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अटल जी की राजनीति में मतभेद था मनभेद नहीं

    • आशीष वशिष्ठ
    • Updated: 25 दिसम्बर, 2018 11:36 AM
  • 25 दिसम्बर, 2018 11:36 AM
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आज युग बदल गया है. जीत ही सर्वोपरि है. विपक्षी को खत्म करना ही सबसे बड़ा नियम है और इस जंग में सब जायज है. नैतिक अनैतिक कुछ भी नहीं. लेकिन अटल जी की राजनीति इस मनोदशा, मनोभाव और विचार से कोसों दूर थी.

पूर्व प्रधानमंत्री भारत रत्न अटल बिहारी वाजपेयी प्रथम प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू से लेकर मनमोहन सिंह तक के कार्यकाल तक में एक मजबूत विपक्षी राजनेता के तौर पर दिखे. विपक्ष में रहते हुए उन्होंने सरकार की कमियों की जहां डटकर आलोचना की, वहीं सरकार की उपलब्धियों की भी तारीफ करने में कभी पीछे नहीं रहे. शायद इसी वजह से उन्हें राजनीति का ‘अजातशत्रु’ कहा जाता रहा. जवाहर लाल नेहरू ने उनकी तारीफ की तो इंदिरा ने भी उन्हें बराबर सम्मान दिया. कहा जाता है कि राजीव गांधी ने तो उन्हें इलाज के लिए विदेश तक भेजा था. विचारधारा से असहमति के बावजूद विरोधी नेताओं के प्रति भी सम्मान भाव रखते थे. यह उनके व्यक्तित्व का विलक्षण भाव था कि व्यक्तिगत स्तर पर वे किसी के प्रति रागद्वेष नहीं रखते थे. अटल जी लोकतंत्र की स्वस्थ परम्पराओं का निर्वहन करते थे. लोहिया से लेकर जयप्रकाश नारायण और राजनारायण तक अटल की हमेशा तारीफ करते रहे थे.

अटल जी की राजनीति वैचारिक विरोध के बाद भी बातचीत का सिलसिला नहीं तोड़ती थी. जो संसद और सड़क की तीखी नोंकझोंक में भी परस्पर वैमनस्यता को जगह नहीं देती थी. जो राजनीति में मतभेदों को मनभेद में नहीं बदलती थी. जहां मिलकर एक भारत के निर्माण का सपना था जहां रास्ते तो अलग थे पर लक्ष्य एक था. आज युग बदल गया है. जीत ही सर्वोपरि है. विपक्षी को खत्म करना ही सबसे बड़ा नियम है और इस जंग में सब जायज है. नैतिक अनैतिक कुछ भी नहीं. लेकिन अटल जी की राजनीति इस मनोदशा, मनोभाव और विचार से कोसों दूर थी.  

अटल जी की राजनीति वैचारिक विरोध के बाद भी बातचीत का सिलसिला नहीं तोड़ती थी.

वाजपेयी एक व्यक्ति के तौर पर मुलायम थे. उनकी मुलायमियत उनके अंदर के हिंदुत्व के लिए कवच थी. जिसमें विचारों के अवगुण छिप जाते थे. या वो उनको छिपा लेते थे. इस वजह से...

पूर्व प्रधानमंत्री भारत रत्न अटल बिहारी वाजपेयी प्रथम प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू से लेकर मनमोहन सिंह तक के कार्यकाल तक में एक मजबूत विपक्षी राजनेता के तौर पर दिखे. विपक्ष में रहते हुए उन्होंने सरकार की कमियों की जहां डटकर आलोचना की, वहीं सरकार की उपलब्धियों की भी तारीफ करने में कभी पीछे नहीं रहे. शायद इसी वजह से उन्हें राजनीति का ‘अजातशत्रु’ कहा जाता रहा. जवाहर लाल नेहरू ने उनकी तारीफ की तो इंदिरा ने भी उन्हें बराबर सम्मान दिया. कहा जाता है कि राजीव गांधी ने तो उन्हें इलाज के लिए विदेश तक भेजा था. विचारधारा से असहमति के बावजूद विरोधी नेताओं के प्रति भी सम्मान भाव रखते थे. यह उनके व्यक्तित्व का विलक्षण भाव था कि व्यक्तिगत स्तर पर वे किसी के प्रति रागद्वेष नहीं रखते थे. अटल जी लोकतंत्र की स्वस्थ परम्पराओं का निर्वहन करते थे. लोहिया से लेकर जयप्रकाश नारायण और राजनारायण तक अटल की हमेशा तारीफ करते रहे थे.

अटल जी की राजनीति वैचारिक विरोध के बाद भी बातचीत का सिलसिला नहीं तोड़ती थी. जो संसद और सड़क की तीखी नोंकझोंक में भी परस्पर वैमनस्यता को जगह नहीं देती थी. जो राजनीति में मतभेदों को मनभेद में नहीं बदलती थी. जहां मिलकर एक भारत के निर्माण का सपना था जहां रास्ते तो अलग थे पर लक्ष्य एक था. आज युग बदल गया है. जीत ही सर्वोपरि है. विपक्षी को खत्म करना ही सबसे बड़ा नियम है और इस जंग में सब जायज है. नैतिक अनैतिक कुछ भी नहीं. लेकिन अटल जी की राजनीति इस मनोदशा, मनोभाव और विचार से कोसों दूर थी.  

अटल जी की राजनीति वैचारिक विरोध के बाद भी बातचीत का सिलसिला नहीं तोड़ती थी.

वाजपेयी एक व्यक्ति के तौर पर मुलायम थे. उनकी मुलायमियत उनके अंदर के हिंदुत्व के लिए कवच थी. जिसमें विचारों के अवगुण छिप जाते थे. या वो उनको छिपा लेते थे. इस वजह से लोगों में गलतफहमी भी पैदा हो जाती थी कि कहीं वो सेकुलर तो नहीं हैं ? कहीं वो आरएसएस में होते हुए आरएसएस से अलग तो नहीं है ? वो हैं क्या ? ये सवाल उनके जीवन के अंत तक बना रहा. कभी कभी उनके अपने ही साथी उन पर शक करने लगते थे. ये आदमी विचारधारा से भटक तो नहीं गया है ? कहीं ये शत्रु पक्ष से मिल तो नहीं गया है? और तब अपने ही लोग उनपर तीखे हमले करने लगते.

एक बार जब उन्हें पूर्व प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू की बात सही नहीं लगी और उन्हें, सदन में बोलने का मौका मिला तब उन्होंने अपनी नाराजगी को वहां मौजूद सभी नेताओं के बीच में रखा. अटल ने पंडित नेहरू से यहां तक कहा था कि उनके अंदर चर्चिल भी है और चैंबरलिन भी है. लेकिन नेहरू इस पर नाराज नहीं हुए. उसी दिन शाम को किसी बैंक्वट में दोनों की फिर मुलाकात हुई तो नेहरू ने अटल की तारीफ की और कहा कि आज का भाषण बड़ा जबरदस्त रहा. उनका कहना था कि वह राजनीति का एक ऐसा दौर था जहां सभी एक दूसरे का सम्मान करते थे और नेताओं की बातों को गंभीरता से लेते थे, लेकिन आज यदि ऐसी आलोचना करनी पड़ जाए तो सदन में कुछ एक से तो दुश्मनी होनी तय है. प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी की मशहूर कविताओं में से एक कविता की चुनिंदा लाइन ये भी हैं कि छोटे मन से कोई बड़ा नहीं होता, टूटे मन से कोई बड़ा नहीं होता... ये शब्दे उनके लिए सिर्फ शब्द नहीं बल्कि उनकी जिंदगी की एस मिसाल भी हैं. इस बात की मिसाल ये है कि 70 के दशक के अंत में जब साउथ ब्लॉक से भारत के पहले प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू का चित्र गायब हो गया लेकिन बाद में तत्कालीन विदेश मंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के हस्तक्षेप से इसे फिर से लगाया गया.

वाजपेयी ने इस बात का जिक्र संसद में अपने एक बयान के दौरान किया था और दूसरों द्वारा की जाने वाली आलोचना को स्वीकार करने की उनकी क्षमता की सराहना भी की थी. उन्होंने अपने बयान में कहा था, ‘‘कांग्रेस के मित्र हो सकता है इस पर विश्वास न करें लेकिन नेहरू का एक चित्र साउथ ब्लॉक में लटका होगा. मैं जब भी वहां से जाउंगा उसे देखूंगा.’’ वाजपेयी ने यह भी कहा कि नेहरूजी के साथ संसद में बहस होती रहती थी. उन्होंने याद करते हुए कहा, ‘‘उस समय मैं नया था और सदन में पीछे बैठता था.

कई बार बोलने का मौका हासिल करने के लिये मुझे बहिर्गमन भी करना पड़ा.’’ उन्होंने कहा, ‘‘तब मैंने अपने लिये एक जगह बना ली और आगे आ गया और जब मैं विदेश मंत्री बना, मैंने देखा कि वह चित्र गैलरी से गायब है.’’ उन्होंने कहा,‘‘मैंने तब पूछा कि वह (चित्र) कहां गया? मुझे कोई जवाब नहीं मिला. उस चित्र को फिर से वहां लगा दिया गया.’’ उनके इस बयान का सदन में मौजूद लोगों ने मेजें थपथपाकर स्वागत किया था. यह चित्र वाजपेयी के अधिकारियों ने ये सोचकर हटवा दिया था कि शायद इसे देखकर वाजपेयी खुश नहीं होंगे.

उनकी मुलायमियत उनके अंदर के हिंदुत्व के लिए कवच थी. जिसमें विचारों के अवगुण छिप जाते थे.

प्रधानमंत्री पद से हटने के बाद उन पर जो हमले हुए उस से वो बहुत आहत हुए थे. मुंबई में पार्टी की एक बैठक में वो बोल भी पड़े थे- “अपनों के बाणों ने मारा.’’ वो भावुक थे. आंसू भी छलके. पर फिर संभल गए. और आगे चल पड़ें. ये थे अटलजी. साफ दिल के. मन में मैल नहीं. विरोधियों को भी अपना बनाने की कला.

एक बार जब वो प्रधानमंत्री थे. संसद में बहस के दौरान प्रमोद महाजन ने चंद्रशेखर की किसी बात से चिढ़ कर कह दिया. “चंद्रशेखर जी, मेरी भी आपकी चार महीने की सरकार के बारे में राय है. कहिये तो कह दूं. इस पर चंद्रशेखर जी तनमना कर रह गए. उन्हें बहुत बुरा लगा. अटल जी बात को भांप गए. वो जब अपने कमरे में गए तो उन्होंने प्रमोद महाजन को बुलाया और उनको झिड़का कि आप चंद्रशेखर जैसे वरिष्ठ सांसद और पूर्व प्रधानमंत्री पर कैसे फब्ती कस सकते हैं ? चंद्रशेखर जी से बाकायदा माफी मांगने को कहा. चंद्रशेखर उनकी पार्टी में नहीं थे. लेकिन वो ये जानते थे कि संसदीय लोकतंत्र में विरोध के बावजूद परस्पर सम्मान को चोट पहुंचाने वाली बात नहीं होनी चाहिए. और वहीं वर्तमान की राजनीति किस तरह एक दूसरे का मजाक उड़ाती है और किसी पर भी व्यक्तिगत टिप्पणी करने से नहीं चूकती, उन सब के लिये ये एक बानगी है. एक सबक है. पर आज वाजपेयी जी इस संसद में नहीं है. और न ही संसदीय गरिमा का ख्याल पक्ष या विपक्ष, किसी को है. सब एक जैसे हैं.

अपनी सख्त छवि के लिए मशहूर इंदिरा गांधी से शायद ही कोई नेता उलझना चाहता था, लेकिन अटल जी अक्सर उन्हें तमाम मुद्दों पर संसद में घेर लेते और सवालों का जवाब देने पर मजबूर कर देते. एक बार तो इंदिरा गांधी ने अटल जी की आलोचना करते हुए कहा था कि, ‘वह बहुत हाथ हिला-हिलाकर बात करते हैं’. इसके बाद अटल जी ने जवाब में कहा कि, ‘वो तो ठीक है, आपने किसी को पैर हिलाकर बात करते देखा है क्या?’ इंदिरा गांधी और अटल बिहारी वाजपेयी के बीच मतभेद और तीखी टिप्पणी का दौर अक्सर चलता रहता था. इसी तरह के एक मोड़ पर अटल जी ने इंदिरा गांधी की सरकार को ‘सपेरा’ की संज्ञा दे डाली थी. उन्होंने कहा कि, ‘जिस तरह सपेरा हमेशा अपने सांप को बक्से में बंद रखता है, ठीक उसी तरह यह सरकार तमाम समस्याओं को एक बक्से में बंद रखती है और सोचती है कि इनका अपने आप हल हो जायेगा.’ राजनीतिक जीवन में शुचिता के पक्षधर अटल जी की स्वीकार्यता का आलम यह था कि जब वे एक बार लोकसभा का चुनाव हारे तो सदन में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने कहा था कि अटल के बिना सदन सूना लगता है. वे फिर राज्यसभा के जरिये संसद में पहुंचे.

भाजपा को अगर हर हिंदुस्तानी का दिल जीतना है तो रास्ता तो वाजपेयी के रास्ते से ही निकलेगा.

एक बार लखनऊ में वाजपेयी जी की सभा थी. उस समय उत्तर प्रदेश में मुलायम सिंह यादव की सरकार थी और ओम प्रकाश समाजवादी पार्टी के विधायक थे. ओम प्रकाश कुछ अन्य सपा विधायकों ने तय किया कि वाजपेयी जी की सभा में नारेबाजी की जाए. इसकी सूचना नेता जी (मुलायम सिंह यादव) को मिल गई. उन्होंने ओम प्रकाश को बुलाया और कहा कि वाजपेयी जी देश के बड़े नेता हैं. उनसे आप लोगों को बहुत कुछ सीखने को मिलेगा. आप लोग उनकी सभा में जाइए और चुपचाप बैठकर उनका भाषण सुनिए. उनसे सीखिए कि कैसे भाषण दिया जाता है. किसी मुद्दे पर किस तरह बोला जाता है. यह है वाजपेयी का व्यक्तित्व.

अटल जी को कोई कितनी भी कड़वी बात कहे, उसका वह हंसते हुए जवाब देते. पूर्व प्रधानमंत्री चन्द्रशेखर उनको गुरुदेव कहते थे लेकिन कई बार वह वाजपेयी जी को ऐसे कड़वे शब्द कहते थे कि वह तिलमिला कर रह जाते थे, पर जवाब सहज शब्दों में देते थे. एक बार वाजपेयी ने जब जार्ज फर्नांडीज का केन्द्रीय मंत्री पद से इस्तीफा ले लिया, तब चन्द्रशेखर ने उनको फोन किया. कहा, क्या गुरुदेव! बलि का बकरा बनाने के लिए जॉर्ज ही थे, जिस पर वाजपेयी ने कहा था, नहीं-नहीं, चन्द्रशेखर जी, ऐसा नहीं है. कुछ समय बाद वह फिर मंत्रिमंडल में वापस आ जाएंगे.

अटल जी गठबन्धन के नेता थे. सबको साथ लेकर चलने का बड़ा गुण उनमें था. वो हर जाति, संप्रदाय, रीति-नीति और विचारधारा में लोकप्रिय थे. बीजेपी आज वाजपेयी के युग से काफी आगे निकल चुकी है. वो हर वो दायरा तोड़ रही है जो वाजपेयी ने अपने लिये निर्धारित किए थे. पर भाजपा को अगर हर हिंदुस्तानी का दिल जीतना है तो रास्ता वो नहीं है जो आज अपनाया जा रहा है. रास्ता तो वाजपेयी के रास्ते से ही निकलेगा. पर कहीं देर न हो जाए. 

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इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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