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सियासत

अयोध्या की आग पर सरयू के पानी का असर

    • विकास कुमार
    • Updated: 28 सितम्बर, 2019 04:21 PM
  • 28 सितम्बर, 2019 04:21 PM
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अयोध्या मामले पर सुप्रीम कोर्ट से जब फैसला आएगा, तब आएगा, लेकिन 1990 के दशक में जो मंदिर-मस्जिद के लिए मरने-मारने की बात करते थे, आज उनका स्टैंड क्या है, ये जान लीजिए.

राम मंदिर पिछले 3 दशकों से जनमानस का सबसे बड़ा मुद्दा बना हुआ है. यह मुद्दा अक्सर सियासत के रुख को मोड़ देता है. 1992 में जब बाबरी मस्जिद को गिराया गया था, तब से अब तक सरयू में ना सिर्फ बहुत पानी बह चुका है, बल्कि उस पानी ने बहुत कुछ धो भी दिया है. इस मामले में किसी के बोल बदल गए हैं तो किसी की सियासत. कोई इससे पिंड छुड़ाने में लगा हुआ है, तो कोई इसे लटकाए और भटकाए रखना चाहता है. कोई नरम है, तो कोई गरम होने का दिखावा कर रहा है. लेकिन सच्चाई यह है कि 1990 के दशक में राम मंदिर आंदोलन को लेकर पूरे देश में आग की जो तपिश महसूस होती थी, वो अब महज धुआं सा दिखाई दे रही है. कैसे, ये समझिए.

राजीव गांधी ने दिया ज्वालामुखी को जन्म

1990 के पहले 'मिस्‍टर क्‍लीन' की छवि रखने वाले तत्‍कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी बोफोर्स घोटाले की आंच में झुलस रहे थे. उनका आभामंडल तार-तार हो रहा था. शाह बानो मामले में उनके फैसले ने उन्हें मुस्लिम तुष्टीकरण का खलनायक बना दिया था. उन्हें अपनी सत्ता खिसकती हुई नजर आ रही थी. इससे बचने के लिए राजीव गांधी ने अक्‍टूबर, 1989 में फैज़ाबाद से अपने चुनावी अभियान की शुरुआत की. जहां उन्‍होंने अपने भाषण में 'रामराज्‍य' का जिक्र किया और इस मामले को नया मोड़ दे दिया. राजीव गांधी द्वारा जिक्र किए गए इस शब्द ने भारतीय राजनीति में कई दरवाज़े खोल दिए. उन्‍हें इस बात का तनिक भी अंदाजा नहीं था कि उनका ये दांव भारतीय सियासत में कांग्रेस की विरासत को तबाह कर सकता है.

इस मुद्दे ने बीजेपी को संजीवनी दे दी. पार्टी ये समझ चुकी थी कि यही वो हथियार है, जिससे कांग्रेस की जड़ों को काटकर सत्ता की सिंहासन पर पहुंचा जा सकता है. और इसी के साथ शुरू हो गया राम मंदिर आंदोलन, जिसने देश के राजनीतिक रंग को ही नहीं, बल्कि सांस्‍कृतिक और सामाजिक ताने-बाने को भी बदल कर रख दिया. इसी की बदौलत 1984 में 2 सीटों वाली पार्टी 1989 में 85 सीटों वाला दल बन गई.

राम मंदिर पिछले 3 दशकों से जनमानस का सबसे बड़ा मुद्दा बना हुआ है. यह मुद्दा अक्सर सियासत के रुख को मोड़ देता है. 1992 में जब बाबरी मस्जिद को गिराया गया था, तब से अब तक सरयू में ना सिर्फ बहुत पानी बह चुका है, बल्कि उस पानी ने बहुत कुछ धो भी दिया है. इस मामले में किसी के बोल बदल गए हैं तो किसी की सियासत. कोई इससे पिंड छुड़ाने में लगा हुआ है, तो कोई इसे लटकाए और भटकाए रखना चाहता है. कोई नरम है, तो कोई गरम होने का दिखावा कर रहा है. लेकिन सच्चाई यह है कि 1990 के दशक में राम मंदिर आंदोलन को लेकर पूरे देश में आग की जो तपिश महसूस होती थी, वो अब महज धुआं सा दिखाई दे रही है. कैसे, ये समझिए.

राजीव गांधी ने दिया ज्वालामुखी को जन्म

1990 के पहले 'मिस्‍टर क्‍लीन' की छवि रखने वाले तत्‍कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी बोफोर्स घोटाले की आंच में झुलस रहे थे. उनका आभामंडल तार-तार हो रहा था. शाह बानो मामले में उनके फैसले ने उन्हें मुस्लिम तुष्टीकरण का खलनायक बना दिया था. उन्हें अपनी सत्ता खिसकती हुई नजर आ रही थी. इससे बचने के लिए राजीव गांधी ने अक्‍टूबर, 1989 में फैज़ाबाद से अपने चुनावी अभियान की शुरुआत की. जहां उन्‍होंने अपने भाषण में 'रामराज्‍य' का जिक्र किया और इस मामले को नया मोड़ दे दिया. राजीव गांधी द्वारा जिक्र किए गए इस शब्द ने भारतीय राजनीति में कई दरवाज़े खोल दिए. उन्‍हें इस बात का तनिक भी अंदाजा नहीं था कि उनका ये दांव भारतीय सियासत में कांग्रेस की विरासत को तबाह कर सकता है.

इस मुद्दे ने बीजेपी को संजीवनी दे दी. पार्टी ये समझ चुकी थी कि यही वो हथियार है, जिससे कांग्रेस की जड़ों को काटकर सत्ता की सिंहासन पर पहुंचा जा सकता है. और इसी के साथ शुरू हो गया राम मंदिर आंदोलन, जिसने देश के राजनीतिक रंग को ही नहीं, बल्कि सांस्‍कृतिक और सामाजिक ताने-बाने को भी बदल कर रख दिया. इसी की बदौलत 1984 में 2 सीटों वाली पार्टी 1989 में 85 सीटों वाला दल बन गई.

राम मंदिर पिछले 3 दशकों से जनमानस का सबसे बड़ा मुद्दा बना हुआ है.

समय के अनुसार बदलती गई बीजेपी

1992 में विश्व हिंदू परिषद, शिव सेना और भारतीय जनता पार्टी के कार्यकर्ताओं ने 6 दिसंबर को बाबरी मस्जिद को गिरा दिया. इसके बाद देश भर में हिंदू और मुसलमानों के बीच सांप्रदायिक दंगे भड़क उठे. इन दंगों में 2000 से ज्यादा लोग मारे गए. इस घटना ने कांग्रेस की चूलें हिला दीं. वहीं बीजेपी सियासत के केंद्र में आ गई. 'राम लला हम आएंगे, मंदिर वहीं बनाएंगे', 'अयोध्या तो बस झांकी है, काशी मथुरा अभी बाकी है' जैसे नारों के साथ बीजेपी की कट्टर सियासत आगे बढ़ती रही. एक समय ऐसा आया, जब इसी बुनियाद की बदौलत बीजेपी 1998 और 1999 में लगातार दो बार केंद्र की सत्ता तक पहुंच गई. लेकिन सत्ता में आते ही कुर्सी की मजबूरियों ने बीजेपी को अपनी विचारधारा में नरमी लाने को मजबूर कर दिया.

फरवरी 2002 में बीजेपी ने उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव के लिए अपने घोषणापत्र में राम मंदिर निर्माण के मुद्दे को शामिल करने से इनकार कर दिया. फिर क्या था, बीजेपी का सहयोगी संघठन विश्व हिंदू परिषद आग-बबूला हो गया. उसने 15 मार्च से राम मंदिर निर्माण कार्य शुरू करने की घोषणा कर दी. सैकड़ों हिंदू कार्यकर्ता अयोध्या में जुटे, लेकिन वहां उनकी मंशा पूरी नहीं हो सकी. फिर अयोध्या से लौट रहे हिंदू कार्यकर्ता जिस रेलगाड़ी में यात्रा कर रहे थे, उसे गुजरात के गोधरा में आग के हवाले कर दिया गया. कुछ मुस्लिम लोगों के इस हमले में 58 कारसेवक मारे गए. इस घटना के बाद गुजरात में क्रोध और गुस्से की एक ऐसी ज्वाला भड़की, जिसने हजार से ज्यादा जिंदगियों को नष्ट कर दिया. सैकड़ों परिवारों को तबाह कर दिया.

इसके बाद 2004 में बीजेपी को केंद्र की सत्ता से भी बेदखल होना पड़ा. केंद्र में कांग्रेस के नेतृत्व में PA की सरकार बनी. इसके बाद देश में वैचारिक बदलाव की एक ऐसी हवा बही कि राम मंदिर बनाने के लिए कसमें खाने की बात तो दूर, राम का नाम लेना भी सांप्रदायिक हो गया. हालांकि, RSS और VHP बीच-बीच में छोटे-मोटे आंदोलन के जरिए मुद्दे को जीवित रखने के लिए संघर्ष करती रही, लेकिन बीजेपी के लिए ये महज चुनावी मुद्दा बनकर रह गया. जो बीजेपी का सबसे बड़ा वादा था, वो घोषणापत्र के आखिरी पेज में एक लाइन में जाकर सिमट गया. वो लाइन थी 'बीजेपी संवैधानिक दायरे में राम मंदिर बनाने के लिए हर संभव कोशिश करेगी'. इस तरह जो नेता राम मंदिर को संविधान का नहीं, बल्कि आस्था का मामला बताकर कानूनी कार्यवाही का विरोध करते थे, वो संवैधानिक हल की बात करने को मजबूर हो गए.

यहां तक कि मामले की गंभीरता और जटिलता ने बाल ठाकरे जैसे कट्टर हिंदू नेता को एक कदम पीछे हटकर सोचने पर मजबूर कर दिया था. उन्हें विवादित स्थल पर स्वतंत्रता सेनानी मंगल पांडे का स्मारक बनाने की पैरवी करनी पड़ी थी. ये वही बाल ठाकरे थे, जिन्होंने बाबरी विध्वंस में खुले तौर पर शिवसैनिकों की भूमिका स्वीकार की थी, जबकि उस वक्त यूपी के मुख्यमंत्री कल्याण सिंह समेत बीजेपी के नेता बाबरी विध्वंस में अपनी पार्टी के सदस्यों की भूमिका को नकार रहे थे.

राम मंदिर आंदोलन के नेतृत्वकर्ता लालकृष्ण आडवाणी जैसे नेता बातचीत के द्वारा विवाद का हल निकालने की वकालत करने लगे. ये वही लालकृष्ण आडवाणी हैं, जिन पर बाबरी मस्जिद विध्वंस के समय अयोध्या में कार सेवकों का नेतृत्व करने का आरोप है.

मुस्लिम पक्ष में बदलाव

दूसरी तरफ मुस्लिम पक्ष, जो ये मानता था कि 'बाबरी मस्जिद एक मस्जिद है और कयामत तक मस्जिद ही रहेगी', वो भी कोर्ट के फैसले को सहर्ष स्वीकार करने की बात कर रहा है. मुस्लिम पक्ष के लिए ये लड़ाई आस्था के लिए कम, इज्जत के लिए ज्यादा बन गई है. उसे लगता है कि अगर वो ये लड़ाई हार गया तो देश के मुसलमानों का मनोबल टूट जाएगा और वो हिंदुओं से हीनता के स्वीकार्य हो जाएंगे. इतना ही नहीं मुस्लिम पक्ष में ये डर है कि अगर राम मंदिर बनाने में हिंदू पक्ष सफल हो जाता है तो फिर बात काशी-मथुरा पर भी आ सकती है. मुस्लिम पक्ष अपने इसी भय और इज्जत के लिए एक प्रतीकात्मक लड़ाई लड़ रहा है. अगर उसे ये भरोसा हो गया कि उसका ये भय बेजा है, ऐसा कुछ होने वाला नहीं है, तो वो इस लड़ाई में समझौते के टेबल पर आने को तैयार दिखाई देता है. यही वजह है कि सुन्नी वक्फ बोर्ड ने सुप्रीम कोर्ट को एक चिट्ठी लिखकर अभी भी मध्यस्थता से मामले के हल की उम्मीद जाहिर की है, जिसे सुप्रीम कोर्ट ने स्वीकार भी किया.

मुस्लिम पक्ष का एक धड़ा इस विवाद को बातचीत के जरिए शांतिपूर्ण तरीके से समाधान की वकालत करता है. साथ भी इलाहाबाद हाईकोर्ट के फैसले को देखते हुए उसे कहीं न कहीं सुप्रीम कोर्ट से भी फैसला खिलाफ में आने का खतरा महसूस होता है, जो शायद उनके लिए असहज स्थिति पैदा कर सकता है. बाबरी मस्जिद के पक्षकार इकबाल अंसारी और हाजी महबूब कैमरों के सामने कह चुके हैं कि अगर राम मंदिर निर्माण को लेकर मोदी सरकार अध्यादेश भी लाती है, तो उन्हें कोई ऐतराज नहीं होगा. 20 नवंबर 2018 को उन्होंने कहा था कि अगर कानून बनाने से देश का भला हो रहा है, अमन चैन है, तो कानून बनाएं.

इधर शिया वक्फ बोर्ड ने तो वजाप्ते सुप्रीम कोर्ट में हलफनामा दाखिल कर राम मंदिर की जमीन हिंदू पक्ष को सौंप देने की वकालत की है. 2019 के लोकसभा चुनाव से पहले अयोध्या में मुस्लिम समुदाय के बहुत सारे लोगों ने भी राम मंदिर के समर्थन में प्रदर्शन किए.

कांग्रेस का टर्न

तत्कालीन प्रधानमंत्री पीवी नरसिंह राव ने 6 दिसंबर 1992 के बाद पूरे देश को भरोसा दिलाया था कि बाबरी मस्जिद का निर्माण उसी जगह पर करवाया जाएगा. हालांकि, लिब्रहान आयोग के सामने कांग्रेस ने इस बयान से पल्ला झाड़ लिया. पार्टी का कहना था कि जब मामला अदालत में चल रहा हो तो मस्जिद निर्माण की बात कैसे कही जा सकती है. अब तो कांग्रेस नेता इस मसले पर कोई बयान देने से भी इनकार कर देते हैं.

समाजवादी बोल भी बदल गए

कुछ साल पहले तक समाजवादी पार्टी यदा-कदा अयोध्या में ढहाई गई बाबरी मस्जिद को फिर से बनाए जाने की मांग करती रही थी, लेकिन अब उसके भी सुर बदल गए हैं. वो भी कोर्ट के फैसले का इंतजार करने की बात कहती है.

बेचारे बन गए वामपंथी

वामपंथी पार्टियां मुस्लिमों का खुलकर समर्थन करती थीं और हिंदू पक्ष के विरोध में बातें करती थीं, लेकिन अब देश में उसका राजनीतिक वजूद ही खतरे में है. खासकर 2014 के बाद दक्षिणपंथी मतों के सामने वामपंथ की हवा निकल चुकी है. लेफ्ट पार्टियां अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रही हैं. ऐसे में उसे भी पता है कि अब वो हिंदू विचारधारा के खिलाफ खुलकर बैटिंग नही कर सकती. इसलिए वामपंथियों ने भी संविधान की आड़ ले ली है.

इस बीच दोनों पक्षों में जो सबसे बड़ा बदलाव देखा गया वह ये है कि वो साल भर इसे अपनी आस्था की लड़ाई बताते रहे. हालांकि, सुप्रीम कोर्ट ने आस्था का मामला खारिज कर इसे महज जमीन के मालिकाना हक का मामला करार दिया. जिसे दोनों पक्षों ने स्वीकार कर लिया. यानी अब आस्था की ये लड़ाई जमीन की लड़ाई भर रह गई है. और कुल मिलाकर देखें तो समय के मुताबिक ये बदलाव अच्छा है. जो देश में शांति और सहिष्णुता की उम्मीद कायम करता है.

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इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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