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कश्‍मीरी आतंकवाद की कमर तोड़ने के रणनीति में आमूल-चूल बदलाव जरूरी

    • अनुज मौर्या
    • Updated: 17 फरवरी, 2019 02:31 PM
  • 17 फरवरी, 2019 02:13 PM
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कश्मीर में आतंकियों को ठिकाने लगाने के बाद क्या करना चाहिए, नीति इसकी भी तय होनी चाहिए. क्योंकि मरने वाला इंसान नहीं था. ओसामा की लाश के साथ अमेरिका का सलूक नज़ीर हो सकता है.

पुलवामा आतंकी हमले में शहीद हुए 37 जवानों के परिवार की कहानी तो लोग पढ़ ही रहे हैं, साथ ही उस आतंकी की भी कुछ कहानियां मीडिया से लेकर सोशल मीडिया तक में घूम रही हैं, जिसने इन जवानों को मारा. सेना के जवान हमारी रक्षा के लिए शहीद हुए, तो उनकी ह्यूमन स्टोरी मीडिया में आना तो बिल्कुल सही है, ताकि दुनिया को उनके त्याग और बलिदान का पता चल सके. लेकिन एक आतंकी की कोई ह्यूमन स्टोरी कैसे हो सकती है? जिसे न ह्यूमन से मतलब है ना ही ह्यूमेनिटी से, जो सिर्फ जन्नत के मजे लूटने के ख्याल भर से ही आतंकी घटनाओं को अंजाम देने से नहीं चूकता, ऐसे आतंकी की ह्यूमन स्टोरी कैसे हो सकती है? कभी नहीं हो सकती.

जब बुरहान वानी की मौत हुई थी, तब भी मीडिया उसके घर तक जा पहुंचा और परिवार का दर्द दिखाने लगा. उसी का नतीजा था उसकी शवयात्रा में उमड़ी भीड़. जो पूरी दुनिया के लिए एक आतंकी था, उसे बुरहान के आस-पड़ोस वालों और परिवार ने एक हीरो का दर्जा दे दिया. पुलवाना हमले के जिम्मेदार 22 साल के आदिल अहमद दार की लाश तो परिवार वालों को मिली भी नहीं, क्योंकि धमाके से उसके चीथड़े उड़ गए, लेकिन परिवार वालों ने बिना किसी शव के ही उसका अंतिम संस्कार कर लिया. अगर आदिल की लाश होती और उसे परिजनों को सौंपा जाता, तो यकीनन उसके घरवाले शवयात्रा निकालते, जिसमें हजारों लोग हिस्सा लेते और उसे हीरो बना देते.

 

एक आतंकी के परिवार की ह्यूमन स्टोरी बताना बेकार

जब भी कोई आतंकी मारा जाता है तो मीडिया उसकी ह्यूमन स्टोरी जानने, उसका दुख-दर्द जानने उसके घर तक पहुंच जाती है. परिवार के लोग उस आतंकी की एक इमोशनल कहानी बताते हैं. वो अपनी मां की सेवा करता था.. पिता का सहारा बनता था... कुछ हालात ऐसे थे जिसके चलते गलत रास्ते पर निकल गया. पुलवामा आतंकी हमले को अंजाम देने वाला आदिल अहमद डार के पिता से भी मीडिया ने बात कर डाली. पिता ने कहा है कि सुरक्षा बलों ने पीटा था, इसलिए वह आतंकी बन गया. एक आतंकी के परिवार की बात पर कितना भरोसा किया जा सकता है?

न तो ऐसे...

पुलवामा आतंकी हमले में शहीद हुए 37 जवानों के परिवार की कहानी तो लोग पढ़ ही रहे हैं, साथ ही उस आतंकी की भी कुछ कहानियां मीडिया से लेकर सोशल मीडिया तक में घूम रही हैं, जिसने इन जवानों को मारा. सेना के जवान हमारी रक्षा के लिए शहीद हुए, तो उनकी ह्यूमन स्टोरी मीडिया में आना तो बिल्कुल सही है, ताकि दुनिया को उनके त्याग और बलिदान का पता चल सके. लेकिन एक आतंकी की कोई ह्यूमन स्टोरी कैसे हो सकती है? जिसे न ह्यूमन से मतलब है ना ही ह्यूमेनिटी से, जो सिर्फ जन्नत के मजे लूटने के ख्याल भर से ही आतंकी घटनाओं को अंजाम देने से नहीं चूकता, ऐसे आतंकी की ह्यूमन स्टोरी कैसे हो सकती है? कभी नहीं हो सकती.

जब बुरहान वानी की मौत हुई थी, तब भी मीडिया उसके घर तक जा पहुंचा और परिवार का दर्द दिखाने लगा. उसी का नतीजा था उसकी शवयात्रा में उमड़ी भीड़. जो पूरी दुनिया के लिए एक आतंकी था, उसे बुरहान के आस-पड़ोस वालों और परिवार ने एक हीरो का दर्जा दे दिया. पुलवाना हमले के जिम्मेदार 22 साल के आदिल अहमद दार की लाश तो परिवार वालों को मिली भी नहीं, क्योंकि धमाके से उसके चीथड़े उड़ गए, लेकिन परिवार वालों ने बिना किसी शव के ही उसका अंतिम संस्कार कर लिया. अगर आदिल की लाश होती और उसे परिजनों को सौंपा जाता, तो यकीनन उसके घरवाले शवयात्रा निकालते, जिसमें हजारों लोग हिस्सा लेते और उसे हीरो बना देते.

 

एक आतंकी के परिवार की ह्यूमन स्टोरी बताना बेकार

जब भी कोई आतंकी मारा जाता है तो मीडिया उसकी ह्यूमन स्टोरी जानने, उसका दुख-दर्द जानने उसके घर तक पहुंच जाती है. परिवार के लोग उस आतंकी की एक इमोशनल कहानी बताते हैं. वो अपनी मां की सेवा करता था.. पिता का सहारा बनता था... कुछ हालात ऐसे थे जिसके चलते गलत रास्ते पर निकल गया. पुलवामा आतंकी हमले को अंजाम देने वाला आदिल अहमद डार के पिता से भी मीडिया ने बात कर डाली. पिता ने कहा है कि सुरक्षा बलों ने पीटा था, इसलिए वह आतंकी बन गया. एक आतंकी के परिवार की बात पर कितना भरोसा किया जा सकता है?

न तो ऐसे आतंकियों की ह्यूमन स्टोरी बतानी चाहिए, ना ही उनके परिवार का दुख दिखाना चाहिए. तब ये परिवार कहां था जब इनका बच्चा आतंकी बना? क्यों नहीं उसे रोका? क्यों नहीं उसे जन्नत की बातें न बताकर भविष्य में देश के सेवा करने की सीख दी? जिन 44 जवानों की हत्या आदिल अहमद डार ने की है, उनके गुनहगार वो सारे लोग हैं, जो आदिल जैसे आतंकी को अपना हीरो बना रहे हैं. आदिल का परिवार भी और उसका समाज भी, सभी उन मां-बाप के दोषी हैं, जिनका बेटा मारा गया, उस पत्नी के गुनहगार हैं, जिसका सुहाग अब कभी नहीं लौटेगा, उस बेटे के गुनहगार हैं, जो आज भी अपने पापा के वापस आने की राह देख रहा होगा.

कश्मीर में आतंकियों को ठिकाने लगाने के बाद क्या करना चाहिए, नीति इसकी भी तय होनी चाहिए.

आतंकियों की लाशें परिजनों को सौंपना फिजूल

सबसे पहला काम तो ये करना चाहिए कि किसी भी आतंकी की लाश उसके परिवार को सौंपनी ही नहीं चाहिए. हिजबुल मुजाहिदीन के आतंकी बुरहान वानी की मौत के बाद जिस तरह उसकी शवयात्रा में करीब 20,000 लोग जमा हो गए थे, उससे ही सेना को सबक ले लेना चाहिए था. जब ऐसे आतंकी की लाश उसके इलाके में पहुंचती है तो आस-पड़ोस के लोग उसे हीराे बताने लगते हैं. लाश को चूमते हैं. और फिर उन्हीं चूमने वालों में से कुछ लोग बंदूक थाम लेते हैं और कोई नया आतंकी हमला करने की योजना बनाने लगते हैं. लाश देखने के बाद एक इमोशन पैदा होता है, जो बाद में एक्सप्लोजन बनकर सामने आता है. इस मामले में हमें अमेरिका से सीखना चाहिए. पाकिस्तानी सीमा में घुसकर अमेरिका ने ओसामा को मारा, लेकिन उसका शव परिजनों को नहीं सौंपा.

आतंकियों/पत्थरबाजों के हिमायती कश्मीरी नेताओं को मेन-स्ट्रीम न माना जाए

2016 में जब आतंकी बुरहान वानी मारा गया था, तो घाटी में अशांति फैल गई थी. सुरक्षा बलों पर पथराव किया गया था. ये सब एक आतंकी के लिए हो रहा था. ऐसा करने वालों को भी तो आतंकी जैसा ही समझना चाहिए. वहीं दूसरी ओर, जो कश्मीरी नेता आतंकियों और पत्थरबाजों के हिमायती बने हुए हैं, उन्हें मेन-स्ट्रीम में नहीं माना जाना चाहिए. हुर्रियत कॉन्फ्रेंस के सज्जाद गनी लोन, सैयद अली शाह गिलानी और मीरवाइज उमर फारूक जैसे नेता पत्थरबाजों के पक्ष में हमेशा ही आवाज उठाते रहे हैं. इन नेताओं को पत्थरबाजों की समस्याएं दिखती हैं, लेकिन ये नहीं दिखता कि समस्या का समाधान पत्थरबाजी से बिल्कुल नहीं होगा. जब कभी सुरक्षा बलों और पत्थरबाजों के बीच टकराव की स्थिति बन जाती है और सेना को कोई कार्रवाई करनी पड़ती है तो भी ये अलगाववादी नेता पत्थरबाजों के साथ खड़े नजर आते हैं. ये वही नेता हैं जिन्हें बुरहान वानी जैसे लोग मासूम और हीरो लगते हैं. ऐसे लोगों की बातों को मुख्यधारा में कभी नहीं सुना जाना चाहिए, क्योंकि पत्थरबाज इन्हीं के इशारों पर काम करते हैं, ताकि स्थिति को बिगाड़ा जा सके.

कश्मीर में मदरसों-मस्जिद के इस्तेमाल पर चीन जैसे कायदे जरूरी

किसी भी आतंकी घटना में एक बात कॉमन होती है, नौजवान. हर घटना में किसी न किसी नौजवान का इस्तेमाल किया जाता है. एक ऐसा नौजवान, जिसने अपनी जिंदगी का अभी पहला ही पड़ाव पार किया होता है और उसका ब्रेनवॉश कर के उसे आतंकी बना दिया जाता है. इन घटनाओं के लिए नौजवानों या यूं कहें कि कम उम्र के लड़कों का इस्तेमाल इसलिए होता है, क्योंकि उनका ब्रेनवॉश आसानी से किया जा सकता है. छोटे पर से ही जिन बच्चों के दिमाग में धार्मिक कट्टरता भर दी जाती है, वह बड़ी ही आसानी से आतंक की राह पर मुड़ जाते हैं. इससे निजात पाने के लिए भारत में भी मदरसों-मस्जिद पर चीन जैसे कायदे होने चाहिए.

चीन में 16 साल से कम उम्र के बच्चों को किसी भी धार्मिक गतिविधि में भाग लेने और धार्मिक शिक्षा की मनाही है. वैसे भी, एक छोटा बच्चा धार्मिक कट्टरता से सीखेगा ही क्या? बजाय इसके, उसे पढ़ने-लिखने और खेल-कूद पर ध्यान देना चाहिए. ऐसा ही कुछ भारत में भी होना चाहिए, ताकि कम उम्र के लड़कों को आसानी से जन्नत का लालच देकर बहलाया ना जा सके. नागरिकों को सख्त चेतावनी है कि 16 साल से कम उम्र के बच्चों के धार्मिक गतिविधि में जाने का ना तो वो समर्थन करेंगे ना ही बच्चों को ऐसा करने के लिए प्रेरित करेंगे.

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इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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