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भारत-पाकिस्तान दोस्ती के नाम पर दरियादिली अब और नहीं !

    • स्नेहांशु शेखर
    • Updated: 29 सितम्बर, 2016 12:46 PM
  • 29 सितम्बर, 2016 12:46 PM
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पाकिस्तान ने न कभी शिमला समझौते का सम्मान किया न वाजपेयी की लाहौर बस यात्रा का और न ही मोदी की पाकिस्तान यात्रा का. फिर केवल हम ही क्यों दोस्ती के नाम पर दरियादिली दिखाते हैं?

ऊरी की घटना को अब कई दिन बीत चुके हैं. अब तो शहीदों की चिताओं की राख भी शांत हो चुकी हैं और कुछ हद तक जनभावनाएं भी. और प्रतिक्रियाओं को देखने से इस धारणा को ही बल मिलता है कि वाकई यह देश कितना सहिष्णु हैं. देश में असहिष्णुता को लेकर बेकार में चिल्ल-पों मचती है. लेकिन चूंकि प्रधानमंत्री ने कालिकट में जो कुछ कहा, जिस अंदाज में कहा, उससे थोड़ी उम्मीद है कि शायद कुछ कार्रवाई दिखे. कुछ कार्रवाई अब दिखने भी लगी है. फिलहाल मीडिया के एक तबके और एक बड़े जनमानस को जो युद्ध की उम्मीद थी, वैसा शर्तिया होता नहीं दिख रहा, लिहाजा इस वर्ग को थोड़ी निराशा ही होगी.

सार्क सम्मेलन लगभग रद्द हो चुका है. सिंधु जल विवाद को लेकर दोनों पक्ष बुधवार से ही अमेरिका में डटे हैं, ताकि विश्व बैंक के सामने दोनों अपना पक्ष रख सके. जाहिर है कि भारत सीधी लड़ाई की बजाय उससे कुछ बड़ा करना चाहता है. इसका संकेत कालिकट और संयुक्त राष्ट्र की सभा में सरकार ने देने की कोशिश भी की है. हालांकि, बहस इस बात पर भी जारी है कि ये फैसलें कितने असरदार होंगे और वाकई पाकिस्तान पर इसका कोई असर पड़ेगा?

भारत के सामने चुनौती यह है कि विश्व पटल पर पाकिस्तान को अलग-थलग करने के प्रयासों से पहले दुनिया और देश को यह बताना पड़ेगा कि पहले उसने पाकिस्तान के खिलाफ क्या किया? सरकार की इन कोशिशों का असर भी दिखने लगा है. पाकिस्तान की तरफ से परमाणु युद्ध का खतरा दिखाने की कोशिश हो रही है. जल संधि को रद्द करने की स्थिति में संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में जाने की धमकी दी जा रही है. भारत पर युद्ध थोपने का आरोप लग रहा है. यह भी संदेश देने की कोशिश की जा रही है कि सिंधु का पानी रोकने की स्थिति में चीन भी ब्रह्मपुत्र का पानी रोक सकता है. बेचैनी दिख रही है और यह भी सच है कि आने वाले दिनों में मामला और बढ़ेगा.

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ऊरी की घटना को अब कई दिन बीत चुके हैं. अब तो शहीदों की चिताओं की राख भी शांत हो चुकी हैं और कुछ हद तक जनभावनाएं भी. और प्रतिक्रियाओं को देखने से इस धारणा को ही बल मिलता है कि वाकई यह देश कितना सहिष्णु हैं. देश में असहिष्णुता को लेकर बेकार में चिल्ल-पों मचती है. लेकिन चूंकि प्रधानमंत्री ने कालिकट में जो कुछ कहा, जिस अंदाज में कहा, उससे थोड़ी उम्मीद है कि शायद कुछ कार्रवाई दिखे. कुछ कार्रवाई अब दिखने भी लगी है. फिलहाल मीडिया के एक तबके और एक बड़े जनमानस को जो युद्ध की उम्मीद थी, वैसा शर्तिया होता नहीं दिख रहा, लिहाजा इस वर्ग को थोड़ी निराशा ही होगी.

सार्क सम्मेलन लगभग रद्द हो चुका है. सिंधु जल विवाद को लेकर दोनों पक्ष बुधवार से ही अमेरिका में डटे हैं, ताकि विश्व बैंक के सामने दोनों अपना पक्ष रख सके. जाहिर है कि भारत सीधी लड़ाई की बजाय उससे कुछ बड़ा करना चाहता है. इसका संकेत कालिकट और संयुक्त राष्ट्र की सभा में सरकार ने देने की कोशिश भी की है. हालांकि, बहस इस बात पर भी जारी है कि ये फैसलें कितने असरदार होंगे और वाकई पाकिस्तान पर इसका कोई असर पड़ेगा?

भारत के सामने चुनौती यह है कि विश्व पटल पर पाकिस्तान को अलग-थलग करने के प्रयासों से पहले दुनिया और देश को यह बताना पड़ेगा कि पहले उसने पाकिस्तान के खिलाफ क्या किया? सरकार की इन कोशिशों का असर भी दिखने लगा है. पाकिस्तान की तरफ से परमाणु युद्ध का खतरा दिखाने की कोशिश हो रही है. जल संधि को रद्द करने की स्थिति में संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में जाने की धमकी दी जा रही है. भारत पर युद्ध थोपने का आरोप लग रहा है. यह भी संदेश देने की कोशिश की जा रही है कि सिंधु का पानी रोकने की स्थिति में चीन भी ब्रह्मपुत्र का पानी रोक सकता है. बेचैनी दिख रही है और यह भी सच है कि आने वाले दिनों में मामला और बढ़ेगा.

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दरअसल, जिन उपायों को लागू करने की बात हो रही है, जानकारों की मानें तो इसे काफी पहले ही लागू कर दिया जाना चाहिए था. क्योंकि ये दोनों मसले ऐसे हैं, जिसमें भारत ही एकतरफा प्यार दिखाये जा रहा था. सिंधु नदी जल समझौता, 9 सितंबर 1960 को अमल में आया. प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू और पाकिस्तान के राष्ट्रपति जनरल अयूब खान ने इस पर दस्तखत किए थे. इसके तहत भारत अपने इलाके से होते हुए जाने वाली सिंधु, झेलम और चिनाब नदियों का 80 फीसदी पानी पाकिस्तान को देता है.

 ...जब हुआ सिंधु जल समझौता

भारत को इन नदियों के सिर्फ 20 फीसदी पानी के इस्तेमाल की इजाज़त है. अब हर कोई हैरत जताता है कि दुनिया का कोई देश अपने नागरिकों को प्यासा रखकर पड़ोसी देश को ज्यादा पानी कैसे दे सकता है. आम तौर पर ऐसे समझौतों में 50-50 का बंटवारा होता है. लेकिन भारत के तब के प्रधानमंत्री नेहरू ने 80 फीसदी पानी पाकिस्तान को देने के समझौते पर खुद कराची जाकर दस्तखत कर दिया.

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जानकारों की मानें तो इस समझौते की वजह से पूरे जम्मू कश्मीर में पनबिजली परियोजनाएं लगाना मुश्किल है. जो परियोजनाएं अभी चल रही हैं उनमें भी पानी को रोककर डैम नहीं बनाया जा सका है. अगर इन नदियों के पानी का इस्तेमाल भारत भी कर सकता तो इससे पूरे जम्मू कश्मीर और आसपास के राज्यों की स्थिति कुछ और होती. अगर इन पर बिजलीघर बनते तो हजारों मेगावॉट बिजली पैदा की जा सकती थी, जिससे पूरे देश का फायदा होता.

मजे की बात यह है कि 2005 में इंटरनेशल वाटर मैनेजमेंट इंस्टीट्यूट और टाटा वाटर पॉलिसी प्रोग्राम भी इस समझौते को खत्म करने की डिमांड कर चुके हैं. इनकी रिपोर्ट के मुताबिक इस समझौते की वजह से जम्मू-कश्मीर को हर साल 60 हजार करोड़ रुपए से ज्यादा का नुकसान हो रहा है. इस समझौते के रद्द हो जाने के बाद जम्मू-कश्मीर की घाटी में 20000 मेगावाट से भी ज्यादा बिजली पैदा की जा सकती है. आज जम्मू-कश्मीर की मुख्यमंत्री महबूबा मुफ्ती भी कहती हैं कि यह सौदा या समझौता नुकसान का ही साबित हुआ है. जम्मू-कश्मीर का हक मारा गया, बिजली परियोजनाएं ठप पड़ी है, अगर शुरू हो, तो राज्य का बड़ा भला होगा.

दूसरी ओर, भारत के बगलियार और किशनगंगा पावर प्रोजेक्ट्स का इंटरनेशनल लेवल पर पाकिस्तान विरोध करता है. ये प्रोजेक्ट्स बन जाने के बाद उसे मिलने वाले पानी में कमी आ जाएगी और वहां परेशानी बढ़ जाएगी. हैरत की बात है कि पाकिस्तान के विरोध को देखते हुए बगलियार प्रोजेक्ट को रोक भी दिया है और इस गुडविल के नाते लिया गया फैसला करार दिया गया.

 बगलियार प्रोजेक्ट, जिसे रोक दिया गया...(फोटो क्रेडिट- ICIMOD)

बगलियार कोई इकलौता प्रोजेक्ट नहीं है, जो इस 'दोस्ती' की भेंट चढ़ा. 1000 मेगावाट पकलदुल पॉवर प्रोजेक्ट, 1020 मेगावाट का बरसर पॉवर प्रोजेक्ट और 1,200 मेगावॉट का स्वालकोट प्रोजेक्ट भी अलग-अलग कारणों से अधर में लटके हुए हैं, लेकिन मूल में इन तीनों पॉवर प्रोजेक्ट के पीछे पाकिस्तान का विरोध ही है. सरकारी अनुमान के मुताबिक इस जल समझौते के कारण जम्मू-कश्मीर को करीब 6,500 करोड़ का सालाना नुकसान हो रहा है.

मतलब कि पाकिस्तान ने विरोध किया और हम दोस्ती खातिर उन्हें स्वीकार भी कर लिया. आज देश के अंदर हालात ये हैं कि सुप्रीम कोर्ट बार-बार कर्नाटक से तमिलनाडु को कावेरी का पानी देने को कह रहा है, पर राज्य मानने को तैयार नहीं है. कोर्ट जब थक गया तो अंत में केंद्र को कह दिया और अब आप दोनों राज्य की मीटिंग बुलाकर उन्हें समझाए, क्योंकि कोर्ट के फैसले के विरोध में कर्नाटक की सड़कों पर जो कुछ भी घटा, उसे देश ने देखा. सिंधु जल समझौता पाकिस्तान के कितने हित में है या जरूरी है, इसका अहसास इस बात से किया जा सकता है कि आज पाकिस्तान के कुल जीडीपी में कृषि का योगदान करीब 20 फीसदी है और 90 फीसदी कृषि, सिंचाई के लिए सिंधु, झेलम और चिनाब के पानी पर निर्भर है.

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जाहिर है कि अगर समझौता तोड़े बिना सरकार जिन उपायों पर विचार कर रही है, उसका पाकिस्तान पर दूरगामी असर पड़ने वाला है. अब पाकिस्तान कह रहा है कि भारत एकतरफा तरीके से समझौते से बाहर नहीं जा सकता. यह अंर्तराष्ट्रीय समझौते की भावना के खिलाफ है. इसे संयुक्त राष्ट्र में चुनौती दी जाएगी. सरताज अजीज साहब तो यहां तक कह गए कि भारत ने सिंधु का पानी रोका तो कल चीन ब्रह्मपुत्र का पानी रोक सकता है. अजीज साहब को वादे-समझौते, अंर्तराष्ट्रीय कानून सब याद हैं, लेकिन सरताज अजीज साहब यह नहीं बताते की क्या पाकिस्तान 1972 के शिमला समझौते को मानता है? कभी उस समझौते का सम्मान किया? किस भरोसे का सम्मान किया, किस दोस्ती के प्रयास को इज्जत बख्शी?

लाहौर बस यात्रा के बाद कारगिल, मोदी की लाहौर यात्रा के बाद पठानकोट, पुंछ, ऊरी जैसी घटनाओं को देश ने देखा. ये तो ताजा घटनाएं है, इतिहास ऐसी अनगिनत घटनाओं से भरा पड़ा है.

अब पाकिस्तान को व्यापार में फेवरेट नेशन का दर्जा का मामला भी कुछ ऐसा ही है. 1996 में भारत ने एकतरफा प्यार दिखाया और पाकिस्तान को मोस्ट फेवरेट नेशन का दर्जा दे दिया. तब से यह घोषणा एकतरफा ही है. वाजपेयी सरकार के दौरान पाकिस्तान दक्षिण एशिया 'फ्री ट्रेड एरिया' के प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया गया, लेकिन तब से पाकिस्तान इसे लागू करने में ना-नूकुर ही करता आया है. 2012 में मनमोहन सिंह सरकार के दौरान पाकिस्तान ने एक बार फिर भारत को मोस्ट फेवरेट नेशन का दर्जा देने को लेकर सहमति जताई, पर फिर मुकर गया.

यही कारण है कि भारत ने दक्षिण एशिया में व्यापार के लिए 'साफ्टा' को खड़ा किया, जिसमें पाकिस्तान को छोड़कर अन्य सारे देश सदस्य हैं. भारत-पाकिस्तान में व्यापार का दायरा बड़ा नहीं है, लेकिन कोई भी फैसले का असर व्यापक हो सकता है. मसला सिर्फ यही है कि जब हर तरफ अविश्वास और धोखे का माहौल है, ऐसे में दोस्ती के नाम पर ऐसी दरियादली कब तक और किस कीमत पर. देश इसका जवाब जरूर जानना चाहेगा.

यह भी पढ़ें- सिंधु जल समझौता तोड़ने पर खतरा चीन से है!

इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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