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विपक्षी नेताओं में जेपी बनने की होड़ मची है, लेकिन मोरारजी भाई कौन है?

    • मृगांक शेखर
    • Updated: 11 सितम्बर, 2022 03:06 PM
  • 11 सितम्बर, 2022 03:06 PM
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नीतीश कुमार (Nitish Kumar) जैसे नेता खुद को विपक्षी दलों के संयोजक के तौर पर पेश कर रहे हैं - अरविंद केजरीवाल (Arvind Kejriwal) ऐसे अकेले नेता हैं जो डंके की चोट पर 2024 में नरेंद्र मोदी (Narendra Modi) के चैलेंजर के तौर पर खुद को प्रोजेक्ट कर रहे हैं.

विपक्षी खेमे के नेताओं के मन का कन्फ्यूजन खत्म होने का नाम ही नहीं लेता. वैसे पहले के मुकाबले काफी सुधार हुआ है, ऐसा नजर भी आने लगा है - लेकिन अभी तक ये समझ नहीं आ सका है कि विपक्ष के एकजुट होने की सूरत में कौन होस्ट होगा और कौन चेहरा?

आखिर किस नेता पर भरोसा करके लोग वोट देने के बारे में सोचेंगे - और किस नेता का चेहरा देख कर? लोगों को भरोसे के एक ऐसे नेता की जरूरत है, जिसके मन में देश की समृद्धि के अलावा और कोई लालसा न हो. या कहें कि कोई लालसा न बची हो. ऐसे नेता की जरूरत इसलिए है क्योंकि चुनाव नतीजे पक्ष में आ जाने के बाद अगर नेता आपस में लड़ने लगें तो उनको चुप कराते हुए वो नेता एक फरमान जारी कर सके जो सबको मान्य हो.

और एक ऐसे नेता की भी दरकार है जिसके पास देश की थाती को बनाये और बचाये रखते हुए आगे ले जाने का सही और सटीक विजन हो. वो कम से कम इतना तो काबिल हो ही कि जनता के साथ साथ भविष्य की सरकार में उसके साथियों को भी पूरा यकीन हो.

ऐसा उदाहरण अब से पहले इमरजेंसी के बाद बनी सरकार में ही देखने को मिलता है. जेपी के नाम से मशहूर समाजवादी नेता जयप्रकाश नारायण की खासियत ये रही कि सरकार बनवाने के पहले से ही वो प्रधानमंत्री पद के दावेदार नहीं थे - और मोरारजी देसाई भी प्रधानमंत्री बनने से पहले आंदोलन में अलग से कोई चेहरा नहीं थे. हां, तब के सबसे सीनियर नेताओं में से एक महत्वपूर्ण नेता जरूर थे.

अभी जो सीन नजर आ रहा है, काफी घालमेल है. ऐसे कई नेता हैं जो पहले से ही मोरारजी भाई देसाई वाली प्रधानमंत्री की कुर्सी पर दावा पेश कर चुके हैं. कुछ ने तो खुल कर बोल दिया है, कुछ हैं जो घात लगाकर बैठे हुए हैं.

और सिर्फ मोरारजी भाई वाली भूमिका में कौन कहे, अभी तो आलम ये है कि पहले से ही कई नेता खुद को जेपी के तौर पर पेश करने लगे हैं. ऐसा लगता है जैसे विपक्षी खेमे के नेताओं पहले मोरारजी भाई बनने की होड़ लगी रहती थी, अब जेपी जैसा बनने की रेस लग चुकी है.

मुश्किल ये है कि मार्केट में घूम रहे कुछ नेता तो मोरारजी भाई...

विपक्षी खेमे के नेताओं के मन का कन्फ्यूजन खत्म होने का नाम ही नहीं लेता. वैसे पहले के मुकाबले काफी सुधार हुआ है, ऐसा नजर भी आने लगा है - लेकिन अभी तक ये समझ नहीं आ सका है कि विपक्ष के एकजुट होने की सूरत में कौन होस्ट होगा और कौन चेहरा?

आखिर किस नेता पर भरोसा करके लोग वोट देने के बारे में सोचेंगे - और किस नेता का चेहरा देख कर? लोगों को भरोसे के एक ऐसे नेता की जरूरत है, जिसके मन में देश की समृद्धि के अलावा और कोई लालसा न हो. या कहें कि कोई लालसा न बची हो. ऐसे नेता की जरूरत इसलिए है क्योंकि चुनाव नतीजे पक्ष में आ जाने के बाद अगर नेता आपस में लड़ने लगें तो उनको चुप कराते हुए वो नेता एक फरमान जारी कर सके जो सबको मान्य हो.

और एक ऐसे नेता की भी दरकार है जिसके पास देश की थाती को बनाये और बचाये रखते हुए आगे ले जाने का सही और सटीक विजन हो. वो कम से कम इतना तो काबिल हो ही कि जनता के साथ साथ भविष्य की सरकार में उसके साथियों को भी पूरा यकीन हो.

ऐसा उदाहरण अब से पहले इमरजेंसी के बाद बनी सरकार में ही देखने को मिलता है. जेपी के नाम से मशहूर समाजवादी नेता जयप्रकाश नारायण की खासियत ये रही कि सरकार बनवाने के पहले से ही वो प्रधानमंत्री पद के दावेदार नहीं थे - और मोरारजी देसाई भी प्रधानमंत्री बनने से पहले आंदोलन में अलग से कोई चेहरा नहीं थे. हां, तब के सबसे सीनियर नेताओं में से एक महत्वपूर्ण नेता जरूर थे.

अभी जो सीन नजर आ रहा है, काफी घालमेल है. ऐसे कई नेता हैं जो पहले से ही मोरारजी भाई देसाई वाली प्रधानमंत्री की कुर्सी पर दावा पेश कर चुके हैं. कुछ ने तो खुल कर बोल दिया है, कुछ हैं जो घात लगाकर बैठे हुए हैं.

और सिर्फ मोरारजी भाई वाली भूमिका में कौन कहे, अभी तो आलम ये है कि पहले से ही कई नेता खुद को जेपी के तौर पर पेश करने लगे हैं. ऐसा लगता है जैसे विपक्षी खेमे के नेताओं पहले मोरारजी भाई बनने की होड़ लगी रहती थी, अब जेपी जैसा बनने की रेस लग चुकी है.

मुश्किल ये है कि मार्केट में घूम रहे कुछ नेता तो मोरारजी भाई वाले रोल के लिए रजिस्ट्रेशन करा रखे हैं और कुछ ऐसे भी हैं जो जेपी वाले खांचे में ही खुद को फिट करने की कोशिश में जुटे हुए हैं - कन्फ्यूजन ये है कि जो जेपी होने का दावा करता है, उसके भी चेहरे से लगता है कि अंदर से वो मोरारजी भाई वाल रोल चाह रहा है.

ऐसे में सवाल तो ये भी बनता है कि क्या प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी (Narendra Modi) में भी पूरा विपक्ष पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी वाली छवि देखने लगा है? आरोप प्रत्यारोपों के बीच घुस कर देखें तो कांग्रेस सहित पूरा विपक्ष मोदी सरकार पर भी वैसे ही इल्जाम लगाने लगा है, जैसा पहले जनता पार्टी और बाद के दिनों में फ्रंट पर पहुंच चुकी बीजेपी लगाती रही है.

फर्क बस ये है कि पहले का विपक्ष जो इल्जाम इंदिरा गांधी पर देश में इमरजेंसी लागू करने के बाद लगाता रहा है, कांग्रेस सहित मौजूदा विपक्ष नरेंद्र मोदी पर वैसी आशंका के चलते लगा रहा है. कांग्रेस और बाकी विपक्षी दलों का कहना है कि प्रधानमंत्री मोदी और उनके सबसे बड़े सहयोगी अमित शाह मिल कर देश की संवैधानिक संस्थाओं को बर्बाद कर रहे हैं.

मौजूदा विपक्ष मोदी सरकार पर अघोषित इमरजेंसी लागू कर देने जैसा आरोप लगा चुका है. एक बार तो बीजेपी के मार्गदर्शक नेता लालकृष्ण आडवाणी भी देश में फिर से इमरजेंसी लागू किये जाने की आशंका जता चुके हैं - विपक्ष के नेताओं को तो आडवाणी के बयान से आगे बढ़ कर चलने का जैसे बहाना ही मिल गया.

वक्त वक्त की बात होती है. इंदिरा गांधी का भी अपना दौर रहा, ये नरेंद्र मोदी का समय है - आज की तारीख में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी देश के सबसे लोकप्रिय नेता हैं. अब आये सारे ही सर्वे में उनके निकटत प्रतीत होने वाले प्रतिद्वन्द्वी भी आस पास न होकर काफी दूर नजर आते हैं - और ये हाल विपक्षी खेमे में ही नहीं बीजेपी के अंदर की भी बात है. 2024 में खुद को प्रधानमंत्री पद का खुल कर दावेदार बताने वाले अरविंद केजरीवाल (Arvind Kejriwal) का हाल भी बाकियों की ही तरह है.

फिलहाल तो सत्ता की राजनीति करने वाला हर नेता 2024 में होने जा रहे आम चुनाव की तैयारी कर रहा है. विपक्षी खेमे में अभी तो सबसे तेज चाल नीतीश कुमार (Nitish Kumar) ही भर रहे हैं. जिस नारे के साथ प्रधानमंत्री मोदी जनता के बीच जाकर सत्ता की राजनीति करते हैं, नीतीश कुमार 'सबका साथ सबका विकास' वाले अंदाज में ही बीजेपी के बेदखल कर सत्ता हासिल करने की राजनीति करते नजर आ रहे हैं - तभी तो ये सवाल भी खड़ा हो गया है कि क्या नीतीश कुमार वास्तव में जेपी बनने की कोशिश कर रहे हैं?

कितने जेपी हैं मैदान में?

तीसरे मोर्चे की तो हर चुनाव से पहले बरसों से कोशिश होती चली आ रही है - लेकिन अब ये कवायद अपग्रेड हो गयी है, तभी तो पहला मोर्चा बनाने की कोशिश बतायी जा रही है. ऐसी थ्योरी तो प्रशांत किशोर की तरफ से ही आयी थी, लेकिन अब ऐसी ही बात नीतीश कुमार भी कहने लगे हैं. दोनों की अपनी लड़ाई, दिखावा ही सही, जहां की तहां तो है ही.

नीतीश कुमार और ममता बनर्जी का डबल रोल ही प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के लिए राहत की बात है

2014 से पहले भी जब बीजेपी एक बार सत्ता का स्वाद चख लेने के बाद प्रयासरत रही, गुजरने जमाने के बुजुर्ग नेता चुनावों से पहले दो-तीन बार अड्डेबाजी तो कर ही लेते रहे. 2014 के बाद मुलायम सिंह को भी काफी एक्टिव देखा गया. 2015 में नीतीश कुमार को महागठबंधन का नेता मीडिया के सामने मुलायम सिंह ने ही किया था, लेकिन उसके बाद मैदान छोड़ कर ऐसा भागे कि लौटने पर नीतीश कुमार को हराने की अपील करने लगे थे - और बाद के दिनों में पूरे विपक्ष के संसद का बहिष्कार करने की सूरत में भी पूरे परिवार के साथ सदन में ही बैठे रहते थे.

2019 के आम चुनाव से पहले भी विपक्ष के कई नेताओं को खासा एक्टिव देखा गया. एनसीपी नेता शरद पवार, पूर्व प्रधानमंत्री एचडी देवगौड़ा, टीडीपी नेता एन. चंद्रबाबू नायडू और तेलंगाना के मुख्यमंत्री के. चंद्रशेखर राव को भी काफी सक्रिय देखा गया था. तब तो बीजेपी के वैसे नेता जिन्हें मार्गदर्शक मंडल से भी बाहर रख दिया गया, वे भी काफी सक्रिय दिखे थे - अरुण शौरी, यशवंत सिन्हा विपक्षी मोर्चा खड़ा करने की कोशिश में जुटे नेताओं को बीजेपी को हराने का फॉर्मूला ही तो सुझा रहे थे.

जब से 2024 नजदीक महसूस होने लगा है, पहले वाले कुछ नेता तो घर ही बैठ गये हैं, जबकि कुछ नेताओं को बदले हुए रोल में भी देखने को मिला है - ममता बनर्जी भी ऐसी ही नेताओं की जमात में शामिल नजर आती हैं.

और लगता है बीते एक साल के दौरान ममता बनर्जी के साथ विपक्षी खेमे के नेताओं के व्यवहार को देखते हुए नीतीश कुमार ने शुरू से ही जेपी जैसी अपनी भूमिका प्रोजेक्ट करने की कोशिश की है. ये भी संयोग ही है कि नीतीश कुमार भी उसी बिहार से आते हैं जहां के रहने वाले जेपी ने ऐतिहासिक आंदोलन चलाया था.

जुगाड़ के नेता और जनाधार वाले नेता का जो फर्क होता है, नीतीश कुमार के साथ भी वैसा ही हो रहा है. नीतीश कुमार की पूरी राजनीति तो जुगाड़ पर ही चलती आयी है, वो जेपी की तरह जनाधार वाले नेता तो कभी रहे नहीं. लेकिन जुगाड़ के मामले में नीतीश कुमार माहिर खिलाड़ी हैं.

भले ही रामविलास पासवान को लालू यादव राजनीतिक मौसम वैज्ञानिक बताया करते थे, लेकिन नीतीश कुमार को तो ऐसी महारत हासिल है कि वो बेमौसम भी अपना जुगाड़ अपने हिसाब से फिट कर लेते हैं. सभी के साथ समान भाव से बीच की लकीर को भी एक तरफ पकड़ कर चल लेते हैं.

अगर एनडीए में रहते हैं तो भी पूरे मन से बीजेपी के साथ खड़े नजर आते हैं, अगर महागठबंधन में चले जाते हैं तो उसी शिद्दत के साथ आरजेडी के हो जाते हैं - अपना राजनीतिक हित दूसरे की ताकत के बूते कैसे और कब साध सकते हैं, ये भी नीतीश कुमार अच्छी तरह जानते हैं. 2015 में चुनाव जीतने के लिए अगर लालू यादव का इस्तेमाल किया तो 2020 में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर ही सारा दारोमदार डाल दिया - और मतलब निकलते ही जैसे पांच साल पहले लालू को छोड़ दिये थे, इस बार मोदी-शाह को बाय बोल दिये.

नीतीश के मैदान आते ही ममता बनर्जी भी अपने को जेपी वाली ही भूमिका में पेश करने लगी हैं. घुमा फिरा कर केसीआर भी उसी राह के मुसाफिर नजर आ रहे हैं - और शरद पवार तो बहुत पहले से अपना एक ही रास्ता अख्तियार करते चलते चले आ रहे हैं.

देखा जाये तो अभी से कई जेपी जैसे कई किरदार 2024 के रोल के लिए बार बार ऑडीशन दे रहे हैं - और अभी तो सबसे आगे नीतीश कुमार का चेहरा ही दिखायी पड़ता है. विपक्षी नेताओं से मुलाकातें तो नीतीश कुमार की भी जेपी जैसी ही हो रही हैं, लेकिन बड़ा फर्क ये है कि जेपी के जमाने में नेता खुद चल कर उन तक मिलने पहुंचते थे, नीतीश कुमार को घर घर जाकर घंटी बजानी पड़ रही है.

देखा जाये तो नीतीश कुमार आज की तारीख में बीजेपी और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को घेरने के मामले में सबसे काबिल नजर आते हैं. जिस तरीके से बिहार में नीतीश कुमार ने ताना बाना बुना था और असदुद्दीन ओवैसी के विधायकों को आरजेडी में शामिल करा कर पहले से ही सबसे बड़ी पार्टी बना दिया था, ऐसा तो वही कर सकता है जो बहुत दूर की सोच कर अपनी चाल चलता हो. शरद पवार ने भी बीजेपी और शिवसेना का गठबंधन तोड़ कर नया गठबंधन खड़ा कर सरकार तो बनवा ही दी थी, लेकिन उद्धव ठाकरे के साथ ही खेल हो गया तो वो कर भी क्या सकते थे. अगर वैसा ही तेजस्वी यादव के साथ हो जाये तो नीतीश कुमार भी कुछ नहीं कर पाएंगे.

नीतीश कुमार की चाणक्य जैसी काबिलियत ही संदेह भी पैदा कर देती है. एक मन ये मान भी लेता है कि वो प्रधानमंत्री पद के दावेदार नहीं हैं, तो ऐन उसी वक्त मन का अगला कोना इशारे करता है कि उनके तरकश में एक तीर ऐसी जरूर होगी जो ऐन वक्त पर अपने खिलाफ खड़े होने वाले को किनारे कर सकें. ऐसा बार बार के डिस्क्लेमर के बावजूद नीतीश कुमार 2024 के लिए डबल रोल में नजर आते हैं.

लेकिन मोरारजी भाई कौन?

राहुल गांधी के बयानों से भी लगता ही है कि वो भी मन से खुद को प्रधानमंत्री पद का दावेदार नहीं मानते, लेकिन कांग्रेस का रिजर्वेशन है कि मानता ही नहीं. भारत जोड़ो यात्रा में भी राहुल गांधी खुद के नेता की जगह एक यात्री ही बता रहे हैं - और कांग्रेस अध्यक्ष बनने में भी उनकी बातों से कोई दिलचस्पी नहीं लगती.

अभी तो खुल कर अगर कोई प्रधानमंत्री पद का दावेदार मैदान में दिखायी पड़ रहा है तो वो हैं - सिर्फ अरविंद केजरीवाल. लेकिन अरविंद केजरीवाल किसी विपक्षी गठबंधन के नेता के तौर पर नहीं बल्कि अकेले दम पर ऐसा दावा कर रहे हैं. प्रधानमंत्री मोदी के रेवड़ी कल्चर वाले बयान के बाद तो बस अंगड़ाई ही नजर आयी थी, मनीष सिसोदिया के घर सीबीआई रेड के बाद तो जैसे रफ्तार ही पकड़ चुके हैं.

जैसे 2015 के बिहार चुनाव में मोदी-शाह को शिकस्त देने के बाद नीतीश कुमार प्रधानमंत्री बनने के लिए प्रयासरत नजर आये थे, बिलकुल वैसे ही 2020 में बंगाल चुनाव में बीजेपी नेतृत्व की उसी जोड़ी को शिकस्त देने के बाद ममता बनर्जी भी प्रधानमंत्री पद की सबसे बड़ी दावेदार बन कर उभरी थीं - लेकिन आधे अधूरे सहयोग की वजह से उनको खुद को समेट लेने को मजबूर होना पड़ा.

अगर बाकियों को मोरारजी भाई की भूमिका में मान लें और शरद पवार को भी जेपी वाले रोल के लिए रिजर्व कर लें तो लड़ाई में ममता बनर्जी और नीतीश कुमार ही बचते हैं. दोनों ही नेताओं की राजनीतिक हरकतों से चुनाव की तारीख आते आते वे कौन सा रूप धारण कर लेंगे समझना मुश्किल हो रहा है - "सारी बीच नारी है कि नारी बीच सारी है, सारी ही की नारी है कि नारी की ही सारी है?"

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इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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