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उम्मीद है मुर्मू किताबों में लिखी 'रबर स्टाम्प' वाली राष्ट्रपति नहीं साबित होंगी!

    • नाज़िश अंसारी
    • Updated: 25 जुलाई, 2022 10:41 PM
  • 25 जुलाई, 2022 10:40 PM
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राज्यपाल रहते हुए जैसे द्रौपदी मुर्मू ने मुख्यमंत्री द्वारा पारित बिल को आदिवासियों की जमीनों के पक्ष में न पाकर हस्ताक्षर से इंकार किया था, क्या राष्ट्रपति रहते हुए वे इतना दम खम दिखा सकेंगी? अगर वे कर सकीं तो 'वाह'. वरना हमने स्कूल की नागरिक शास्त्र की किताब में पढ़ ही लिया था, 'राष्ट्रपति रबर का स्टाम्प होता है.'

देश को पहली महिला आदिवासी राष्ट्रपति मिल चुकी है. आज़ादी के 75वें साल के अमृत महोत्सव पर यह उपलब्धि गांधी को उनकी विचारधारा के विपरीत खड़ी पार्टी की तरफ से श्रद्धांजलि स्वरूप है. ऐसा इसलिए क्योंकि गांधी को राष्ट्रपति जैसे पद पर किसी ऐसे व्यक्ति को देखने की इच्छा थी. भारतीय राष्ट्रपति के इतिहास में द्रौपदी मुर्मू आज़ाद भारत (1958) में उड़ीसा के मयूरभंज ज़िले के बैदापोसी गांव के संथाल परिवार में बिरंची नारायण टुडू (पिता) के यहां जन्मी पहली आदिवासी मैडम प्रेसिडेंट होंगी शायद ही किसी ने सोचा हो. शुरूआती पढाई गांव के ही स्कूल से की. 1979 में भुवनेश्वर के रमादेवी कॉलेज से स्नातक किया. पढ़ने के दौरान ही श्याम चंद्र मुर्मू से 1976 में प्रेम विवाह किया. उनसे दो बेटा 1 बेटी हुए. कहने को यह एक आदर्श परिवार था. लेकिन परिवार का सुख क्षणिक निकला. 2009 में 25 साल के बेटे की मौत ने उन्हें डिप्रेशन दिया. इससे उबरने की कोशिश कर ही रही थी कि 2013 में रोड ऐक्सीडेंट में दूसरा बेटा भी चला गया. कुछ ही दिन में भाई गया. फिर मां भी. यह 3 मौतें एक महीने के भीतर हुईं. डिप्रेशन गहरा गया. कुछ संभलती कि एक साल बाद 2014 में पति का साथ भी छूट गया. यह उनके मानसिक स्वास्थ्य के लिए बुरा था.

राष्ट्रपति से पहले एक महिला के रूप में तमाम चुनौतियों का सामना द्रौपदी मुर्मू ने किया

लेकिन राजनीति 97 से ही रंगरायपुर का वार्ड पार्षद बनते ही जीवन में प्रवेश कर चुकी थी. जिस वक़्त यह हादसे हुए वे ओड़िशा सरकार में राज्यमंत्री थीं. आदिवासियों के लिए सामाजिक कार्यकर्ता के तौर पर वे गहरी पैठ भी बना चुकी थीं. लोगों ने उन्हें आस भरी नज़रों से देखा. वापस सामाजिक जीवन शुरु करने की मिन्नत की. वे लौटीं. आध्यात्म, ध्यान और योग की अंगुली थामकर. 'ब्रह्म कुमारी' बनकर. तमाम...

देश को पहली महिला आदिवासी राष्ट्रपति मिल चुकी है. आज़ादी के 75वें साल के अमृत महोत्सव पर यह उपलब्धि गांधी को उनकी विचारधारा के विपरीत खड़ी पार्टी की तरफ से श्रद्धांजलि स्वरूप है. ऐसा इसलिए क्योंकि गांधी को राष्ट्रपति जैसे पद पर किसी ऐसे व्यक्ति को देखने की इच्छा थी. भारतीय राष्ट्रपति के इतिहास में द्रौपदी मुर्मू आज़ाद भारत (1958) में उड़ीसा के मयूरभंज ज़िले के बैदापोसी गांव के संथाल परिवार में बिरंची नारायण टुडू (पिता) के यहां जन्मी पहली आदिवासी मैडम प्रेसिडेंट होंगी शायद ही किसी ने सोचा हो. शुरूआती पढाई गांव के ही स्कूल से की. 1979 में भुवनेश्वर के रमादेवी कॉलेज से स्नातक किया. पढ़ने के दौरान ही श्याम चंद्र मुर्मू से 1976 में प्रेम विवाह किया. उनसे दो बेटा 1 बेटी हुए. कहने को यह एक आदर्श परिवार था. लेकिन परिवार का सुख क्षणिक निकला. 2009 में 25 साल के बेटे की मौत ने उन्हें डिप्रेशन दिया. इससे उबरने की कोशिश कर ही रही थी कि 2013 में रोड ऐक्सीडेंट में दूसरा बेटा भी चला गया. कुछ ही दिन में भाई गया. फिर मां भी. यह 3 मौतें एक महीने के भीतर हुईं. डिप्रेशन गहरा गया. कुछ संभलती कि एक साल बाद 2014 में पति का साथ भी छूट गया. यह उनके मानसिक स्वास्थ्य के लिए बुरा था.

राष्ट्रपति से पहले एक महिला के रूप में तमाम चुनौतियों का सामना द्रौपदी मुर्मू ने किया

लेकिन राजनीति 97 से ही रंगरायपुर का वार्ड पार्षद बनते ही जीवन में प्रवेश कर चुकी थी. जिस वक़्त यह हादसे हुए वे ओड़िशा सरकार में राज्यमंत्री थीं. आदिवासियों के लिए सामाजिक कार्यकर्ता के तौर पर वे गहरी पैठ भी बना चुकी थीं. लोगों ने उन्हें आस भरी नज़रों से देखा. वापस सामाजिक जीवन शुरु करने की मिन्नत की. वे लौटीं. आध्यात्म, ध्यान और योग की अंगुली थामकर. 'ब्रह्म कुमारी' बनकर. तमाम झंझावतों से भीतर से जूझती. ऊपर से शांत. 2015 में वे झारखंड की राज्यपाल थीं.

जिंदगी के तमाम उतार... हां सिर्फ उतार, (चढ़ाव का तो पूरा देश साक्षी है) ने उन्हें जितना अकेला किया. उतना ही मज़बूत भी. शांत, धीमी-धीमी आवाज़ में टूटी फूटी हिंदी बोलती द्रौपदी जितनी विनम्र हैं उतनी ही अनुशासित भी. क्लर्क से लेकर टीचर तक, वार्ड मेम्बर से लेकर राज्यपाल तक, बेस्ट एमएलए से लेकर राष्ट्रपति तक उनका जीवन हिम्मत और जीवटता से भरपूर है.

इस बात पर तालियां बजनी चाहिए. बज भी रही हैं. लेकिन झंकार 'आदिवासी' पर ज़्यादा है. होना भी चाहिए. कम से कम द्रौपदी मुर्मू के राष्ट्रपति होने पर 'जल-जंगल-ज़मीन' में अपने हिस्से की बात/मांग करने वाले आदिवासियों पर सबकी नज़र जाएगी. साथ ही उनकी तरफ से कभी न पूछे गए सवालों के जवाब भी तलाशे जाने चाहिए.

जैसे, इक्कीसवीं सदी के साल 22 में क्यों अब तक इन समाज के बच्चों की पहुंच स्कूल तक नहीं है? क्यों अभी भी आदिवासी अपनी दैनिक ज़रूरतों के लिए जंगल का मुंह देखते हैं? क्यों विकास के नाम पर जंगल, पहाड़ खोदते हुए आदिवासियों को उनकी ही जड़ों से काटकर विस्थापित करने की बात कही जाती है लेकिन किया नहीं जाता है? क्यों आधी रात बिना जुर्म के पुलिस/मिलिट्री घरों से इन्हें उठा लेती है? बिन क़सूर गोली मार देती है?

बच्चियां, स्त्रियां कब तक बलात्कृत होती रहेंगी? इतना कि वे गर्भवती हो जाएं. उनके वक्षों को दबाकर दूध निकाल कर राक्षसी पुलिस वीडियो बनाती रहेगी? कब तक उनके वक्ष काटे जाएंगे? छत्तीस गढ़ में जब पुलिस 16 आदिवासियों को खड़े खड़े मार देती हैं, तब गांधीवादी कार्यकर्ता हिमांशु कुमार के शिकायत करने पर सुप्रीम कोर्ट उन्हीं पर पांच लाख का मुआवज़ा ठोक देती है.

तो कब तक शिकायत कर्ता को मुजरिम बताया जाएगा और पीड़ित को दोषी? कब तक निर्दोष, निरअपराध आदिवासियों को माओवादी,नक्सली बताया जाएगाआम भारतीय के लिए आदिवासी का मतलब जंगल मेें पीले से लेकर भूरे लगभग करछुए पत्ते की शक्ल वाले चेहरे हैं जो हुआ-हुआ करके आग के चारों तरफ नाचते हों.

मुख्य धारा से कटे, अलग भाषा, रहन- सहन, संस्कृति, खान पान के नाते हम उन्हें फैंन्टेसाइज़ कर लें. विचित्र मान लें. पुअर गाय बोलकर सॉरी फील कर लें. लेकिन अब जबकि इसी समाज की एक औरत देश के सबसे सम्मानित संवैधानिक पद पर विराजने जा रही हैं तो देखने वाली बात होगी कि आदिवासियों के मौलिक अधिकारों की वे कितनी रक्षा कर सकेंगी.

राज्यपाल रहते हुए जैसे उन्होंने मुख्यमंत्री द्वारा पारित बिल को आदिवासियों की जमीनों के पक्ष में न पाकर हस्ताक्षर से इंकार किया था, क्या राष्ट्रपति रहते हुए वे इतना दम खम दिखा सकेंगी? अगर वे कर सकीं तो 'वाह'. वरना हमने स्कूल की नागरिक शास्त्र की किताब में पढ़ ही लिया था, 'राष्ट्रपति रबर का स्टाम्प होता है.'

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इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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