हमारे घरों में एक बात बड़ी कॉमन होती है कि लड़कियां लड़कों से ज्यादा तेज और समझदार होती हैं. भाई-बहन में से बहन के नंबर हमेशा भाई से ज्यादा आते हैं. इसके लिए भाई को ताने नहीं दिए जाते कि वो बुद्धू है. बल्कि इस बात का ख्य़ाल रखा जाता है कि बेटे का मनोबल न टूटे. बड़ी बहन बचपन में भले ही भाई की बहती नाक पोंछती हो, उसकी खराब आदतों को टोकती हो, लेकिन जब बड़े फैसले लेने की बात आती है तो चेहरा वही अकसर पीछे रह गए भाई का ही होता है. समाज बहन की सुरक्षा की जिम्मेदारी भी तो भाई को ही सौंपता है. भले ही सुरक्षा की जरूरत भाई को ही क्यों न हो.
स्कूल के दिनों में भले ही भाई बहन से पीछे रहा हो लेकिन बड़े होने के बाद सारे बड़े फैसले भाई करता है. बुद्धिमत्ता जो परीक्षा के रिजल्ट में दिखाई देती थी, उसे उसकी गृहस्थी से आगे दिखाने का मुश्किल से मौका दिया जाता है. पितृसत्तात्मक समाज में उस समझदार बहन उसके भाई के लिए बड़ी चुनौती मानी जाती है. आखिर घर का भावी 'मुखिया' बौद्धिक रूप से कमजोर कैसे हो सकता है. उसे तो न सिर्फ नीतिगत फैसले लेने का भावी अधिकार है, बल्कि बहन की रक्षा करने का नैसर्गिक धर्म भी निभाना है. यह काम एक बहन कैसे कर सकती है? प्रियंका गांधी की आलोचना करने वाला एक बड़ा वर्ग इसी दुविधा में है, और राहुल गांधी को कोस रहा है.
घर की चार दीवारी में महिलाओं को कैद करके रखने वाले इस समाज ने देर से ही सही महिलाओं को सफल होते देखना तो शुरू कर दिया है. लेकिन अफसोस ये होता है कि वो महिलाओं को पुरुषों के मुकाबले ज्यादा सफल देखने से अब भी आंखें चुराता है. समाज क्यों ये बर्दाश्त नहीं कर पाता कि कोई बहन उसके भाई से ज्यादा कामयाब हो सकती है.
अब प्रियंका गांधी को ही ले लीजिए. प्रियंका गांधी राहुल गांधी से बड़ी हैं. हो सकता है बचपन में वो भी राहुल से ज्यादा होशियार रही हों. ये भी हो सकता है कि अपनी दादी से नैन-नक्श के अलावा उन्हें विरासत में उनके जैसा नेतृत्व कौशल भी मिला हो. लेकिन अफसोस कि प्रियंका गांधी को ये कौशल कभी दिखाने नहीं...
हमारे घरों में एक बात बड़ी कॉमन होती है कि लड़कियां लड़कों से ज्यादा तेज और समझदार होती हैं. भाई-बहन में से बहन के नंबर हमेशा भाई से ज्यादा आते हैं. इसके लिए भाई को ताने नहीं दिए जाते कि वो बुद्धू है. बल्कि इस बात का ख्य़ाल रखा जाता है कि बेटे का मनोबल न टूटे. बड़ी बहन बचपन में भले ही भाई की बहती नाक पोंछती हो, उसकी खराब आदतों को टोकती हो, लेकिन जब बड़े फैसले लेने की बात आती है तो चेहरा वही अकसर पीछे रह गए भाई का ही होता है. समाज बहन की सुरक्षा की जिम्मेदारी भी तो भाई को ही सौंपता है. भले ही सुरक्षा की जरूरत भाई को ही क्यों न हो.
स्कूल के दिनों में भले ही भाई बहन से पीछे रहा हो लेकिन बड़े होने के बाद सारे बड़े फैसले भाई करता है. बुद्धिमत्ता जो परीक्षा के रिजल्ट में दिखाई देती थी, उसे उसकी गृहस्थी से आगे दिखाने का मुश्किल से मौका दिया जाता है. पितृसत्तात्मक समाज में उस समझदार बहन उसके भाई के लिए बड़ी चुनौती मानी जाती है. आखिर घर का भावी 'मुखिया' बौद्धिक रूप से कमजोर कैसे हो सकता है. उसे तो न सिर्फ नीतिगत फैसले लेने का भावी अधिकार है, बल्कि बहन की रक्षा करने का नैसर्गिक धर्म भी निभाना है. यह काम एक बहन कैसे कर सकती है? प्रियंका गांधी की आलोचना करने वाला एक बड़ा वर्ग इसी दुविधा में है, और राहुल गांधी को कोस रहा है.
घर की चार दीवारी में महिलाओं को कैद करके रखने वाले इस समाज ने देर से ही सही महिलाओं को सफल होते देखना तो शुरू कर दिया है. लेकिन अफसोस ये होता है कि वो महिलाओं को पुरुषों के मुकाबले ज्यादा सफल देखने से अब भी आंखें चुराता है. समाज क्यों ये बर्दाश्त नहीं कर पाता कि कोई बहन उसके भाई से ज्यादा कामयाब हो सकती है.
अब प्रियंका गांधी को ही ले लीजिए. प्रियंका गांधी राहुल गांधी से बड़ी हैं. हो सकता है बचपन में वो भी राहुल से ज्यादा होशियार रही हों. ये भी हो सकता है कि अपनी दादी से नैन-नक्श के अलावा उन्हें विरासत में उनके जैसा नेतृत्व कौशल भी मिला हो. लेकिन अफसोस कि प्रियंका गांधी को ये कौशल कभी दिखाने नहीं दिया गया. क्योंकि नेतृत्व करने के लिए परिवार का बेटा राहुल जो था. अब बेटा कैसा भी हो- भले ही कम नंबर लाने वाला हो लेकिन गांधी परिवार की विरासत तो वही संभालेगा.
चेहरे पर इंदिरा गांधी की झलक लिए प्रियंका अपने व्यक्तित्व से लोगों को हमेशा ही प्रभावित करती आई हैं. वो कभी सक्रीय राजनीति में नहीं आईं लेकिन उन्होंने अपने भाई राहुल गांधी के फैसलों को ताकतवर बनाने में हमेशा अपनी भूमिका पर्दे के पीछे से निभाई. फिर चाहे हर चुनाव में अमेठी-रायबरेली का प्रचार हो, 3 राज्यों में मुख्यमंत्री चयन के फैसले हों, या पार्टी की बाकी नीतियां. कांग्रेस के भीतरी लोग प्रियंका की भूमिका के हमेशा साक्षी रहे हैं. अब उत्तर प्रदेश ही नहीं, देश की राजनीति में हाशिए पर चल रही कांग्रेस ने प्रियंका गांधी को औपचारिक रूप से राजनीति में उतारा है. उन्हें पूर्वी उत्तर प्रदेश का महासचिव नियुक्त किया गया है.
इसमें देखने वाले भले ही राजनीति ढूंढें लेकिन प्रियंका का देर से आना कहीं न कहीं पितृसत्तात्मक समाज की एक झलक भी दिखाता है. वो बात और है कि इसी परिवार की इंदिरा गांधी के दम-खम और राजनीतिक कौशल के आगे इस परिवार से निकले पुरुष कहीं नहीं टिकते थे. समाज महिला और पुरुष में पीढ़ी का फर्क तो बर्दाश्त कर लेता है, उसे मां-बेटे या बुआ भतीजे में कोई परेशानी नहीं, लेकिन समकक्ष रिश्तों में है. बहन अगर भाई के साथ एक मैदान पर उतरी है तो इसमें भाई की हार क्यों? क्या राखी बांधते वक्त रक्षा का वादा सिर्फ भाइयों के लिए होता है? क्या बहनें अपने भाई की रक्षा नहीं कर सकतीं?
राहुल मेहनत कर रहे हैं और उनकी मेहनत पिछले कुछ समय से दिख भी रही है. राजनीति में समय देकर उन्होंने परिपक्वता सीखी है लेकिन 2019 की राजनीति के महाकुंभ में अगर उन्हें अपने साथ एक मजबूत सहारे की जरूरत है तो प्रियंका गांधी से बेहतर और कौन हो सकता है. कांग्रेस को भी उस भय से मुक्त होना पड़ेगा, जहां इस बात के कयास लगाए गए कि प्रियंका यदि मैदान में आईं तो वे राहुल गांधी का करिश्मा खत्म कर देंगी. क्योंकि, राहुल और प्रियंका की ताकत अपनी जगह है. यदि प्रियंका ज्यादा ताकतवर और प्रभावी साबित हुईं, तो कांग्रेस और समाज दोनों को उन्हें राहुल से ऊपर वरीयता देने में ऐतराज नहीं होना चाहिए. बिना राहुल गांधी को कोसे.
पितृसत्ता क्योंकि ऐसे ही नहीं चली जाएगी.
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