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अरविंद केजरीवाल का मकसद अपने नेताओं को बचाना है या चुनाव जीतना?

    • मृगांक शेखर
    • Updated: 19 सितम्बर, 2022 03:38 PM
  • 19 सितम्बर, 2022 03:37 PM
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अरविंद केजरीवाल (Arvind Kejriwal) एक साथ दो दो मोर्चों पर जूझ रहे हैं. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी (Narendra Modi) को निजी तौर पर टारगेट करने से भले ही AAP नेताओं के लिए थोड़ी राहत मिल जाये, लेकिन गुजरात चुनाव (Gujarat Election) हाथ से निकल सकता है.

अरविंद केजरीवाल (Arvind Kejriwal) का गुस्सा स्वाभाविक है. जाहिर है, गुजरात चुनाव (Gujarat Election) सिर पर है. पंजाब के पड़ोस में हिमाचल प्रदेश में भी कुछ कर गुजरने की तमन्ना है - और उसके बाद कर्नाटक में भी कुछ कुछ हो जाये तो 2024 के लिए बॉयोडाटा समृद्ध हो सकता है, लेकिन जांच एजेंसियों से पीछा ही नहीं छूट रहा है.

दिल्ली सरकार के मंत्री सत्येंद्र जैन के गिरफ्तार होने पर अरविंद केजरीवाल बेकसूर बता कर बचाव करते रहे. फर्जी केस बता कर बीजेपी को टारगेट करते रहे. फिर मनीष सिसोदिया के यहां पड़ी सीबीआई रेड ने और गुस्सा दिला दिया - फिर सीधे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी (Narendra Modi) निशाने पर आ गये.

ऐसा एक दो मामला होता तो भी चल जाता, लेकिन सिलसिला थमने का नाम ही नहीं ले रहा है. कैलाश गहलोत के खिलाफ तो अभी सीबीआई जांच शुरू ही हुई है, तभी आम आदमी पार्टी विधायक अमानतुल्ला खान को गिरफ्तार कर लिया जाता है - ऐसे आप नेता के आक्रामक होने के अलावा चारा भी क्या है?

सत्येंद्र जैन केस में केजरीवाल एंड कंपनी के लिए थोड़ी राहत की किरण दिखायी पड़ी थी, जब स्पेशल कोर्ट में जांच एजेंसी की खिंचाई की गयी. ये बात जोर जोर से अरविंद केजरीवाल और उनके साथी मीडिया और सोशल मीडिया के जरिये लोगों को बताने की कोशिश भी कर रहे हैं, लेकिन किसी पर कोई फर्क नहीं पड़ने वाला है.

आखिर अदालती मामलों में बयानबाजी से तो कुछ होने से रहा. लिहाजा वहां तो कानूनी बचाव के अलावा कोई रास्ता भी नहीं बचा है. ऊपर से मुसीबत ये है कि ईडी ने जज ही बदलने की मांग कर रखी है.

राजनीति में एक रास्ता ये जरूर होता है कि जब अदालत में लड़ाई कमजोर पड़े तो जनता की अदालत का दरवाजा खटखटाया जाये. इंसाफ मिलने में देर कानून की अदालतों में भी हो जाती है, लेकिन जनता की अदालत में एक टाइम फ्रेम बना हुआ होता है - पंजाब जैसा न सही, लेकिन गुजरात और दूसरे राज्यों में अरविंद केजरीवाल थोड़ा भी समर्थन जुटा लें तो भविष्य कुछ आसान हो सकता है.

अब तो

अरविंद केजरीवाल (Arvind Kejriwal) का गुस्सा स्वाभाविक है. जाहिर है, गुजरात चुनाव (Gujarat Election) सिर पर है. पंजाब के पड़ोस में हिमाचल प्रदेश में भी कुछ कर गुजरने की तमन्ना है - और उसके बाद कर्नाटक में भी कुछ कुछ हो जाये तो 2024 के लिए बॉयोडाटा समृद्ध हो सकता है, लेकिन जांच एजेंसियों से पीछा ही नहीं छूट रहा है.

दिल्ली सरकार के मंत्री सत्येंद्र जैन के गिरफ्तार होने पर अरविंद केजरीवाल बेकसूर बता कर बचाव करते रहे. फर्जी केस बता कर बीजेपी को टारगेट करते रहे. फिर मनीष सिसोदिया के यहां पड़ी सीबीआई रेड ने और गुस्सा दिला दिया - फिर सीधे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी (Narendra Modi) निशाने पर आ गये.

ऐसा एक दो मामला होता तो भी चल जाता, लेकिन सिलसिला थमने का नाम ही नहीं ले रहा है. कैलाश गहलोत के खिलाफ तो अभी सीबीआई जांच शुरू ही हुई है, तभी आम आदमी पार्टी विधायक अमानतुल्ला खान को गिरफ्तार कर लिया जाता है - ऐसे आप नेता के आक्रामक होने के अलावा चारा भी क्या है?

सत्येंद्र जैन केस में केजरीवाल एंड कंपनी के लिए थोड़ी राहत की किरण दिखायी पड़ी थी, जब स्पेशल कोर्ट में जांच एजेंसी की खिंचाई की गयी. ये बात जोर जोर से अरविंद केजरीवाल और उनके साथी मीडिया और सोशल मीडिया के जरिये लोगों को बताने की कोशिश भी कर रहे हैं, लेकिन किसी पर कोई फर्क नहीं पड़ने वाला है.

आखिर अदालती मामलों में बयानबाजी से तो कुछ होने से रहा. लिहाजा वहां तो कानूनी बचाव के अलावा कोई रास्ता भी नहीं बचा है. ऊपर से मुसीबत ये है कि ईडी ने जज ही बदलने की मांग कर रखी है.

राजनीति में एक रास्ता ये जरूर होता है कि जब अदालत में लड़ाई कमजोर पड़े तो जनता की अदालत का दरवाजा खटखटाया जाये. इंसाफ मिलने में देर कानून की अदालतों में भी हो जाती है, लेकिन जनता की अदालत में एक टाइम फ्रेम बना हुआ होता है - पंजाब जैसा न सही, लेकिन गुजरात और दूसरे राज्यों में अरविंद केजरीवाल थोड़ा भी समर्थन जुटा लें तो भविष्य कुछ आसान हो सकता है.

अब तो अरविंद केजरीवाल अपने सभी साथियों को तीन-चार महीने के लिए जेल जाने के लिए तैयार रहने को बोल चुके हैं. अरविंद केजरीवाल को लगता है कि ये सारी ही मुश्किलें तात्कालिक हैं. एक बार गुजरात चुनाव के नतीजे आ जायें तो तस्वीर काफी हद तक साफ हो जाएगी.

जाहिर है, अरविंद केजरीवाल के लिए जितना अहम राज्यों के आने वाले विधानसभा चुनाव हैं, उतने ही महत्वपूर्ण साथियों का बचाव भी है. बचाव न भी संभव हो सके तो ये नहीं महसूस होना चाहिये कि उनके नेता ने मुसीबत की घड़ी में अकेले जूझने के लिए छोड़ दिया है. वरना, कांग्रेस के विरोध प्रदर्शनों का हाल होकर रह जाएगा. जब राहुल गांधी की पूछताछ के लिए प्रवर्तन निदेशालय के सामने पेशी होनी थी तो देश भर से कांग्रेस नेताओं को दिल्ली तलब किया गया था. नेताओं ने विरोध प्रदर्शन में हिस्सा भी लिया, लेकिन ऐन पहले मीडिया से बातचीत में कइयों का सवाल यही था कि ये सब सिर्फ गांधी परिवार के लिए ही क्यों - मुसीबत की घड़ी में बाकी कांग्रेस नेताओं के लिए ऐसे विरोध प्रदर्शन क्यों नहीं होते?

अरविंद केजरीवाल और राहुल गांधी में ऐसे मामलों में साफ साफ फर्क नजर आता है, लेकिन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को टारगेट करने का अरविंद केजरीवाल का तरीका भी धीरे धीरे राहुल गांधी जैसा ही होता जा रहा है - और ऐसे निजी हमलों के नतीजे भी खतरनाक होते हैं. कांग्रेस तो भुक्तभोगी है ही, बीजेपी भी कई बार ऐसे स्वाद चख ही चुकी है.

बाकी बातें तो अपनी जगह हैं ही, लेकिन जिस तरीके से अरविंद केजरीवाल ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर निजी हमला बोला है - और प्रधानमंत्री कार्यालय की भूमिका पर सवाल उठाया है, वो बेहद गंभीर मामला है. अरविंद केजरीवाल का प्रधानमंत्री मोदी पर हमला आप नेताओं का जोश जरूर बढ़ा सकता है, लेकिन ये गुजरात में वोट दिला पाएगा? संदेह है!

निजी हमले नुकसानदेह होते ही हैं

कांग्रेस भी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को बेहद आक्रामक तरीके से टारगेट करती है, बल्कि राहुल गांधी तो मौका न मिलने पर भी खोज लेते हैं. काले धन की तरह रोजगार के मसले को भी चीतों को भारत लाये जाने से जोड़ दे रहे हैं - लेकिन भ्रष्टाचार जैसे आरोप नहीं लगाते. राहुल गांधी और बाकी कांग्रेस नेताओं का कहना यही होता है कि मोदी सरकार देश के मजह दो कारोबारियों के लिए काम करती है और देश की गरीब जनता की जगह सिर्फ उन लोगों को ही फायदा मिलता है.

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के खिलाफ अरविंद केजरीवाल ने आर पार की जंग छेड़ दी है - कहीं बेड़ापार तो कहीं बेड़ा गर्क भी होने का भी खतरा है

लेकिन अरविंद केजरीवाल तो सीधे सीधे प्रधानमंत्री को ऑपरेशन लोटस के नाम पर टारगेट करने लगे हैं. कहते हैं, 'अब तक एमएलए खरीदने मर आठ-नौ हजार करोड़ खर्च कर दिये... एमएलए खरीद रहे हैं... फिर भी लाल किले पर खड़े होकर कहते हैं कि भ्रष्टाचार से लड़ रहे हैं.'

आम आदमी पार्टी के राष्ट्रीय जनप्रतिनिधि सम्मेलन को संबोधित करते हुए अरविंद केजरीवाल ने बीजेपी पर आरोप लगाया, 'बीजेपी AAP को कुचलने का काम कर रही है... गुजरात में हार से डर लगने लगा है.'

आप कार्यकर्ताओं से मुखातिब अरविंद केजरीवाल का कहना रहा, 'जो लोग लाल किले से कहते हैं कि मैं भ्रष्टाचार से लड़ रहा हूं... वो करप्शन से नहीं, आम आदमी पार्टी से लड़ रहे हैं.'

वैसे तो अरविंद केजरीवाल प्रधानमंत्री मोदी को कायर और मनोरोगी तक बता चुके हैं, हालांकि बाद के दिनों में उनको मोदी पर निजी हमलों से बचते देखा जाने लगा था - लेकिन आप नेताओं की गिरफ्तारी से परेशान होकर लगता है उनका गुस्सा सातवें आसमान पर चढ़ चुका है.

जैसे राहुल गांधी हिंदू और हिंदुत्ववादियों के बीच गांधी और गोडसे जैसा फर्क समझा रहे थे, अरविंद केजरीवाल का लहजा भी कुछ वैसा ही नजर आता है. आपको याद होगा बुंदेलखंड एक्सप्रेस वे के उद्घाटन के मौके पर प्रधानमंत्री मोदी ने रेवड़ी कल्चर को देश के लिए खतरनाक बताया था. अरविंद केजरीवाल ने जवाब देने में तब भी देर नहीं लगायी थी, लेकिन अब तो दो कदम आगे ही नजर आ रहे हैं.

अब अरविंद केजरीवाल रेवड़ी की लड़ाई को नेक्स्ट लेवल पर पहुंचा चुके हैं. कहते हैं, 'जो नेता कहे फ्रीबी होनी चाहिये समझो ईमानदार... जो नेता कहे फ्रीबीज नहीं होनी चाहिए समझो वो गद्दार है.'

सवाल ये है कि क्या ऐसे निजी हमलों से अरविंद केजरीवाल को वास्तव में कुछ हासिल हो सकता है?

अक्सर देखा गया है कि ऐसे निजी हमले टारगेट किये जाने वाले नेताओं के पक्ष में जनता में सहानुभूति पैदा करते हैं. और हमेशा ही दांव उलटा पड़ जाता है. गुजरात चुनाव में एक बार कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी ने भी मोदी को मौत का सौदागर तक कह डाला था, लेकिन चुनावी हार के बाद कभी दोहराया तक नहीं - और ताजातरीन उदाहरण तो राहुल गांधी का स्लोगन ही है, 'चौकीदार चोर है'.

कांग्रेस के लिए गुजरात से ही एक और उदाहरण 2017 के विधानसभा चुनावों से है. बीजेपी के खिलाफ कांग्रेस का अच्छा खासा कैंपेन चल रहा था - विकास पागल है. एक दिन अचानक प्रधानमंत्री मोदी मोर्चे पर आये और गुजरात और विकास को खुद और गुजराती अस्मिता से जोड़ दिया. बीजेपी की स्थिति बेहद खराब हो गयी थी, लेकिन ऐसा होते ही कांग्रेस को मजबूरन कैंपन बंद करना पड़ा और बीजेपी के सत्ता की राह आसान हो गयी.

2015 में कुछ ही अंतराल पर बीजेपी ये स्वाद दो दो बार चख चुकी है. 2015 के दिल्ली चुनाव में बीजेपी ने अरविंद केजरीवाल के गोत्र पर विवाद खड़ा किया था - और उसी साल के आखिर में प्रधानमंत्री मोदी ने नीतीश कुमार के डीएनए पर टिप्पणी कर दी. मामला उलटा हो गया. दोनों ही चुनावों में बीजेपी को शिकस्त झेलनी पड़ी.

अरविंद केजरीवाल भी तो ये गुणा गणित समझते ही हैं - फिर आखिर क्या वजह है कि दिल्ली विधानसभा चुनाव 2020 में बीजेपी नेताओं के बार बार उकसाने पर भी वो संयम से काम लेते रहे और पंजाब में भी चुपचाप अपने काम में लगे रहे, लेकिन अब उनका गुस्सा बेकाबू होता जा रहा है.

केजरीवााल और कारागार कथा

रामलीला आंदोलन के दौरान एक बार अन्ना हजारे ने तत्कालीन केंद्र सरकार को धमकाते हुए जोश में आकर बोल दिया था... जरूरत पड़ी तो लोग जेल भी भर देंगे. ये सुनते ही टीम अन्ना के चेहरे की हवाइयां उड़ गयी थीं. क्योंकि रामलीला मैदान में पहुंचने वाली ज्यादातर भीड़ जेल जाने वाली नहीं थी. वे तो परिवार और बच्चों के साथ तफरीह के लिए पहुंच जाया करते थे.

लेकिन अब वही अरविंद केजरीवाल ने आम आदमी पार्टी के नेताओं से जेल जाने के लिए तैयार रहने को कह रहे हैं - और उसके लिए कृष्ण का उदाहरण देते हुए कारागार कथा भी रच डाली है. असल में अरविंद केजरीवाल समझा रहे हैं कि आम आदमी पार्टी के रूप में कृष्ण ने फिर से अवतार ले लिया है, और अब तो कंस की खैर नहीं. हालांकि, ये भी समझाते हैं कि कंस वो किसी व्यक्ति को नहीं बल्कि बुराइयों के लिए कह रहे हैं.

अरविंद केजरीवाल का दावा है कि आम आदमी पार्टी कान्हा जैसा बन कर बड़े बड़े राक्षसों का वध कर रही है - भ्रष्टाचार, बेरोजगारी, महंगाई जैसे राक्षसों का. कान्हा बताने के पीछे अरविंद केजरीवाल अपनी पार्टी की आयु की तरफ इशारा कर रहे हैं.

कहते हैं, 'मैंने स्वतंत्रता संग्राम तो नहीं देखा है, लेकिन जैसे हमारा एक-एक एमएलए इनका सामना कर रहा है... 25-25 करोड़ त्याग दिये... ईडी-सीबीआई का सामना कर रहा है... ये छोटी बात नहीं है...'

और फिर आगाह करते हुए हौसलाअफजाई भी करते हैं, 'ये सबको जेल में डालेंगे. तीन-चार महीने जेल जाने की तैयारी कर लो... ये आपका कुछ नहीं बिगाड़ सकते... जेल उतनी भी बुरी नहीं है... मैं 15 दिन होकर आया हूं - अगर सबके अंदर ये हिम्मत आ जाये तो ये कुछ नहीं बिगाड़ सकते हैं.'

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इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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