकुर और जस्टिस कुरियन जोसेफ भी मौजूद थे. कुछ दिन बाद जस्टिस चेलमेश्वर रिटायर हो गये थे, लेकिन सवाल उनका पीछा नहीं छोड़ रहा था.

जस्टिस रंजन गोगोई के राज्य सभा जाने से दिक्कत क्यों है?

एक कार्यक्रम में जस्टिस चेलमेश्वर से पूछा गया - 'क्या आपको आशंका है कि जस्टिस गोगोई को अगले CJI के रूप में प्रमोट नहीं किया जाएगा?' जस्टिस चेलमेश्वर का जवाब था - 'उम्मीद है कि ऐसा नहीं होगा - और अगर ऐसा होता है तो ये साबित हो जाएगा कि 12 जनवरी की प्रेस कांफ्रेंस में हमने जो कहा था वो सही था.'

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की केंद्र सरकार ने जस्टिस रंजन गोगोई को देश में बनी इंसाफ की सबसे बड़ी कुर्सी पर बिठाकर जस्टिस चेलमेश्वर को बिलकुल भी निराश नहीं किया - और लगे हाथ ऐसे सवाल उठाने वाले हर किसी की बोलती बंद कर दी जो लगातार लोकतंत्र के खतरे में होने की बात कर रहे थे.

दिक्कत क्या है?

जस्टिस चेलमेश्वर ने उस वक्त एक और बात भी कही थी - 'मैं ऑन रिकॉर्ड ये बात कह रहा हूं कि 22 जून को अपनी सेवानिवृत्ति के बाद मैं सरकार से कोई नियुक्ति नहीं मांगूगा.' जस्टिस चेलमेश्वर अपनी बात पर कायम रहे और न्यायिक सेवा से अवकाश मिलने के बाद अपने गांव पहुंच कर खेती-बारी में व्यस्त हो गये. प्रेस कांफ्रेंस में चारों जजों ने एक स्वर में कहा था - 'हमने राष्ट्र के लिए अपने ऋण का निर्वहन किया है.'

जस्टिस चेलमेश्वर के साथ प्रेस कांफ्रेंस में मौजूद जस्टिस कुरियन जोसेफ उनसे आज भी सहमत हैं. अपने बयान में कहते हैं, 'मैं जस्टिस चेलमेश्वर, जस्टिस रंजन गोगोई और जस्टिस मदन बी लोकुर के साथ एक अभूतपूर्व कदम के साथ सार्वजनिक रूप से देश को ये बताने के लिए सामने आये कि खतरा है - और अब मुझे लगता है कि खतरा बड़े स्तर पर है. यही कारण था कि मैंने रिटायरमेंट के बाद कोई पद नहीं लेने का फैसला किया. '

अच्छी बात है. ऐसे फैसले का हर किसी को हक है. ये हक भी देश के संविधान से ही मिला हुआ है - लेकिन जस्टिस रंजन गोगोई को ऐसे हक से कैसे वंचित किया जा सकता है? जैसे साथी जजों की निजी राय है कि वो रिटायर होने के बाद कोई पद नहीं लेंगे, ठीक वैसे ही जस्टिस गोगोई को भी तो अपने बारे में फैसले का हक है. जस्टिस कुरियन जोसेफ अपने बयान में आगे कहते हैं, 'मेरे हिसाब से, भारत के एक पूर्व मुख्य न्यायाधीश द्वारा राज्यसभा के सदस्य के रूप में नामांकन की स्वीकृति ने निश्चित रूप से न्यायपालिका की स्वतंत्रता पर आम आदमी के विश्वास को हिला दिया है, जो भारत के संविधान की बुनियादी संरचनाओं में से एक भी है.'

रिटायर हो चुके सुप्रीम कोर्ट के जजों की राय से इत्तेफाक जताते हुए जस्टिस चेलमेश्वर ने ताजा विवाद पर निराशा जतायी है. इंडियन एक्सप्रेस ने एक रिपोर्ट में जस्टिस चेलमेश्वर की बातों की तुलना अमेरिका के दूसरे राष्ट्रपति जॉन एडम्स से की गयी है. जस्टिस चेलमेश्वर कहते हैं, 'ऐसा कोई लोकतंत्र नहीं जिसने खुदकुशी न की हो.' दरअसल, जॉन एडम्स का भी यही मानना रहा है कि राजशाही और ऐसे दूसरे सिस्टम के मुकाबले लोकतंत्र कम टिकाऊ होता है.

सारी बातें अपनी जगह सही हैं, लेकिन अगर जस्टिस गोगोई देश के लिए एक स्वतंत्र आवाज बनना चाहते हैं तो किसी को भी ऐतरात क्यों होना चाहिये?

आखिर जस्टिस गोगोई ने कहा भी तो यही है - 'भगवान संसद में मुझे स्वतंत्र आवाज की शक्ति दे.'

ऐसा पहली बार तो हो नहीं रहा है

मोहम्मद हिदायतुल्ला देश के छठे उप राष्ट्रपति रहे - 31 अगस्त, 1979 से 30 अगस्त, 1984 तक. और वही जस्टिस मोहम्मद हिदायतुल्ला देश के 11वें चीफ जस्टिस भी रहे - 25 फरवरी, 1968 से 16 दिसंबर, 1970 तक.

मोहम्मद हिदायतुल्ला कुछ दिनों तक देश के कार्यवाहक राष्ट्रपति के तौर पर भी काम कर चुके हैं. तीसरे राष्ट्रपति डॉक्टर जाकिर हुसैन के आकस्मिक निधन के बाद तत्कालीन उप राष्ट्रपति वीवी गिरी कार्यवाहक राष्ट्रपति बने लेकिन राष्ट्रपति चुनाव में हिस्सा लेने के लिए इस्तीफा देना पड़ा था - और उसी दौरान मोहम्मद हिदायतुल्ला ने राष्ट्रपति का कार्यभार संभाला था.

ये तो साफ है कि जस्टिस रंजन गोगोई को लेकर बिलकुल ही कोई नायाब फैसला नहीं लिया गया है. जस्टिस रंगनाथ मिश्रा भी राज्य सभा के सांसद रह चुके हैं. बड़ा फर्क ये है कि जस्टिस गोगोई को राष्ट्रपति ने मनोनीत किया है - और जस्टिस रंगनाथ मिश्रा को कांग्रेस पार्टी ने राज्य सभा भेजा था.

जस्टिस रंगनाथ मिश्रा का नाम लिये जाने पर कांग्रेस की ओर से उनके चीफ जस्टिस के पद से रिटायर होने के बाद के वक्त की दुहाई दी गयी है. कांग्रेस नेता अभिषेक मनु सिंघवी ने पार्टी का बचाव करते हुए कहा है कि दोनों मामलों में बड़ा फर्क है. सिंघवी कहते हैं, '...ये नहीं बताया गया कि जस्टिस रंगनाथ मिश्रा चीफ जस्टिस का पद छोड़ने के छह साल बाद राज्य सभा पहुंचे थे, लेकिन गोगोई के मामले में 6 महीने ही हुए हैं.'

सिंघवी ने एक पूर्व चीफ जस्टिस को राज्यपाल बनाये जाने की तरफ भी इशारा करते हुए बीजेपी सरकार को कठघरे में खड़ा करने की कोशिश की. सिंघवी जस्टिस पी. सतशिवम को राज्यपाल बनाये जाने की बात कर रहे थे. देश के 40वें मुख्य न्यायाधीश रहे जस्टिस पी. सतशिवम को 2014 में सत्ता में आने के बाद बीजेपी की सरकार में केरल का राज्यपाल बनाया गया था.

क्या जस्टिस गोगोई के मनोनयन की तुलना क्रिकेटर सचिन तेंदुलकर से की जा सकती है?

सीधे सीधे ऐसी तुलना का कोई मतलब तो नहीं बनता, लेकिन कम से कम एक बात ऐसी जरूर है जिसके प्रकाश में जस्टिस गोगोई के मनोनयन को समझा जा सकता है. सचिन तेंदुलकर को कांग्रेस की अगुवाई वाली मनमोहन सिंह सरकार के कार्यकाल में राज्य सभा में मनोनीत किया गया था. कांग्रेस को लगा था कि सचिन तेंदुलकर 2014 के चुनाव में पार्टी के लिए प्रचार करेंगे - लेकिन सुनने में आया कि सचिन तेंदुलकर ने ऐसा करने से साफ साफ मना कर दिया था.

अब अगर जस्टिस रंजन गोगोई उच्च सदन में जाकर एक स्वतंत्र आवाज बनना चाहते हैं तो क्या वास्तव में लोकतंत्र के लिए खतरा होगा - बात बात पर और हर मामले में न तो धैर्य खोना चाहिये और न ही लोकतंत्र की दुहाई देनी चाहिये.

इन्हें भी पढ़ें :

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इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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