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दिल्ली में आप-कांग्रेस के 'मिलन' की बेकरारी बस खत्म!

    • अबयज़ खान
    • Updated: 06 अप्रिल, 2019 11:13 PM
  • 06 अप्रिल, 2019 11:13 PM
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मुहल्ले से निकल कर विजय चौक और रायसीना हिल्स तक इश्क़ के चर्चे हैं. एकतरफा इश्क़ 'गठबंधन' के लिये तड़प रहा है. प्यार किसी अंजाम तक पहुंचने के लिये छटपटा रहा है.

दिल वालों की दिल्ली में इश्क़ टुकर टुकर छज्जे से झांक रहा है.. आशिक़ मिज़ाज लौंडे इश्क़ को लपकने को बेताब हैं.. मगर कोई है ऐसा भी जिसको ये इश्क़ चुभ रहा है. बसंती मौसम में महबूबा कातर निगाहों से अपने आशिक़ को ललचाई हुई नज़रों से देख रही है, उसका बस चले तो आशिक़ को आंगन में बुलाकर उसके 'हाथों' में 'झाड़ू' पकड़ा दे. मगर आशिक़ भी नादान नहीं है, घाट-घाट पे बेवफ़ाई के ज़ख्म ऐसे मिले हैं कि पुरानी कसक कहीं टीस बनकर उभर आती है. पुरवाई की हवा चलती है तो आशिक़ उन ज़ख्मों को भूल नहीं पाता है.

अंदर से मन उसका भी है कि 'हाथों' में 'झाड़ू' थामकर घर की बिखरी हुई रंगत को फिर से संवारा जाये. 'स्वच्छता अभियान' चलाकर घर में आई हुई मनहूसियत को मिटाया जाये. लेकिन पुराने घाव ऐसे हैं जो ना जीने देते हैं और ना मरने देते हैं. लड़का भी बीच-बीच में इशारा देकर अपनी महबूबा को और तड़पा देता है. अब मसला ये है कि प्यार का इज़हार पहले करे कौन? इब्तेदा इधर से हो या उधर से हो. बस अब इसी धुकधुकी में इश्क़ करवटें बदल रहा है. मगर प्यार छुपता भी कहां है, जो छुपाने की कोशिश करते हैं उनका तो और छप जाता है. और ऊपर से इश्क़ अगर इकतरफ़ा हो तो जालिम आग लगा देता है.

मुहल्ले से निकल कर विजय चौक और रायसीना हिल्स तक इश्क़ के चर्चे हैं

मुहल्ले से निकल कर विजय चौक और रायसीना हिल्स तक इश्क़ के चर्चे हैं. एकतरफा इश्क़ 'गठबंधन' के लिये तड़प रहा है. प्यार किसी अंजाम तक पहुंचने के लिये छटपटा रहा है. मगर जैसी इश्क़ की फितरत है ये ना तो आराम से कबूल होता है और ना ही आराम से हज़म होता है. ऊपर से कम्बख्त इश्क़ के साथ बड़ी परेशानी ये है कि इसमेंं आग लगाने वाले और तड़पाने वाले दोनों ही अपने होते हैं. 'गुप्ताजी' की छोरी 'गांधीजी' के लड़के का 'हाथ' थामकर अपना घर बसाना चाहती है. मगर 'गांधीजी' का लौंडा भी...

दिल वालों की दिल्ली में इश्क़ टुकर टुकर छज्जे से झांक रहा है.. आशिक़ मिज़ाज लौंडे इश्क़ को लपकने को बेताब हैं.. मगर कोई है ऐसा भी जिसको ये इश्क़ चुभ रहा है. बसंती मौसम में महबूबा कातर निगाहों से अपने आशिक़ को ललचाई हुई नज़रों से देख रही है, उसका बस चले तो आशिक़ को आंगन में बुलाकर उसके 'हाथों' में 'झाड़ू' पकड़ा दे. मगर आशिक़ भी नादान नहीं है, घाट-घाट पे बेवफ़ाई के ज़ख्म ऐसे मिले हैं कि पुरानी कसक कहीं टीस बनकर उभर आती है. पुरवाई की हवा चलती है तो आशिक़ उन ज़ख्मों को भूल नहीं पाता है.

अंदर से मन उसका भी है कि 'हाथों' में 'झाड़ू' थामकर घर की बिखरी हुई रंगत को फिर से संवारा जाये. 'स्वच्छता अभियान' चलाकर घर में आई हुई मनहूसियत को मिटाया जाये. लेकिन पुराने घाव ऐसे हैं जो ना जीने देते हैं और ना मरने देते हैं. लड़का भी बीच-बीच में इशारा देकर अपनी महबूबा को और तड़पा देता है. अब मसला ये है कि प्यार का इज़हार पहले करे कौन? इब्तेदा इधर से हो या उधर से हो. बस अब इसी धुकधुकी में इश्क़ करवटें बदल रहा है. मगर प्यार छुपता भी कहां है, जो छुपाने की कोशिश करते हैं उनका तो और छप जाता है. और ऊपर से इश्क़ अगर इकतरफ़ा हो तो जालिम आग लगा देता है.

मुहल्ले से निकल कर विजय चौक और रायसीना हिल्स तक इश्क़ के चर्चे हैं

मुहल्ले से निकल कर विजय चौक और रायसीना हिल्स तक इश्क़ के चर्चे हैं. एकतरफा इश्क़ 'गठबंधन' के लिये तड़प रहा है. प्यार किसी अंजाम तक पहुंचने के लिये छटपटा रहा है. मगर जैसी इश्क़ की फितरत है ये ना तो आराम से कबूल होता है और ना ही आराम से हज़म होता है. ऊपर से कम्बख्त इश्क़ के साथ बड़ी परेशानी ये है कि इसमेंं आग लगाने वाले और तड़पाने वाले दोनों ही अपने होते हैं. 'गुप्ताजी' की छोरी 'गांधीजी' के लड़के का 'हाथ' थामकर अपना घर बसाना चाहती है. मगर 'गांधीजी' का लौंडा भी ढेर स्याणा है. घर बसाने से पहले वो भी पूरे नफे-नुकसान के हिसाब में लगा है.

इश्क़ की हान्डी उबल रही है. मगर छोरा भाव देने को तैयार नहीं है. उधर से ज़ालिम जमाना है, कम्बख्त इश्क़ को परवान भी नहीं चढ़ने देते. कुछ फूफा-ताऊ ऐसे भी हैं जो सपनों पर 'झाड़ू' फेरने पर तुले हैं. कनखियों से सियासत के इश्क़ में झुलस रहे नादान परिंदे ज़रा सा कदम आगे बढ़ाने की कोशिश भी करते हैं, तो घर में बैठी एक बूढ़ी 'चाची' टांग अड़ा देती हैं और निगोड़े इश्क़ में मट्ठा डाल देती है. तमाशा देखने वाले कुछ जलनखोर अलग से 'हाथ' तापने में मस्त हैं. ऊपर से घर के लोग दुहाई दे रहे हैं कि भैया इंटरकास्ट तो चल भी जाती, मगर ये तो लव जिहाद हो जायेगा. 'टोपी' वाले से इश्क़ ना बाबा ना.

इधर दो बेगाने झुलस रहे हैं उधर अपने पंडित जी हैं. भरी गर्मी में ठंडे पानी में मस्त पड़े हैं. मौका लगता है तो बीच-बीच में अपना छींटा भी मार देते हैं. पंडित जी को इश्क़ करने में कोई दिलचस्पी नहीं है, मगर दूर से बैठकर खेल का मज़ा पूरा ले रहे हैं. कभी महबूबा के लिये हाथों में 'फूल' लेकर रास्ता बनाने वाले पंडित जी इसी में खुश हैं कि चलो इश्क़ हमसे नहीं किया तो किया, तुम्हारा खेल तो बिगाड़ कर ही दम लेंगे. इधर साज़िशें हैं उधर चुपके-चुपके मुलाक़ातें हैं. रिश्ते को अमलीजामा पहनाने की कोशिशें हैं, मगर नादानों को कौन समझाए कि शर्तों की मुहब्बत परवान कहां चढ़ती है. अब डर यही है अगर ये इश्क़ रिश्ते में तब्दील हो भी गया तो कहीं ऐसा ना हो कि बहुत जल्द ही 3 तलाक़ की नौबत आ जाये.

ये इश्क़ नहीं आसां.. बस इतना समझ लीजिये.

झाड़ू का सहारा है...और हाथ कुछ नहीं आना है..

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इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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